उस दिन बड़े साहब न जाने किस मूड में थे कि कॉरीडोर में जमनालाल ने रोज की भांति उनको नमस्ते की तो अचानक ही चाल धीमी करके उन्होंने पूछ लिया कि कैसे हो भाई तुम? वैसे, उसका उत्तर सुनने के लिए वे रुके नहीं। जब तक वह घिघिया कर कह पाता कि सब कृपा है सरकार की, तब तक तो साहब अपने चेंबर की तरफ निकल गए। तेजी में थे। तेजी में रहते ही हैं। हरदम। साहब लोगों को भला कहां फुर्सत। बड़े आदमियन की बड़ी बातें। जमनालाल जैसे छत्तीसों मातहत- सुनने को रुकने लगें, तब तो हो गया। जमनालाल इस दफ्तर में दैनिक वेतन कर्मचारी हैं। रोजनदारी वाला। डेली रेटेड वर्कर। क्षणभंगुर टाइप नौकरी। साहबों की किरपा पर टिकी। सूत-सी कच्ची नौकरी। हटाने के लिए एक दिन के नोटिस की दरकार भी नहीं। उसके अपॉयंटमेंट लेटर में ही साफ दर्ज है कि एकदम टेंपरेरी सर्विस है उसकी। श्वांस की पतली-सी डोर। कोई छोटे-मोटे साहब तक चाहे जब काट दें। फिर ये तो बड़े साहब ठहरे। सबसे बड़े साहब! इनका तो क्या ही कहना। जमनालाल ने भगवान को कभी देखा नहीं। सुना भर है उसके बारे में कि वह सर्वशक्तिमान होता है। हां, जमनालाल ने बड़े साहब को अलबत्ता देखा है। नित्य देखता है। कॉरीडोर से गुजरते। ऐसे ही तो होते होंगे भगवान। सर्वशक्तिशाली। दिव्य। चाहें तो टेंटुवे पर लात रखते निकल जाएं, और चाहें तो ‘तथास्तु’ बोल कर किसी वरदान का आर्डर इश्यू कर डालें। जमनालाल उन्हें दूर से ही देख-देख अविभूत होता रहता है। उसका काम कॉरीडोर चमकाना है। रह-रह कर झाड़ू-पोंछा मारता जमनालाल, साहब को आता देख एकदम दीवार से चिपक जाता है, झाड़ू को चोरी की चीज-सा पीठ की तरफ करके छिपाता है और दोहरा होकर झुक कर उन्हें प्रणाम करता है। वर्षों से हर बड़े साहब को उसने ऐसे ही प्रणाम किया है। ऐसे में कभी उसके चेहरे के भाव तो देखिए। श्रद्धा, भय, आशा, दंडवत और भक्तिभाव से सना चेहरा। साहब के गुजर जाने के बाद भी देर तक झुका ही रहा आता है जमनालाल।

जमनालाल, वैसे तो हर छोटे-बड़े साहब को दिन भर सलाम ही करता रहता है। इतना बड़ा दफ्तर। उसके इतने छोटे-बड़े अफसर। चौरासी करोड़ देवता। सबको प्रणाम करता है। न जाने कौन, कब प्रसन्न हो जाए और उसे परमानेंट होने का वरदान दे डाले। दस वर्षों से रोजनदारी पर है वह। हो सकता है कि टेंपरेरी नौकरी करते-करते ही वह परमानेंट हो जाए। या यह भी हो सकता है कि वे कभी निकाल ही बाहर कर दें उसे कि कल से उसकी आवश्यकता नहीं। या यह भी हो सकता है कि कभी कोई साहब की किरपा हो जाए और उसकी नौकरी पक्की बन जाए। हां, यह भी हो सकता है। किस्से कहे-सुने जाते हैं दफ्तर में। दंतकथाओं जैसे कि कैसे, किसी साहब ने, किसी रोजनदार की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे परमानेंट करा दिया था। पौराणिक आख्यान जैसे किस्से। जमनालाल बड़े अहोभाव सुनता, सुनाता रहता है ये किस्से। पर इधर आज तो अनहोनी हो गई! सबसे बड़े साहब ने न केवल अचानक उसे मुस्कुरा कर देखा, वरन पूछ भी लिया कि कैसे हो भाई?… बताइए। इत्ते बड़े साहब। चक्रवर्ती सम्राट ही मान लो कि जब भी कॉरीडोर से निकलें तो सूरज-सी दमक साथ-साथ चले। ऐसे आदमी के पास कहां फुर्सत और उसे क्या मतलब कौन झाड़ू मारता है उसके रास्ते में? पर देखो कि आज उससे पूछ लिया कि कैसे हो तुम? विश्वास ही नहीं कर पाया जमनालाल इस अलौकिक चमत्कार पर। दीवार से देर तक चिपक कर खड़ा रहा जमनालाल। साहब ने यों ही रुक कर हाल पूछ डाला तो उसे समझ ही नहीं आया कि क्या करे? जमनालाल अविभूत हो गया। कॉरीडोर अचानक ही उजास से भर गई। न जाने कहां से परिंदे आए और बरामदे में चहचहाने लगे। सुखद बयार बहने लगी और जमनालाल का फटा, छीजा गमछा उड़ चला। चौतरफा फूल खिल गए। कोयल आई और सीधे ही जमनालाल के कंधे पर बैठ कर कूकने लगी। कॉरीडोर की छत में यहां से वहां तक सितारे भर गए। पूरा चांद निकल आया। दिशाएं गा उठीं। श्वांसों में खुशबू भर गई।… सब कुछ अलौकिक लगने लगा।

जमनालाल अदम्य उत्साह से भर गया। उस दिन डट कर काम किया उसने। खुशी-खुशी, यहां-वहां झाड़ू-पोंछा मारता फिरा। सबको बार-बार नमस्ते करता रहा। गुनगुनाने तक लगा। शायद, एकाध बार, खुल कर हंसा तक। यों ही। बैठ कर झाड़ू को तन्मयतापूर्वक जोर से बांधता रहा कि टपकती हैं तीलियां सरकारी खरीद की झाड़ू से, जो ठीक बात नहीं। चमकाए वे कोने भी, जहां पोंछा चूक जाया करता है। खिड़कियों के कांचों पर कपड़े से देर तक इतना रगड़ा कि दिखने लगा एकदम ऐसा आरपार कि जैसा पहले कभी दिखा ही नहीं।… लोगों ने यह नोट कर लिया कि आज बड़ा खुश है जमनालाल। पर किसी ने पूछने की परवाह नहीं की कि भला क्यों है वह ऐसा खुश? और जो कोई पूछ ही लेता तो क्या बता पाता जमनालाल?… क्या बताता वह? कैसे बताता जमनालाल?… शब्द ही कहां हैं जमनालाल के पास, जो बयान कर सकें यह भावना कि कैसा लगता है उस आदमी को जो टेंपरेरी नौकरी में रोज मरता हुआ जीता है और उसे अचानक ही पता चलता है कि कोई ऐसा बड़ा आदमी उससे खुश है, जो कभी करवा सकता है उसकी नौकरी परमानेंट? मन नाच रहा है उसका। वह वर्षों से गोते खाता हुआ कैसे तो स्वयं को डूबने से बचाए हुए था अभी तक और आज कहीं से मानो कोई हाथ बढ़ाता दिख रहा है- तो कैसे उस खुशी को व्यक्त करे जमनालाल? माना कि हाथ अभी बहुत दूर है। पर साहब उससे खुश तो जरूर हैं न? तभी तो खुद रुक कर पूछने लगे कि कैसे हो भाई जमनालाल? साहब खुश हैं तो उनके लिए फिर कौन-सी मुश्किल? जब चाहें उसे परमानेंट कर डालें। कागज उठा कर कब दस्तखत मार दें, कहीं पता चलता है क्या? हो सकता है कि कल ही बड़े बाबू जमनालाल को बुला कर आर्डर पकड़ा दें कि बड़े साहब ने तुमको परमानेंट करने को बोला है!

उस दिन जमनालाल ने घर लौटते हुए पत्नी के लिए गजरा खरीद लिया। कितना खटती रहती है बेचारी।… जमनालाल ने बच्चों के लिए दो दोने जलेबी भी खरीदी। हैं शरारती, पर बड़े भोले बच्चे हैं उसके।
अच्छा हुआ कि जमनालाल ने दफ्तर में किसी से इस घटना का जिक्र नहीं किया। अच्छा रहा कि उसने किसी को बताया नहीं कि क्यों था वह इतना खुश? सब उस पर हंसते। कोई शायद उसे यह वास्तविकता भी बता ही देता कि साहब लोग तो यों ही मौज में आकर, ऐसे ही, किसी से भी कुछ कह दिया करते हैं। साहबी की ट्रÑेनिंग में तो यह सिखाया ही जाता है कि बीच-बीच में कर्मचारियों से ऐसे ही पूछ लिया करो। इस बात का और कोई मतलब नहीं। पर अच्छा हुआ कि उसने किसी से कुछ बताया ही नहीं। वरना कोई कुछ कह ही देता तो? जमनालाल खुश है। उसे खुश ही रहने दें।