ए क साल और बीत गया। इस साल ने ऐसी अनेक यादें छोड़ी हैं जिन्हें भूलने का मन नहीं करेगा पर क्या कुछ ऐसी भी यादें हो सकती हैं जिन्हें निश्चय ही भूलना चाहिए। जब 2015 का साल शुरू हुआ तो लगा था कि बहुत कुछ बदल सकता है। युवाओं ने चमकते रोजगार के सपने देखे थे, तो किसानों ने भरपूर फसल का सपना, कमर्चारियों ने समृद्ध होती जिंदगी का सपना देखा था, तो पारिवारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं ने लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और समानता का सपना देखा। इन सपनों का कैसे मूल्यांकन किया जाए। निश्चय ही भौतिक विकास का रास्ता गति पकड़ चुका है। चमचमाते महल, चौड़ी और व्यस्त सड़कें, तीव्र गति से दौड़ते वाहन और आकांक्षाओं का अधिक से अधिक व्यापक होते जाना, वे उपलब्धियां हैं, जिन्हें किसी न किसी रूप में 2015 के भारत ने पाया है।
पर अभी बहुत कुछ पाना बाकी है क्योंकि भौतिक विकास एक सतत प्रक्रिया है। पर वहीं दूसरी ओर विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की घटनाओं में वृद्धि, ऋणग्रस्त किसानों की आत्महत्या, जरा-जरा से व्यक्तिगत मुद्दों पर सामूहिक और सामुदायिक हिंसा, भाषाई हिंसा और दूर-दराज के गांव के लोगों और आदिवासियों के द्वारा याचक के रूप में सत्ता संस्थानों को देखना, ऐसे पक्ष हैं जो यह बताते हैं कि विकास की हवा उन तक 2015 में नहीं पहुंची।
अब तो इस असहायता को उन्होंने अपना भाग्य मान लिया है। 2015 में हमने कई तरह का विभाजन देखा। एक वह समूह है जो हिंसा को शक्ति मानता है और एक ऐसा समूह है जो हर प्रकार की हिंसा से भयभीत रहता है। पहले वाला समूह संख्या में छोटा है पर संसाधनों के स्वामित्व की नजर से वह इतना विशाल है कि शेष को अपने में समेटने की क्षमता रखता है। दूसरा समूह संख्या में तो बहुत बड़ा है लेकिन असंगठित है, उसके पास आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयुक्त साधनों की सीमित उपलब्धता है, लेकिन वह स्वयं को जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि इत्में इतना बांट चुका है कि उसे यह पता नहीं हैं कि उसके भविष्य की दिशा किधर जाती है। इस सामाजिक विभाजन के पीछे कौन-सी शक्तियां सक्रिय हैं, को वह जानने का इच्छुक नहीं है।
और अगर जानता है तो उनसे लड़ नहीं सकता क्योंकि उसे उन शक्तियों ने ही असंगठित बनाया है। 2015 ने इस जनसंख्या के सम्मुख ऐसे अनेक सवाल उत्पन्न किए हैं, जिनके उत्तर उन्हें कभी न कभी देने होंगे। क्या वे अपने गांव को ‘स्मार्ट सिटी’ की तर्ज पर ‘स्मार्ट गांव’ बनाने के इच्छुक हैं? क्या धर्म और जाति के परे वे एक ऐसे समावेशी विकास का रास्ता खोज सकते हैं जो उनकी बुनियादी जरूरतों संतुष्ट करने में उनकी मदद कर सके? क्या वे चाहते हैं कि उनकी और उनके भविष्य की पीढ़ी स्वस्थ और शिक्षित हों ताकि उनके द्वारा वे प्रयास किए जा सके जिनसे एक नवीन और सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था की रचना हो सके।
भारत ने सपने तो बहुत देखे थे, उन सपनों को देखते-देखते लगभग सत्तर साल होने को आए। कुछ सपने आज भी याद करने लायक हैं जिसमें हरेक के लिए रोटी, कपड़ा और मकान है। कुछ सपने हम भूल गए हैं, क्योंकि उन सपनों को याद दिलाने वाली पीढ़ी अब हमारे बीच में नहीं है। और इसलिए उन सपनों के साथ अक्सर छेड़खानी भी होती है। शिक्षा और स्वास्थ्य का सपना इसी हिस्से में आता है। दूर-दराज के गांव से लेकर कोलकाता तक नवजात शिशु चिकित्सा सेवा के अभाव में मर जाते हैं या फिर विभिन्न क्षेत्रों में बच्चों को विशेष पोशाक पहनाकर जाना होता है ताकि उनकी जाति को दूर से समझा जा सके। क्या भूले बिसरे इन सपनों को, जिनमें समानता, स्वतंत्रता और न्याय की अटखेलियां सम्मिलित थीं, 2016 फिर से जिंदा करेगा? जिंदा रहना भी सपना देखने जैसा है। १
