देश को आजाद हुए 67- 68 वर्ष बीत जाने के बाद भी हिंदी और भातीय भाषाओं को लेकर आज भी विभिन्न स्तरों पर संघर्ष जारी है। शासन -प्रशासन में आज भी हिंदी और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा हो रही है। हिंदी तो अनुवाद की भाषा बनी हुई है,जबकि अनुवाद की भाषा अंग्रेजी को होना चाहिए था। भारतीय भाषाओं को लेकर आज भी कई भाषाप्रेमीजन आंदोलनरत हैं। विगत चौंतीस माह से ‘भारतीय भाषा आंदोलन’ के कर्ताधर्ता देवीसिंह रावत के नेतृत्व में संषर्ष जारी है। इस मुहिम का लक्ष्य देश को अंग्रेजी भाषा की गुलामी से मुक्त कराना है।

देवीसिंह मानते हैं कि भाषा के मामले में देश आज भी गुलाम है, क्योंकि आज भी शासन प्रशासन और न्यायतंत्र का कामकाज अंग्रेजी भाषा में ही चलाया जा रहा है। उनकी मांग है कि शासन प्रशासन और न्यायालयों में कामकाज की भाषा हिंदी हो। भारतीय भाषा आंदोलन की पहल का थोड़ा बहुत असर हुआ है, लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे जितना ही है। दिल्ली सरकार और अधीनस्थ अदालतों में हिंदी में कुछ जगहों पर काम शुरू हुआ है, लेकिन प्रमुख और प्रभावी कार्यालयों में आज भी अंग्रेजी हावी है। रावत का आंदोलन हिंदी के समर्थन में फिलहाल जारी है।

हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी और मैथिली जैसी बोलियां जो वास्तव में सह-भाषा मानी जाती हैं, उनकी भी स्थिति ठीक नहीं है। हिंदी के साथ बोलियों का भी उद्धार किया जाना जरूरी है। भोजपुरी और राजस्थानी और मैथिली में लेखन कार्य भी खूब हो रहा है। फिर यह भेदभाव क्यों? इन बोलियों को भी भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। क्यों इनसे अछूतों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। भारतीय भाषाओं के इस मनोविज्ञान को पहचानना जरूरी है।

भाषाओं को लेकर यूनीकोड-तकनीक से मेल-मिलाप का प्रयास हो रहा है। विद्वान मानते हैं कि हिंदी जमीन से जोड़ने की भाषा है और अंग्रेजी आसमान से। दोनों को मिलाने वाली तकनीक बन गई है। अंग्रेजी के जानकार आसानी से हिंदी सीख सकते हैं और हिंदी के जानकार अंग्रेजी सीख सकते हैं। इससे हिंदी का कुछ भला हो सकता है। यूनीकोड के जरिए तमाम अंग्रेजी भाषी लोग भी हिंदी शब्दों की पहचान कर रहे हैं। हिंदी भारत की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है।

एक अनुमान के मुताबिक भारत के सत्तर प्रतिशत से भी अधिक लोग हिंदी भाषा को आसानी से बोल समझ सकते हैं। फिर भी इस भाषा को वह मान-सम्मान नहीं मिला, जिसकी यह हकदार थी। तमाम दलों के नेता चुनावों में हिंदी का पक्ष जरूर लेते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे अंग्रेजी का समर्थन करने लगते हैं।

हिंदी को सम्मान नहीं दिया जाना, इस देश की भारी भूल है। नेता हों या मंत्री या अफसर, वे भी ज्यादातर अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करते देखे जाते हैं। अधिकतर लोग यानी किसान,गरीब,मजदूर वर्ग के लोग ऐसी भाषा नहीं समझ पाते। किसानों, मजदूरों, गरीबों के हित की बात करने वाली सरकारों का कामकाज भी अंग्रेजी में ही चलता है। जिस भाषा में मंत्रीगण अपनी योजनाओं का बखान करते हैं, क्या वह देश का किसान, गरीब, मजदूर वर्ग समझ भी पा रहा है? जिनके लिए योजनाएं बन रही हैं अगर वे ही उसको समझ नहीं पा रहे तो उस भाषा का क्या फायदा? सच तो यह है हिंदी ही ऐसी भाषा है, जिसे सही मायने में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और राजस्थान से लेकर असम तक लोग समझते हैं। इसलिए जरूरी है कि हिंदी को यथाशीघ्र कामकाज की भाषा बनाया जाए। साथ ही इसे रोजगार से भी जोड़ने की जरूरत है।