फिरोज बख़्त अहमद

कम ही लोग जानते होंगे कि ग़ालिब की बस एक ही श्वेत-श्याम तस्वीर है, जिसके आधार पर कलाकारों ने अगणित चित्र बनाए हैं। उस समय पिन-होल कैमरा नया-नया आया था। उन दिनों उनकी सेहत भी अच्छी नहीं थी। यह उन दिनों की बात है कि जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह और ग़ालिब के मित्र बहादुरशाह जफर की तस्वीरें खींची गई थीं। ग़ालिब की पहली और अंतिम तस्वीर दिल्ली के फोटाग्राफर रहमत अली ने खींची थी। रहमत अली के बारे में आज किसी को कुछ पता नहीं।

यह अलग बात है कि ग़ालिब बादशाह के बड़े करीब थे और सभी बड़े अफसर भी उनका सम्मान किया करते थे। मगर उम्र तमाम फाकामस्ती में ही गुजरी। जैसा कि इस शेर में कहा गया है: ‘कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि / हां रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।’ एक और शेर में ग़ालिब की निर्धनता का जिक्र है, ‘है खबर गर्म उनके आने की / आज ही घर में बोरिया न हुआ।’ मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली का कहना है कि यों तो बादशाह ने उन्हें नज्मुद्दौला, निजाम-ए-जंग, दबीरुलमुल्क की उपाधि दी थी, मगर सारी उम्र वे तंगदस्ती से ही जूझते रहे।

ग़ालिब की प्रसिद्धि का कारण यह है कि उनकी शायरी हर समय के लिए यथार्थ से जुड़ी पाई गई और सामान्य व्यक्ति के दिल के तारों को झंकृत कर गई। आज भी उनके शेरों पर लोग जान देते हैं। इश्किया शायरी में उनका कोई सानी न था। ‘इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया / वर्ना आदमी हम भी थे काम के।’ ग़ालिब के समय में मसनवी और कसीदागोई का चलन था।
ग़ालिब से जुड़ी हर चीज की अहमियत है। चाहे वह मुंशी नवल किशोर का छापाखाना हो या वह फोटोग्राफर या वह दुकानदार, जहां से वे कलम और सियाही खरीदा करते थे। जिस समय रहमत अली ने उनकी तस्वीर खींची थी, भारत में तो कैमरे का चलन नहीं था मगर ब्रिटेन में इसकी ईजाद हो चुकी थी और किसी व्यक्ति ने इसे भारत में मंगवाया था। यह तस्वीर 27 मई, 1868 यानी ग़ालिब के देहांत से नौ महीने पहले खींची गई थी। उनका देहांत 15 फरवरी,1869 को हुआ था। इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि उनके पास इस तस्वीर की बहुत सी प्रतिया थीं, जो उन्होंने अपने मित्रों और चाहने वालों को बांटी थीं। इनमें से केवल दो प्रतियां ही बची थीं।

इसकी एक असली प्रति मौलाना आजाद नेशनल लाइब्रेरी (हबीब गंज कलेक्शन ऑफ खान बहादुर बशीरुद्दीन) में सुरक्षित थी, जिसे ग़ालिब के एक मित्र साहिब-ए-आलम मारहर्रवरी ने उनको भेंट की थी। बकौल नजमुलहसन ग़ालिब की असली तस्वीर एक लिफाफे पर छपी थी, जिसके ऊपर एक आने के डाक टिकट लगे हुए थे और यह बाग पुखता के मूसा जैदी के पास थी।

जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में खान बहादुर बशीरुद्दीन की पुस्तकें और पांडुलिपियां रखी गर्इं तो यह तस्वीर भी वहां पहुंची, जो वास्तव में मौलाना आजाद को दी गई थी। यह फोटोग्राफ रजिस्टर्ड डाक से अलग से भेजी गई थी। लिफाफे के ऊपर टिकटों पर जो मुहर है, उसमें 27 तो सफाई से पढ़ने में आता है, 68 भी, मगर महीना या तो 5 है या 6। विद्वानों की राय है कि यह पांचवां महीना यानी मई था। वैसे लिफाफे के ऊपर जो इबारत लिखी थी, वह थी : ‘मारहरा, हजरत साहिब-ए-आलम साहब मुद्दा जिल्लहुलाली ग़ालिब 5।’ यह इस बात का प्रमाण कि रहमत अली ने यह तस्वीर मई 1868 को ली थी। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि 28 मई 1869 को दिल्ली के उस समय के प्रसिद्ध दैनिक ‘अकमल-उल-अखबार’ में एक विज्ञापन दिया गया था जो कुछ इस प्रकार से था : ‘आला हजरत असदुल्लाह खां ग़ालिब, बहुत सी खिलतों व सम्मान के पाने वाले शायर के द्वारा तस्वीर खिंचवाना हमारा सौभाग्य था। यदि कुछ लोग इस तस्वीर की एक कापी मंगाना चाहें तो हमें वे दो रुपए के डाक टिकट किसी लिफाफे में रख कर लाला बिहारी लाल, अकमल-उल-मताबे, दिल्ली भेज दें। फोटोग्राफ वीपी द्वारा जल्दी प्राप्त होगा।’

इस विज्ञापन की तिथि हमें बताती है कि ग़ालिब की यह तस्वीर हर हाल में 28 मई, 1868 से पहले की ही खिंची हुई है। लगभग सौ वर्ष पूर्व यही तस्वीर लखनऊ की पत्रिका ‘मेयार’ के जनवरी-फरवरी 1910 के संस्करण में प्रकाशित की गई। पत्रिका के संपादक हकीम सैयद अली मोहसिन अब्र ने एक नोट में लिखा: ‘यह नवाब सैयद बहादुर हुसैन खान अंजुम निशापुरी की मेहरबानी थी कि ग़ालिब की फोटो मुझे मिली।’ वास्तव में उन्हें यह तस्वीर जयपुर से ख्वाजा कमरुद्दीन खां राकिम ने, जो कि गा़लिब के एक संबंधी थे, ने भेजी थी। उसमें उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया था कि ग़ालिब के कुछ शिष्यों ने उन्हें उनके देहांत से कुछ समय पूर्व समझा-बुझा कर तस्वीर खिंचवाने पर राजी कर लिया था। लोग बताते हैं कि ‘उस समय ग़ालिब अपने बिस्तर पर लेटे थे और उन्हें सहारा देकर बिठाया गया था ताकि तस्वीर खिंच जाए।’

मिर्जा फरहतुल्लाह बेग ने भी अपनी पुस्तक में वर्णन किया है कि किसी से ग़ालिब की तस्वीर खिंचवाई गई। मोमिन के एक रंगीन हाथ से बनाए चित्र के ऊपर अपनी रचना लिखते हुए बेग साहब के शब्द हैं: ‘ मेरे चाचा मिर्जा अब्दुस्समद बेग ने ही गालिब को समझाया था कि वे रहमत अली फोटोग्राफर द्वारा एक तस्वीर खिंचवा लें।’