बहुत साल पहले नीता अंबानी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनकी परवरिश मध्यवर्गीय परिवार में हुई थी, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को मध्यवर्गीय मूल्य देने की कोशिश की। उनकी मां गुजरात में रहती थीं और उनके बच्चे रेलगाड़ी में बैठकर उनसे मिलने जाते थे। उन्होंने यह भी कहा था कि जब उनके बच्चे विदेश में पढ़ते थे, तब भी उन्होंने उन्हें लाने के लिए अपने निजी जहाज नहीं भेजे। वे एअरइंडिया के जहाजों से ही आते थे। अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्य राय, आमिर खान, अक्षयकुमार, शिल्पा शेट्टी, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण आदि भी गाहे-बगाहे अपनी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि और उससे मिले मूल्यों का जिक्र करते रहे हैं। मजेदार है न कि जो मध्यवर्ग इन जैसी प्रसिद्धि के सपने देखता है, जो फिल्मवालों के रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल, भाषा से काफी प्रभावित दिखता है, जिसका सपना एक न एक दिन उन्हीं जैसा बन जाने का है, जो बालीवुड की सफलता को सबसे बड़ी सफलता समझता है और वहां काम करने वालों को अपना रोल मॉडल मानता है, उनके वही आदर्श अपने गुजरे हुए जमाने को याद करते हुए जीते हैं।
समाज की शृंखला कुछ ऐसी है, जिसमें बहुत गरीब, निम्न मध्यवर्ग में, निम्न, मध्यवर्ग और मध्यवर्ग, उच्च वर्ग में और उच्च, नवधनाढ््य वर्ग में छलांग लगाना चाहता है। इन दूरियों को तय करने में कई बार पूरी जिंदगी बीत जाती है, मगर फासले नहीं पटते। अंबानी, बिड़ला, टाटा की किस्मत से ईर्ष्या करते हुए यह वर्ग, उन्हीं जैसा बनना चाहता है। जब से लाइफ स्टाइल पर मीडिया ने ज्यादा फोकस किया है, फिल्में भी लाइफ स्टाइल को बेचने वाला मंत्र बनी हैं। गांव और कस्बों के लोग भी जानने लगे हैं कि अमुक मशहूर आदमी, औरत छुट्टी बिताने कहां जाते हैं, किस होटल में खाते हैं, किस ब्रांड के कपड़े पहनते हैं, कौन सी कार रखते हैं, कौन सा मोबाइल, पसंदीदा खाना कौन सा है। इन सबको पढ़ते-देखते, सुनते, नौजवान लड़के-लड़कियां चौबीस- सात के फ्रेम में काम करने वाले सब वैसा ही करना चाहते हैं। उन्हीं जगहों पर कम से कम एक बार जाना चाहते हैं, जहां ये बड़े लोग जाते-आते हैं, खाते-पीते हैं। उन जगहों पर गए थे, फलां जगह खाया था, फलां से मिले थे, उस नेता, अभिनेता के साथ सेल्फी ली थी, इसे फौरन जताने-बताने के लिए फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्सअप है न। मैसेज और मेल भी है। आज के मध्यवर्ग में शामिल युवाओं के लिए सब कुछ फौरन का फौरन यानी कि इंस्टेंट है। एक वाक्य खूब चलता है न इन दिनों-आज की आज कर, कल की फिकर नाट कर। यानी कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब का आधुनिक रूप। यार कल किसने देखा-ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी। अपने यहां चार्वाक पहले ही कह गए-यावत् जीवेत, सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वाए घृतम् पीवेत। जीवन छोटा है। आज इंज्वाय नहीं करेंगे, तो कब करेंगे? इसलिए ऋण लेना पड़े, भारी इएमआई चुकाते उम्र निकल जाए, सुख और सुख के साधन चाहिए जरूर।
इसीलिए भारत का मध्यवर्ग, जिसकी आबादी अमेरिका की आबादी के आसपास है उसकी चिंता कल की नहीं है। कल के लिए बचाना, आज के संबंधों को जीवन भर के लिए सहेजना, एक संबंध को ताउम्र निभाना पुराने जमाने की बातें हुर्इं। आज तो जो कुछ है, अभी के लिए है। इसीलिए आप देखेंगे कि न नौकरियों में स्थायित्व बचा है, न संबंधों में ही। सब कुछ टू मिनट नूडल की तरह क्षणभंगुर है। कपड़े जिन्हें ट्रेंड बदलते ही बदल जाना है। वे फटें न फटें, जो परदे पर दिख रहा है, वही चाहिए। वैसे ही जूते, वही पार्लर, वही लिपिस्टिक, वही डिओ, वही घड़ी, परदे-कुशन, कवर, फर्नीचर यहां तक कि बिल्कुल वैसा ही टिश्यू पेपर, जिस पर रखकर सलमान खान ने चिकन पकौड़ा खाया था। लेकिन सब कुछ जल्दी-जल्दी। अखबार की जगह मोबाइल पर न्यूज। खाने की जगह कुछ ऐसा जो जल्दी बन सके, जल्दी मिल सके। बनाना न पड़े। आजकल बहुत से युवा जोड़े ऐसे हैं जो अपने घरों में रसोई रखना पसंद नहीं करते। बहुत से बिल्डर्स बिना रसोई के घर बना रहे हैं। और अफसोस यह है कि वे यह सब दूसरों की देखादेखी करते हैं। प्रचार माध्यम किसी न किसी सेलीब्रिटी के जरिए मध्यवर्ग के लोगों को जो कुछ खरीदने के लिए कह देते हैं, वे उधर ही दौड़ पड़ते हैं। जिस फिल्म को हिट बता दिया जाता है, वह रातोंरात सौ, दो सौ, तीन सौ और चार सौ करोड़ क्लब में इसी मध्यवर्ग के सहारे पहुंच जाती है। इसी मध्यवर्ग ने मनोरंजन के नाम पर गीत-संगीत की सारी प्रविधियों को छोड़ हर उत्सव, शादी, ब्याह, मुंडन, कनछेदन, जन्मदिन के अवसरों पर बालीवुड के संगीत को डी जे के जरिए घर-घर गांव-गांव तक पहुंचा दिया है। लेकिन इस मनोरंजन में भी टू मिनट नूडल का ही तर्क चलता है। आज जो गाना हर कोई गुनगुनाता पाया जाता है,घंटों उसकी धुन पर थिरक-थिरक कर बिताता है, कल वह गाना याद तक नहीं रहता। संगीत की उम्र भी जैसे घटकर कुछ दिन, कुछ मिनट ही रह गई है।
बाहर खाने का शौक ज्यों-ज्यों बढ़ा है, होटल इंटस्ट्री ने भारी तरक्की की है। अक्सर अखबारों, चैनलों पर भी खाने की रेसिपीज तमाम तरीकों से बताई जाती हैं। खाना बनाना बताने की ढेरों बेवसाइटें हैं। मास्टर शेफ हैं। कुकरी की पत्रिकाएं हैं। अखबारों के सप्लीमेंट हैं। कल तक जो चीजें महिलाएं घर पर बना लेती थीं, वे सब अब बाजार में उपलब्ध हैं। घर पर जो सिलाई की जाती थी, अब कहीं नहीं दिखती। रेडीमेड कपड़ों से बाजार भरा पड़ा है। कपड़े सिलने वाले दर्जी भी अब ज्यादा दिखाई नहीं देते। अपनी-अपनी जेब के हिसाब से एक से एक महंगे कपड़े खरीदने की होड़ है।
एक बार जानी-पहचानी लेखिका मधु किश्वर ने लिखा था कि पश्चिमी देशों में किस प्रकार से हर तीन महीने में ट्रेंड बदलने के नाम पर कपड़ों के रंग बदल दिए जाते हैं। फिर मीडिया, विज्ञापन तंत्र, उद्योग के जरिए इन कपड़ों के प्रचार-प्रसार को बहुप्रचारित करके बेचा जाता है। और जो रंग आपके पहनने के लिए दूसरों ने तय किए, जिसके जरिए आपके अच्छे-भले कपड़ों को आउट आफ फैशन और ट्रेंडी कहकर आपकी अलमारी से बाहर करने की जुगत भिड़ाई और बदले में आपकी जेब में हाथ डालकर एक मोटी रकम हड़प ली। आखिर यों ही तो नहीं है कि इस दुनिया में आठ लोगों के पास दुनिया की पचास प्रतिशत पूंजी है। और भारत में मात्र एक प्रतिशत के पास पूरे देश की सत्तावन प्रतिशत दौलत है। फैशन, मनोरंजन, खान-पान उद्योग वे नए क्षेत्र हैं, जहां आपके मनोविज्ञान पर आसानी से हावी हुआ जा सकता है। आप क्या पहनें, क्या खाएं, कैसे दिखें, कैसे रहें, आपका कमरा कैसा हो, बच्चे का कमरा कैसा हो, उसकी पानी की बोतल कैसी हो, उसे कौन सा बेबीफूड चाहिए, इसे दूसरे तय करते हैं, कर रहे हैं। हम समझते हैं और इतराते हैं कि यह हमारी च्वाइस और पसंद का मामला है, जबकि ऐसा होता नहीं है। आज मध्यवर्ग दूसरों के बनाए मायाजाल की गिरफ्त में है। वह उसे खाता है, जो दूसरों को खाते देखता है, वहां रहना चाहता है, जहां दूसरे रहते हैं जिन्हें वह अपने से अधिक धन संपदा वाला समाज का प्रभावशाली वर्ग समझता है। दूसरों जैसा दिखना ही जैसे उसकी यूएसपी है। अगर रीयल स्टेट के प्रचार तंत्र पर नजर डालें, उनके विज्ञापनों को देखें तो वे मध्यवर्ग को वही सपना बेचते हैं जो वह देखता है। ड्रीम हाउस, विला, स्विमिंग पूल, स्पा, फूड कोर्ट, इटैलियन टाइल्स, सोलर पावर यानी कि सारी सुविधाएं एक जगह। आपके घर, आपकी सोसाइटी में। इस धरती पर उतारा एक ऐसा स्वर्ग जो अल्टीमेट है। और इस अल्टीमेट में रहने वाला इम्पावर्ड है। शक्ति संपन्न है। दूसरों से श्रेष्ठ है। रहने के अलावा नौकरी पाते वक्त यह भी पूछा जाता है कि किस स्कूल में पढ़े थे। किसी नामी में या सरकारी में। कालेज कौन सा था। वहां की मशहूर एल्यूमनाई में कौन-कौन हैं। रिच और पावरफुल। तुम्हारा स्टाइल स्टेटमेंट, यूएसपी और इम्पावरमेट के फंडे क्या हैं। इमपावर्ड कौन है जो बड़े ब्रांड के कपड़े पहनता है, बड़ी गाड़ी, घड़ी, मोबाइल, लैपटाप रखता है। जिसे हर उत्सव इवेंट के लिए अलग कपड़े चाहिए। कपडे ही नहीं, हर इवेंट के लिए जूते भी अलग होने चाहिए। खेलना हो, साड़ी पहननी हो, कैजुअल्स, फार्मल्स जो पहना हो उनके जूते की पहचान अलग हो, वरना कोई क्या कहेगा।
जब से अखबारों में पेज थ्री शुरू हुए थे नब्बे के बाद भूमंडलीकरण के दौर में कारपोरेट के बड़े जाब युवाओं को मिले, तबसे जीवन के हर क्षेत्र में वह उम्दा है, जो बड़ा। पैसे वाला है। जिसका नाम है। जिस होटल में रतन टाटा ठहरते हैं, एक बार वहां ठहरकर तो देखें। उनकी एअरलाइन में एक बार सैर तो कर लें। जिस स्कूल में राहुल गांधी पढ़े कम से कम अपने बच्चे को वहां एडमिशन ही मिल जाता। इस बड़े ब्रांड में कई बार धोखे भी छिपे होते हैं। कई बार लोकल माल पर बड़ी कंपनियों के लेबल लगा दिए जाते हैं। कई बार हम भी पटरी से सामान खरीदकर अपने पास रखे किसी बड़े ब्रांड के थैले में उस सामान को रख देते हैं। जिससे कि देखने वालों, अड़ोसी-पड़ोसी रिश्तेदारों को पटरी का माल न दिखे। बड़े ब्रांड का थैला या कैरीबैग ही दिखे। रोब पड़े। एक बार एक पत्रकार लाल रंग का एक बहुत सुंदर कुर्ता पहने हुई थी। जब उसकी एक सहेली ने पूछा कि इतना सुंदर कुर्ता कहां से खरीदा तो उसने कहा- बहुत महंगा है। डिस्काउंट के बाद भी चार हजार का मिला है तो उसकी सहेली ने कहा कि इतने में महंगा नहीं है। यह सुन कर वह पत्रकार जोर से हंसी और बोली- सिर्फ दो सौ का है। जनपथ से लिया। इससे जुदा एक और उदाहरण भी है। कुछ दिनों पहले एक अखबार में खबर छपी कि गुड़गांव में बहुत सी घरेलू बाइयों को पचीस हजार रुपए महीने कमाई होती है। जो अपनी नौकरानी को इतने देते हैं, जाहिए कि वे लाखों कमाते होंगे। खबर में आगे यह बताया गया था कि ये बाइयां डिजाइनर्स कपड़े खरीदती-पहनती हैं। फिर मध्यवर्ग क्या करे, कैसा बने- इसे बताने-दिखाने के लिए बहुत से तौर-तरीके मौजूद हैं। तकनीक ने इसे संभव किया है।
कल तक टीवी दिखाता था, जिसे देखने के लिए घर आना पड़ता था। अब तो यहां बैठे यह देखना हो कि अमेरिका के राष्ट्रपति क्या खाते-पीते हैं, कैसे रहते हैं, उनका सोने का कमरा कैसा दिखता है, इसे देखने के लिए आपके हाथ में स्मार्टफोन है न। तकनीक ने स्पीड को इतना बढ़ा दिया है कि अब ज्ञान और सूचना के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं। मध्यवर्ग इन दिनों इसी तकनीक के जरिए राय बनाने वाला भी बन चला है। इसीलिए अकसर दलों और नेताओं द्वारा इसे ही लुभाने की कोशिश की जाती है। बदले में यही है, जो उनके लिए सोशल साइटों और अन्य माध्यमों से हवा बनाता है। उनकी जीतने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। इसी मध्यवर्ग के खान-पान, रहन-सहन की आदतों को जानने के लिए, इसकी जानकारियों को पाने और डेटा प्राप्त करने की कंपनियों में होड़ लगी रहती है। कहां के लोग क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, कैसे रहते हैं, इसे डेटा से जानकारी प्राप्त करने के बाद ही बड़ी कंपनियां चाहे वह फैशन उद्योग हो, होटल उद्योग, टेÑवल टूरिज्म, कपड़े, मनोरंजन आदि क्षेत्रों की कंपनियां बाजार में उतरती हैं और रातोंरात अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना लेती हैं। आजकल अपने-अपने उत्पादों को मध्यवर्ग के बीच लोकप्रिय करने के लिए उन क्षेत्रों में काम करने वाली मशहूर हस्तियों की मदद ली जाती है, जिन्हें पहले से ही इस मध्यवर्ग का रोल माडल बना दिया गया है। क्योंकि यही मध्यवर्ग है जिसकी जेब में सरकार और बिजनेसमैन दोनों हाथ डालने को तत्पर रहते हैं। सरकार तरह-तरह के टैक्स के रूप में और बिजनेस अपने उत्पाद के रूप में। इसी के दिए टैक्स से मुफ्त उपहार बांट कर और गरीबों के लिए योजनाएं बनाकर सरकारें लोकप्रिय होने का दम भरती हैं और उद्योग भारी मुनाफा कमाते हैं। मगर यह वर्ग अपने सुख-संचयन और अपने पास की बड़ी कार और दूसरे के छोटे घर को देखकर, अपने अभिमान में डूबता-उतराता और श्रेष्ठता के दंभ में दोहरा हुआ जाता है। दूसरों को कमतर आंकना, दूसरे की हंसी उड़ाना आज के मध्यवर्ग की आदत बनती जा रही है। दूसरे के पास जो कुछ है, वह अपने पास हो, और किसी के पास न हो, यही इस वर्ग की ख्वाहिश भी है। यही वजह है कि आजकल अधिकांश उत्पादों को औरतों के सशक्तीकरण और पुरुषों के माचोनेस से जोड़ दिया गया है। यही नहीं व्यापार ने स्वाभिमान, आत्मविश्वास, संतोष, आनंद, हमेशा विजय का भाव, प्रेम और ड्रेसकोड को किसी न किसी उत्पाद के खरीदने,अपने पास होने और दूसरों को दिखाकर चिढ़ाने और जलाने से जोड़ दिया है। दूसरों को चिढ़ाना, जलाना और हंसी उड़ाने को व्यापार ने सकरात्मक मूल्य बना दिए हैं। जिन्हें मध्यवर्ग ने किसी प्रेत की तरह अपने ऊपर लाद लिया है। बल्कि व्यापार ही नहीं, आजकल सरकारें भी अपनी बहुत सी योजनाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए ऐसा ही कर रही हैं। जब पवन वर्मा ने अपनी किताब ‘द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’ लिखी थी, तब से मध्यवर्ग बहुत आगे बढ़ चुका है। आज के टेक्नोसेवी, टू मिनट वाले मध्यवर्ग के बारे में तो उन्होंने सोचा भी नहीं रहा होगा। ०

