फ्रांस की राजधानी पेरिस में कुछ महीने पहले संपन्न हुआ जलवायु परिवर्तन सम्मलेन अब पर्यावरणीय मुद्दों, नीतियों और कार्यक्रमों के लिहाज से दुनिया के हर देश के लिए एक प्रस्थान बिंदु बन गया है। जलवायु परिवर्तन पर हाल के दशकों में तेज हुई बहसों और वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखें तो यह कहा जा सकता है कि इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर दुनिया के हर देश की विकास संबंधी नीतियों पर पड़ेगा।
खासतौर पर भारत समेत दुनिया के विभिन्न विकासशील देशों को अब विशिष्ट चुनौतियों का सामना करना है। उन्हें हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करते हुए अपनी निर्धन आबादी के बड़े हिस्से का जीवन स्तर तो ऊपर उठाना ही है, साथ-साथ विकास का ऐसा रास्ता अपनाना है जो वैश्विक पर्यावरणीय हितों के अनुकूल हो। कालांतर में विकासशील देशों के भीतर भी यह समझ उभरी है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी प्रतिबद्धताओं और लक्ष्यों से किनारा नहीं किया जा सकता। अपनी विकास संबंधी नीतियों में निरंतर वैकल्पिक, नवीकरण ऊर्जा स्रोतों और पर्यावरणीय चिंताओं को जगह देकर खुद भारत ने इस परिपक्व और दूरगामी सोच का परिचय दिया है।
भारत हमेशा इस बात का समर्थक रहा है कि उभरती पर्यावरणीय चिंताओं को उचित तकनीकी और वित्तीय सहयोग के बगैर संबोधित नहीं किया जा सकता। विशेष तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर भारत ने हमेशा जोर दिया है। इस बात की महत्ता यूएनएफसीसीसी (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन क्लाइमेट चेंज) में भी रेखांकित हो जाती है।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के जरिए ग्रीन हाउस गैसों को बेहद प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने की असीम संभावनाएं खुली हुई हैं। एक छोटा सा उदाहरण इस बात को और अधिक पुष्ट कर सकता है। वर्तमान में व्यवसायिक रूप से उपलब्ध क्रिस्टिलाइन सिलिकान सोलर पैनल औसतन पंद्रह फीसद दक्षता के साथ काम करता है, जबकि अमेरिका और यूरोप में बहुत सी प्रयोगशालाओं में ऐसे पैनलों की दक्षता बढ़ाकर 45 फीसद तक कर दी गई है। हालांकि, यह अभी व्यावसायिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन अगर ऐसी तकनीकें भारत समेत तमाम विकासशील देशों को उपलब्ध हो जाएं तो ये देश नवीकरण ऊर्जा के विकास में लंबी छलांग लगा सकते हैं।
निस्संदेह इस तरह के तकनीक हस्तांतरण का आशय बौद्धिक संपदा अधिकार के उल्लंघन से नहीं है। इसके बजाय लाइसेंस शुल्क आदि के रूप में व्यवस्था कर इन तकनीकों को विकासशील देशों को उपलब्ध कराया जा सकता है। ठीक इसी तरह भारत में सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन ग्रीन हाउस गैसों के बड़े स्रोत माने जाते हैं। अमेरिका ने लगभग एक दशक पहले वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए हाइब्रिड वाहनों (पेट्रोल और इलेक्ट्रिक वाहन) को अपना लिया था। हाइब्रिड वाहनों से अपेक्षाकृत संतुलित लागत में प्रदूषण को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। भारत में अब भी ज्यादातर राज्यों में यातायात विभाग इलेक्ट्रिक बसों को खरीदने में हिचकिचाता है।
आज भारत के पास नई तकनीकों को अपनाने और उसके रास्ते में आने वाली मुश्किलों को दूर करने के अपने अनुभव भी हैं। अनुभव बताते हैं कि नई तकनीकों को अपनाने और उनके इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए अनुकूल वातावरण, उचित विनियामक व्यवस्था और नीतियों की जरूरत होती है। इस लिहाज से भारत में हाल में एलइडी (लाइट इमिटिंग डायोड) बल्बों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने में मिली सफलता एक अनुकरणीय उदाहरण है।
नई तकनीकों को अपनाते समय एक सवाल यह भी उठता है कि क्या ये तकनीकें स्थानीय आवश्यकताओं और हितों के अनुकूल हैं? हर देश की आवश्यकताएं और चुनौतियां विशिष्ट होती हैं, इसलिए भारत के संदर्भ में भी यह सवाल अहम है। आबादी के आकार के लिहाज से आज नवीकरण ऊर्जा की ऐसी तकनीकों की जरूरत है जो दक्ष होने के साथ-साथ बेहतर संग्रहण क्षमता वाली भी हों। भारत को प्रदूषण रहित यातायात व्यवस्था और लघु और छोटे उद्योगों को ज्यादा दक्ष बनाने की भी जरूरत है। इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि नई तकनीकों की लागत कम हो, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उन्हें अपना सकें।
अच्छी बात यह है कि पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मलेन से ठीक पहले वैश्विक समुदाय ने एक दूसरे की ऊर्जा आवश्यकताओं को समझते हुए मिशन इनोवेशन की शुरुआत की। इसी समझ की झलक यूएनएफसीसीसी में तकनीकी सहयोग और हस्तांतरण के मकसद से जोड़े गए प्रावधान में भी मिली। संभव है कि इन सभी प्रयासों से तकनीक हस्तांतरण में सार्वजानिक और निजी निवेश बढ़े और अधिक पारदर्शिता आए, लेकिन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और वैश्विक तापमान में कटौती के जैसे लक्ष्य और समय सीमा पेरिस सम्मलेन में निर्धारित की गई है, उसे पूरा करने के लिहाज से यह प्रयास कितना पर्याप्त है, इस पर अभी संदेह है।
पेरिस में हुए समझौते ने काफी हद तक उन समस्याओं को दूर करने की रूपरेखा तैयार की है, जो नई तकनीकों को अपनाते समय भारत के सामने लंबे समय से खड़ी होती रही हैं। तकनीकों के कार्य करने के तरीके पर मार्गदर्शन देने के लिए एक ढांचा बनाया गया है। नई तकनीकों को जल्द से जल्द विभिन्न देशों के साथ साझा किया जा सके, इसके लिए भी समझौते में विशेष प्रावधान जोड़े गए हैं। सबसे अहम बात यह है कि समझौते में तकनीकी और वित्तीय मदद के बीच में संबंध स्थापित कर नए शोध और विकास कार्यों को प्रोत्साहन देने की प्रतिबद्धता दर्शाई गई है। इस वित्तीय मदद के जरिए भारत बौद्धिक अधिकार संपदा से जुड़े विवादों को किस हद तक दूर कर पाएगा, ये अभी साफ नहीं है।
अगर समग्र रूप में कहें तो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के मद्देनजर विभिन्न देशों के बीच तकनीक हस्तांतरण और तकनीकी नवाचार के लिए एक मानक वैश्विक विनियामक व्यवस्था और नीति की अपरिहार्य जरूरत है। ऐसी नीति और व्यवस्था के अभाव में विभिन्न देशों के स्थानीय हितों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। विकासशील देशों के संदर्भ में तो यह मुद्दा अधिक संजीदा हो जाता है। उदाहरण के तौर पर भारत मेृंकृषि में सौर पंपों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, लेकिन इसके लिए भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन को नियंत्रित किया जाना भी बेहद आवश्यक है। विनियामक व्यवस्था के अभाव में इसे रोक पाना संभव नहीं है। (प्रभांशु ओझा)