कथा बहुत प्रचलित है। किसी व्रत-कथा के रूप में कही-सुनी भी जाती है। एक बनिया अपनी निर्धनता से अत्यंत दुखी था। उसने प्रभु से प्रार्थना की, मन्नत मांगी कि उसके पास धन आ जाए, तो वह प्रभु की सेवा में द्रव्य अर्पित करेगा। गरीबों, ब्राह्मणों को भोजन कराएगा, दान-दक्षिणा बांटेगा।
बनिया ने उसके लिए मेहनत भी की। खूब धन आ गया उसके पास। फिर प्रभु की शरण में गया। प्रार्थना की कि अगर सुंदर कन्या से विवाह हो जाए, तो वह पहले की मनौती और इस बार की मनौती साथ चढ़ाएगा। खूब धूम-धाम से आयोजन करेगा, निर्धनों को दान देगा। उसकी वह मनौती भी पूरी हो गई। बनिया रम गया अपनी नई बहू के रास-रंग में। भूल गया मनौती।
मगर कई साल बीत गए, उसे संतान उत्पत्ति न हुई। फिर वह गया प्रभु की शरण में। बच्चे की मनौती मानी और फिर खूब बढ़-चढ़ कर भोज कराने, दान-दक्षिणा देने का वादा कर आया। फिर उसे बच्चा भी हो गया। फिर भूल गया मनौती पूरी करना। बच्चा जवान हो गया, उसने पिता का कारोबार संभाल लिया। धन बढ़ने लगा। मगर उसके पुत्र के विवाह को कोई सुंदर कन्या नहीं मिल पा रही थी। तब वह फिर गया प्रभु की शरण में। फिर मन्नत मांगी। उसकी वह इच्छा भी पूरी हुई। फिर भूल गया मन्नत।
अब बहू से पोते की लालसा जागी। फिर मन्नत मांगी। वह भी पूरी हुई। फिर वह सदा की तरह भूल गया। संयोगवश पोता गंभीर रूप से बीमार हुआ। तब फिर उसने प्रभु के मंदिर में मन्नत मांगने की सोची। तब उसे ध्यान आया कि वह तो अपने जीवन में अनेक मन्नतें मांग चुका है और एक भी पूरी नहीं की है। फिर कथा में मोड़ आता है। बनिया पछताता है और मन्नत पूरी करने की तैयारी करता है।
ऐसी लालसाएं हर किसी को घेरे रहती हैं। एक पूरी होती नहीं कि दूसरी घेर लेती है। मनुष्य अपनी हर लालसा को इसी तरह पूरी करने की कोशिश करता है, कभी मन्नतें मांग कर, कभी दूसरों को चकमा देकर, बेईमानी से, धूर्तता से। और हर लालसा पूरी होने के बाद वह जीवन का असल तकाजा भूल जाता है। उसकी लालसा, उसकी अतृप्ति समाप्त नहीं होती, इसलिए उसकी बेईमानियां भी समाप्त नहीं होतीं।