कथक सम्राट पंडित बिरजू महाराज अब कथक के पर्याय बन चुके हैं। ‘कथक’ शब्द जुबान पर आते ही जो तस्वीर सामने आती है, वह उन्हीं की है। पिछले दिसंबर में रिलीज हुई हिंदी फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ में नृत्य निर्देशन किया उन्होंने। फिल्म के गाने ‘मोहे रंग दो लाल’ में उन्होंने कथक का रंग जमाया है। साथ ही, तिहाइयों और परणों की पढंत को भी अपनी आवाज से नवाजा है। उनसे कथक की बारीकियां सीखने दीपिका पादुकोण उनके कलाश्रम में गर्इं।

पंडितजी का जन्म बसंत पंचमी के रोज चार फरवरी 1938 को हुआ था। उनका मूल नाम बृजमोहन मिश्र है, पर कला जगत में वह पंडित बिरजू महाराज के नाम से मशहूर हुए। उनके बारे में कला समीक्षक शांता सरबजीत सिंह कहती हैं कि पंडित बिरजू महाराज परंपरा और रचनात्मकता के सुंदर सुयोग हैं। लेखक सुनील कोठारी मानते हैं कि वे कथक के प्रति पूर्ण समर्पित कलाकार, मार्गदर्शक और गुरु हैं। इसमें कोई शक नहीं है।

उनके पिता जगन्नाथ मिश्र, जिन्हें अच्छन महाराज के नाम से जाना जाता था, रायगढ़ दरबार के राजनर्तक थे। बिरजू महाराज के जेहन में अपने बचपन की यादें ताजा हैं। वे बताते हैं , ‘मैं करीब सात-आठ साल का था। मुझे नवाब साहब ने अपने दरबार में ग्यारह रुपए के वेतन पर रखा था। उस समय मैं अपने पिताजी के साथ दरबार में नृत्य करने जाता था। पिताजी तो शायद चौबीस साल तक वहां बतौर कलाकार रह चुके थे। पिताजी के चले जाने के बाद अम्मा मेरे भविष्य को लेकर चिंतित थीं। उस दौरान करीब चार-पांच साल तक मैं एक टोली के साथ घूम-घूम कर कार्यक्रम करता रहा। उन्हीं दिनों कपिला दीदी लखनऊ आर्इं और वह मुझे दिल्ली में संगीत भारती में कथक सिखाने के लिए ले गर्इं। इस तरह चौदह साल की उम्र से मैं खुद सीखने के साथ-साथ सिखाने लगा।’

लखनऊ घराने की कालका-बिंदादीन घराने के प्रतिनिधि बिरजू महाराज का सफर लखनऊ से शुरू हुआ। वे अपने माता-पिता के सबसे छोटी संतान हैं। उनसे बड़ी तीन बहनें थीं। जब बिरजू आठ साल के थे, उनके सिर से पिता का साया उठ गया। फिर भी तालीम से अपने को समृद्ध करने के लिए उन्होंने अपने दोनों चाचाओं- लच्छू महाराज और शंभू महाराज का सहारा लिया। संघर्ष के उस दौर में उनके पिता के शिष्य ‘नटराज’ शंकर देव झा ने उनका मार्गदर्शन किया। बिरजू महाराज की शिष्या कपिला वात्स्यायन ने भी उन्हें आगे बढ़ने में सहयोग दिया। इन सबके इतर किशोर बिरजू को अपनी अम्मा की स्नेहमयी छाया में संगीत की बारीकियां सीखने को मिला। उन्होंने अपनी अम्मा से ‘जाने दे मैका’, ‘सुनो सजनवां, ‘मेरी सुनो नाथ’, ‘छोड़ो-छोड़ो बिहारी’, ‘जागे हो कहीं रैन’, ‘झूलत राधे नवल किशोर’, ‘कैसे खेलूं मैं पिया घर ब्याही’- जैसी अपने पूर्वजों की बंदिशों को सीखा और इन्हें नृत्य में पिरोया।

बिरजू महाराज नर्तक के अलावा गायक, कवि, तबला वादक और नाल वादक भी हैं। उन्होंने बताया, ‘ मैंने जो भी संगीत सुना और नृत्य देखा था, वह मुझे आज भी याद है। एक बार मां ने पिताजी से कहा कि बिरजू को आप भाव क्यों नहीं सिखाते हैं? तो उन्होंने हंसते हुए, जवाब दिया कि इतने छोटे बच्चे को भाव क्या बताऊं। जब यह बड़ा होगा, दुनियादारी को जानेगा-समझेगा तो भाव खुद-ब-खुद सीख जाएगा। यह अनुभव की चीज है, सिखाने से नहीं समझ आएगी।’

उन्होंने 1998 में अपने नृत्य विद्यालय ‘कलाश्रम’ की स्थापना की। उस समय उन्होंने कहा था वे चाहते हैं कि कथक नर्तकों की दीपावली सारे देश में जगमगा उठे, हर जगह कथक के दीप झिलमिलाते रहें। पंडितजी के नृत्य की यह जगमगाहट उनके चाचाजी लच्छू महाराज की तरह सिनेमा जगत तक पहुंच चुकी हैं। पंडित लच्छू महाराज ने ‘नरसी मेहता’, ‘भरत मिलाप’, ‘राम राज’, ‘एक ही रास्ता’, ‘महल’ आदि फिल्मों में नृत्य निर्देशन किया। कमल हासन के फिल्म विश्वरूपम में नृत्य निर्देश्न के लिए बिरजू महाराज को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया।

उन्हें अस्सी वर्ष की उम्र में संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिला। उन्हें पद्मविभूषण, कालिदास सम्मान, लतामंगेशकर पुरस्कार, नृत्य चूड़ामणि, आंध्ररत्न, नृत्य विलास, राजीव गांधी शांति पुरस्कार आदि से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और खैरागढ़ विश्वविद्यालय की ओर से मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई है। वे कहते हैं कि कलाकार की जिंदगी, संघर्ष और प्रयास का जोड़ है।