अंग्रेजीदां विद्वानों का एक वर्ग हिंदी को सिर्फ ‘हिंदू’ से जोड़ कर पूरी हिंदुस्तानी तहजीब पर हमला कर रहा है। अंग्रेजी में बोलने, समझने और लिखने वालों को अन्य भारतीय भाषाओं की याद तभी आती है जब हिंदी की बात शुरू होती है। अंग्रेजीदां स्वयंघोषित गांधीवादी विचारक हिंदी बोलने और समझने वाले एक बड़े हिस्से को उस विचारधारा के मुख्यद्वार पर बैठा चुके हैं जो गांधीवादी विचारधारा का विरोधी रहा है। अंग्रेजी के ब्रैंड अंबेसडर बने ये विद्वान ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे, पीर पराई जाने रे’ की भाषा को गोडसे की विचारधारा के साथ नत्थी कर रहे हैं। हिंदी को हिंदू का पर्याय बना गांधी और गोडसे के बीच के फर्क को मिटा रही प्रवृत्ति पर इस बार का बेबाक बोल।
अमेरिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हिंदी संबोधन की अपनी-अपनी व्याख्या हो रही थी। मैंने एक सहयोगी से कहा कि मोदी का हिंदी में बोलना अच्छा लगा। उसने छूटते ही कहा कि लेकिन वो बहुत खराब हिंदी बोल रहे थे। मैंने उससे पूछा कि क्या मोदी की अंग्रेजी सभी मानकों पर सर्वश्रेष्ठ है? जब कोई नेता फ्रांसीसी, डच या जर्मन में बोलता है तो क्या आप तय कर लेते हैं कि वे अच्छी फ्रेंच बोल रहे थे या खराब। क्या उनका अपने देश की भाषा में बोलना मायने नहीं रखता। इस तर्क के बाद उसके चेहरे पर बढ़े संशय के भाव से अचानक मुझे लगा कि मेरे हिंदी के पक्ष में बोलने को उसकी ‘सेकुलर शिक्षा’ मोदी के पक्ष में बोलने के बराबर ले रही है। यानी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान।
इसी समय एक गांधीवादी, अंग्रेजीदां इतिहासकार के लिखे पर नजर पड़ती है जो एक केंद्रीय मंत्री के हिंदी को राष्ट्र भाषा बताने पर काफी नाराज थे और उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि भाजपा के शासन में आते ही हिंदी का अंधराष्ट्रवाद जाग जाता है। हिंदी के अहंकार के बारे में लिखते वक्त उनका अंग्रेजीदां अहंकार हिंदी की पैरोकारी करने वालों को गोलवलकर के पाले में बिठा देता है। सिर्फ अंग्रेजी में लिखने, बोलने और समझने वाले इन विद्वान को हिंदी का नाम लेते ही तमिल, तेलुगू, ओड़िया की चिंता सताने लगती है। ये विद्वान अपनी अंग्रेजी लेखनी से हिंदी में बोलने के हिमायती लोगों को एकता कपूर के धारावाहिक की सौतनों की तरह ला खड़ा करते हैं जो कहती हैं कि मेरा पति सिर्फ मेरा है।
जिस गांधीवादी इतिहासकार ने हिंदी के पैरोकारों को गोलवलकर की गोद में बिठा दिया शायद उन्हें आजादी की पूर्व संध्या पर बीबीसी को दिए गांधी का संदेश याद होगा कि ब्रितानियों को भूल जाना चाहिए कि गांधी को कभी अंग्रेजी आती थी। आजादी के बाद से जिस भाषा को देश की भाषा बनाने का गांधी ने सपना देखा आज उन्हीं के स्वघोषित अंग्रेजीदां शिष्य उसे हिंदूवादियों की भाषा बता रहे हैं।
यह सही है कि हमारे देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ में हिंदी का संबंध राष्ट्रवाद से है। लेकिन हिंदी का एक संबंध मातृभाषा से भी है। और, इसका सबसे अहम संबंध ज्ञान की भाषा से है। हिंदी के साथ त्रासदी ही कह सकते हैं कि ब्रितानी उपनिवेश भारत में राष्ट्रवाद का आयात यूरोप से हुआ। यूरोप के आधुनिक राष्ट्र राज्य की अवधारणा ही एक भाषा और एक राष्ट्र थी। लेकिन जब भारत में यह राष्ट्रवाद आया तो हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान के बरक्स उर्दू, मुसलिम और पाकिस्तान की विभाजनकारी रेखा भी आ गई।
भारत में इस राष्ट्रवादमें भी बड़ा घालमेल हुआ। यहां खड़ी बोली को फारसी लिपि में लिखा गया तो उर्दू और उसी को नागरी में लिखा गया तो हिंदी बन गई। वहीं, देश को एक भाषा के सूत्र में पिरोने के लिए गांधी हिंदुस्तानी भाषा की बात करते हैं।
हिंदुस्तान में अंग्रेजों के आने के पहले शासक वर्ग की लिपि फारसी थी। अंग्रेजों के साथ रोमन आई। वहीं राष्ट्रवाद के दौर में नागरी लिपि को लेकर आंदोलन चला। इस आंदोलन में नागरी के खिलाफ एक अन्य अंग्रेज तो दूसरा पुराना इस्लामिक शासक वर्ग था। उस वक्त फारसी लिपि को हटाने के विरोध में तत्कालीन उच्च वर्ग ब्राह्मण और कायस्थ समुदाय ही थे।
फारसी और नागरी की लड़ाई का असर देखिए कि एक तरफ अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की स्थापना होती है तो दूसरी तरफ काशी हिंदू विश्वविद्यालय। एक तरफ हिंदू और दूसरी तरफ मुसलिम। हिंदू और मुसलिम पहचान लिए दोनों संस्थानों में आधुनिक ज्ञान की शिक्षा दी जा रही है अंग्रेजी में। दोनों जगह आधुनिक ज्ञान की लिपि बनी रोमन। और राष्ट्रवाद के खौलते कड़ाह में उबल रही हिंदी और उर्दू साहित्य की भाषाओं के तौर पर सिमट कर रह गर्इं, अखिल भारतीय स्तर पर ज्ञान की भाषा के रूप में अंग्रेजी का दबदबा हो गया।
यहां उन अंग्रेजीदां बौद्धिकों से एक सवाल तो पूछा जा सकता है कि आखिर क्या वजह रही कि कॉलेज और विश्वविद्यालय में किताबें, वहां का पूरा ज्ञान और विज्ञान हमारी मातृभाषा में नहीं है। जबकि यह सर्वविदित तथ्य है कि शिक्षा मातृभाषा में सहज होती है। दुनिया के जितने महान साहित्य हैं वे सभी मातृभाषा में लिखे गए हैं। लेकिन गांधी के यह कहने के बाद कि वे अंग्रेजी नहीं जानते, 70 साल बाद भी हमारे यहां ज्ञान और विज्ञान की भाषा सिर्फ अंग्रेजी है। हाल ही में ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र के अगुआ इसरो के पूर्व अध्यक्ष जी माधवन नायर ने उस त्रिभाषा का मसला उठाया जिसकी हम आजादी के बाद से उपेक्षा कर रहे हैं। नायर ने कहा कि शिक्षा को लेकर सभी राज्यों में तीन भाषाओं की नीति अपनाई जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि हिंदी एक संपर्क भाषा है, लेकिन अंग्रेजी को हमारी प्रणाली से बाहर नहीं रखा जा सकता है। नायर जोर देते हुए कहते हैं कि प्राथमिक शिक्षा सबसे सक्षम तरीके से मातृभाषा में ही दी जा सकती है।
यह तो तय है कि ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में भाषा बहुत अहम है। हमारे देश में यूरोप के मौलिक रूप वाला राष्ट्रवाद तो लागू हो नहीं सकता और न ही कोई एक भाषा। भारत में 22 अनुसूचित भाषाएं हैं और हिंदी भी राजभाषा है। यहां बहुत से राज्यों का गठन भी भाषा के आधार पर ही हुआ है। इन दिनों गोरखालैंड भी इसी भाषाई अस्मिता की आग में झुलस रहा है। गोरखा की जगह बांग्ला थोपने की कोशिश के खिलाफ हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। अगर त्रिभाषा की व्यवस्था को लेकर समझ बन गई होती तो ऐसी नौबत नहीं आती। भारत की संघीय व्यवस्था के तहत त्रिभाषा के समीकरण से एक समझौतापरक स्थिति तो आ सकती थी। अंग्रेजी के साथ हिंदी भी वैकल्पिक विषय के रूप में हो। त्रिभाषा के तहत स्कूलों में मातृभाषा में पढ़ाई हो जिससे किसी एक राज्य पर भाषा को लेकर कोई अस्मितामूलक दबाव भी नहीं होगा।
भारत जैसे देश में किसी एक भाषा को थोपा भी नहीं जा सकता है। लेकिन संपर्क और राजकाज की भाषा के रूप में हिंदी को आगे बढ़ाने की बात को अंधराष्टÑवाद से जोड़ने वाले अंग्रेजी को लेकर ज्यादा अंधभक्त दिख जाते हैं। हिंदी की बात आते ही अन्य भारतीय भाषाओं की चिंता कर महज वे अंग्रेजी का ही वर्चस्व स्थापित रखना चाहते हैं। वे ज्ञान की भाषा के रूप में भारतीय भाषाओं को खड़ा होते देखना ही नहीं चाहते हैं। इनकी सबसे बड़ी चिंता अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाए रखने की दिखती है जिससे कि उनके अकादमिक वर्चस्व पर आंच न आए।
हर भाषा की अपनी संस्कृति, अपना इतिहास और समाजशास्त्र भी होता है। जब हम एक भाषा को अपनाते हैं तो उसकी पूरी संस्कृति को भी अपनाते हैं। अगर बिहार का, उत्तर प्रदेश का, ओड़ीशा का बच्चा प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी में बालगीत सीखता है तो वह अपने जल, जंगल और जमीन से भी दूर हो जाता है। भारत की एक बड़ी पट्टी में हिंदी खेत, खलिहानों और कारखानों की भाषा है। यह मजदूरों और कामगारों की भाषा है। यह बच्चों की लोरी, धार्मिक पुस्तकों और मनोरंजन की भाषा है। और, अगर आप इस भाषा के हिमायती को सिर्फ संघ और हिंदू धर्म से जोड़ देंगे तो आप कितनी बड़ी जमीन खो रहे हैं, जिसका शायद आपको अंदाजा है, लेकिन परवाह नहीं। और यही बेपरवाही उस वर्चस्व वाली भाषा की अंधभक्ति के कारण है जिसने हिंदुस्तान के एक बड़े वर्ग को ज्ञान और विज्ञान से दूर कर दिया और उनके हिस्से सिर्फ सत्यनारायण कथा और हनुमान चालीसा रहने दिया।
हिंदी की पैरोकारी को ‘हिंदूवादी’ घोषित करने वाले तर्क देते हैं कि चीन और जापान जैसे देश भी अब अंग्रेजी सीख रहे हैं। लेकिन ऐसा तर्क देनेवाले यह भूल जाते हैं कि चीन अपनी भाषा की कीमत पर अंग्रेजी को प्रवेश नहीं दे रहा है। दुनिया की अर्थव्यवस्था को डरानेवाले चीन ने अपने देश में अंग्रेजी की भूमिका सीमित ही रखी थी। वहां विकास का पहिया चीनी भाषा के साथ ही आगे बढ़ा था। चीन का उदाहरण अगर अंग्रेजी को अपनाने के लिए दिया जा सकता है तो चीन ही इस बात का सबसे पुख्ता तर्क है कि अपनी भाषा और संस्कृति की बुनियाद मजबूत कर ही आप दुनिया में अपनी तूती बजा सकते हैं। हिंदी को ‘हिंदूवादी’ बना आप चीन की बराबरी नहीं कर सकते हैं।