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हालांकि मनुष्य की बुद्धि का विकास अध्ययन और अनुभवों के आधार पर होता रहता है, इस तरह माना जाता है कि बद्धमूल धारणाओं के टूटने में मदद मिलती है। मगर जो इन धारणाओं को खुद पकड़े बैठे होते हैं, उनमें अध्ययन और अनुभव का दायरा व्यापक होते हुए भी ज्यादा बदलाव नजर नहीं आ पाता।
उनका अध्ययन और अनुभव भी उन्हीं धारणाओं में जाकर समाहित हो जाते हैं। उन्हीं धारणाओं में आकार ले लेते हैं। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि अगर किसी के भीतर छुआछूत को लेकर धारणा बैठी हुई है, और वह व्यक्ति उसे खुद पकड़े हुए है यानी उस धारणा में उसका दृढ़ विश्वास है, तो तमाम वैज्ञानिक सिद्धांतों और तार्किक पद्धतियों के अध्ययन के बावजूद वह धारणा उसमें जड़ें जमाए बैठी रहेगी।
इसलिए यह अकारण नहीं कि बहुत सारे लोग काफी ऊंची पढ़ाई कर लेने, ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाने के बाद भी इस तरह की धारणाओं से मुक्त नहीं हो पाते। अनेक सामाजिक बुराइयां इसी वजह से खत्म नहीं हो पातीं।
विज्ञान कहता है कि बच्चे के पचास प्रतिशत दिमाग का विकास उसकी चार से पांच साल की आयु तक हो जाता है। यानी वह भाषा, सामाजिक व्यवहार, चीजों को बरतने का तरीका इस उम्र तक सीख जाता है। उसके बाद वह जैसे-जैसे पढ़ाई-लिखाई करता, अपने समाज और दुनिया को समझता जाता है, वैसे-वैसे उसलके दिमाग का विकास होता जाता है।
यह विकास बहुत धीमा होता है। अठारह-उन्नीस साल की उम्र के बाद दिमाग के विकास की रफ्तार और धीमी हो जाती है। फिर यह भी है कि जिस व्यक्ति के दिमाग का विकास पचहत्तर फीसद तक हो जाता है, वह मेधावी माना जाता है। ज्यादातर लोगों के दिमाग का विकास साठ फीसद के आसपास तक ही हो पाता है।
यानी इस तरह बचपन में उसे अपने परिवार, रिश्तेदारों पड़ोसियों और समाज से जो सीखने को मिलता है, वही जीवन के अंत तक किसी न किसी रूप में बना रहता है। इसे दार्शनिक भावधारा कहते हैं। इसी भाव से स्वभाव बनता है।
भावधारा का मतलब है कि एक भाव जो सदियों से चला आ रहा है। उस भाव की धारा बन गई हो। इसी को कुछ लोग परंपरा से जोड़ कर देखते हैं। बार-बार उल्लेख करती हैं कि अमुक चीज हमारी परंपरा रही है। हमारे परिवार, हमारे खानदान, हमारी जाति, हमारे समाज आदि की परंपरा का उल्लेख लोग बड़े गर्व के साथ करते रहते हैं। खासकर भारतीय परंपरा का उल्लेख अक्सर होता है। यह एक धारणा है।
यह धारणा हमारे बचपन में ही हमारे भीतर बिठा दी जाती है। बार-बार उल्लेख करके हमें बताया जाता है कि हमारी परंपरा क्या है और उसे ताउम्र निभाना हमारा धर्म है। इस तरह तर्क की गुंजाइश खत्म हो जाती है। बहुत सारे लोग सोचते ही नहीं कि जिस परंपरा का हवाला दिया जा रहा है, वह वास्तव में ठीक है भी या नहीं। उसका निर्वाह क्यों करना चाहिए, उसका त्याग कर देने में नुकसान क्या हो सकता है।
जहां तर्क की गुंजाइश खत्म हो जाए, जहां तर्क करने की प्रवृत्ति खत्म हो जाए वहां जड़ता पसरने लगती है। यह जड़ता हमें धारणाओं से विलग नहीं होने देती, हमें अपना विकास नहीं करने देतीं। सच्चाई यह भी है कि इस जड़ता के चलते जिसे हम अपनी परंपरा कहते हैं, उसे भी ठीक से समझने की गुंजाइश नहीं रह पाती।
परंपरा कोई पचास-सौ साल की चीज नहीं है। उसकी कड़ी जोड़ते जाएं तो वह अनंत काल पीछे तक जाती है। फिर कोई भी परंपरा अकेली और स्वतंत्र नहीं होती। उसके भीतर भी कई परंपराएं मिली होती हैं। एक भावधारा की कड़ियां कई भावधाराओं से जुड़ी होती हैं। इसलिए कोई विचार भी स्वतंत्र नहीं होता। कई विचार शृंखलाएं परस्पर नत्थी होती हैं।
संस्कृति भी कहने को हर समाज और देश की अलग होती है, पर गहरे उतरें तो संस्कृतियां भी आपस में सहमेल करती चलती और विकसित होती रही हैं। ऊपरी तौर पर चूंकि हमने मान लिया है कि अमुक परंपरा हमारी है, अमुक संस्कृति हमारी है, इसलिए हम उससे बंध जाते हैं।
इस तरह धारणाओं से बंध जाने को कोई भी चिंतन परंपरा उचित नहीं मानती। भारतीय चिंतन परंपरा तो विमर्श की रही है। एक-दूसरे से परस्पर संवाद की रही है। एक-दूसरे को खंडित, विखंडित और फिर उसमें से नए सूत्र तलाशने की रही है। एक परंपरा तो नेति नेति की भी रही है। वह हर स्थापना, हर सिद्धांत का खंडन करती है। इस तरह सत्य तक पहुंचने का रास्ता भी है।
जब तक प्रश्न और प्रतिप्रश्न नहीं होगा, तब तक सत्य का रास्ता अवरुद्ध ही रहेगा। केवल धारणा के आधार पर किसी चीज को, किसी मान्यता या स्थापना को सत्य मान लें, अंतिम मान लें, तो फिर पूरी भावधारा ही अवरुद्ध हो जाती है। पूरी परंपरा ही प्रश्नांकित होने लगती है।
बद्धमूल धारणाएं हमारी संस्कृति, हमारी सामाजिक परंपराओं को नष्ट कर देती हैं। जैसे तालाब का ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है, उसी तरह ठहरी हुई धाराएं सड़ने लगती हैं। हमारी चिंतन धारा के विकास का प्राथमिक सोपान है, तर्क। किसी भी बात को सिर्फ इस आधार पर नहीं मान लेना चाहिए कि वह हमारी परंपरा से चला आ रहा है।
तर्क हमेशा चिंतनधारा के मूल तक पहुंचने का आधार बनाता है, फिर आगे का रास्ता भी उसी से निकलता है। मगर हम जिस तरह अपनी परंपरा और संस्कृति की दुहाई देते हुए जड़ होते जा रहे हैं, अपने से अलग के समुदाय के लोगों तक से दूरी बनाने लगे हैं, उससे विकृतियां पैदा हो रही हैं। वैमनस्यता बढ़ रही है। हर समय सामाजिक तनाव बना रह रहा है। मनुष्यता का तकाजा इन जड़ताओं, इन बद्धमूल धारणाओं को तोड़ने और समावेशी संस्कृति अपनाने का है।
