मनुष्य जिस समुदाय में रहता है, वहां अपनी सामाजिकता निर्मित करने की कोशिश करता है। संगी-साथी, इष्ट मित्र, नाते-रिश्तेदार से लेकर दुश्मन तक उसकी सामाजिकता की परिधि में आते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में स्त्री भी एक सामाजिक प्राणी है और समाज के भीतर उसके भी तमाम नाते-रिश्ते बनते हैं। लेकिन इसके बावजूद पितृसत्तात्मक समाज-संरचना के भीतर उसकी इस स्वाभाविकता को नजरअंदाज करते हुए उसके संबंधों पर चौतरफा नियंत्रण कसा रहता है। यह नियंत्रण उसके मायके के बेहद आत्मीय संबंधों, जैविक संबंधों, दोस्त-मित्रों से लेकर यौन संबंधों तक है। उसके लिए तैयार की गई नियमावली के तहत ही उसे इस समाज का हिस्सा होना है, न कि मनुष्य होने के कारण।
उसके समाजीकरण की पूरी प्रक्रिया पितृसत्ता के इतने अधीन है कि प्राय: इसे अलग से बताने की जरूरत नहीं पड़ती। बहुत छोटी उम्र से ही लड़कियां, अपने परिवेश से प्राप्त ज्ञान के आधार पर इसे जान लेती हैं और उसके अनुकूल व्यवहार के लिए अपने को तैयार करने लगती हैं। इस अनुकूल व्यवहार द्वारा ही वे अपनों का प्रेम अपने लिए अर्जित कर सकती हैं।

यानी स्त्री के लिए जन्म से ही उसके अपनों का प्रेम भी कंडिशनल बना दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप बचपन में ही उसका व्यवहार अपने संगी-साथियों, सहपाठियों आदि के साथ जेंडर-बोध से संचालित होने लगता है। बड़े होने पर ये मित्रताएं वैसे भी सरल नहीं रह जातीं, शादी के बाद तो ये लगभग ध्वस्त हो जातीं या बेहद औपचारिकता में सिमट कर रह जाती हैं। समाज से उसका संबंध या और भी सीमित संदर्भों में पास-पड़ोस से उसका संबंध उन स्थितियों में रद्द माना जाता है, जहां परिवार का मुखिया आपत्ति उठाए या उस पड़ोस के परिवार के साथ उसकी कोई नापसंदगी जुड़ी हो या दुश्मनी हो।

सामान्य रूप से ऐसे संबंध, समाज द्वारा स्वत: नजरअंदाज कर दिए जाते हैं या उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। जबकि इसी के बरक्स अगर स्त्री अपने पिता, भाई या पति द्वारा निर्मित समाजिक संबंधों को पसंद न करे या अपने अनुकूल महसूस न करे या उसकी दुश्मनी भी हो जाए तो वह उन संबंधों को तब तक अस्वीकार नहीं कर सकती, जब तक उसके परिवार के मुखिया की सहमति न हो। इस तरह उसका अपनी सामाजिकता का निर्माण करना एक कठिन और उतना ही कंटकाकीर्ण मार्ग बन जाता है। यहां तक कि आज के समय में जब लड़कियों ने शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता से अपने लिए कुछ स्पेस पाया है, तब भी उनके मित्र, सहकर्मी आदि उनके साथ सहज भाव से सुख, दुख, हारे-गाढ़े के साथी की तरह व्यवहार नहीं रख पाते, बल्कि प्राय: अधिक आत्मीयता बनने पर, स्त्री को देह में और संबंध को प्रेम में सीमित कर के देखने लगते हैं, इस तरह अपने को बहुत भाग्यशाली मानते हुए अपनी पुरुष मित्र मंडली के बीच इतराने लगते हैं और इस तरह अपनी महिला सहकर्मी द्वारा सामाजिक संबंध बनाए जाने की कोशिशों का अपमान करते रहते हैं। यही परंपरा से उन्हें मिला है और ऐसा तकरीबन सभी क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है।

स्त्री के सामाजिक सरोकार महत्त्वपूर्ण न माने जाने के कारण, उसका श्रम भी महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता। इस तरह उसे अपने कार्यों की स्वीकृति के साथ उनकी पहचान और महत्त्व की एक अतिरिक्त लड़ाई लड़नी पड़ती है। यह समाज के छोटे कामों से लेकर बड़े से बड़े काम तक फैला हुआ है। उसके घरेलू कामों को महत्त्व न देना भी इसी श्रेणी में आता है। दूसरी तरफ उसका दिमागी अनुकूलन और एक कृत्रिक सामाजिक तैयारी कुछ इस तरह बनाई जाती है कि स्त्रियां स्वयं मान लेती हैं कि इस दिए गए सामाजिक संबंधों से अलग उनकी कोई अपनी दुनिया है ही नहीं। इस कारण कई बार बिना टकराहट के वे अपने सहज सामाजिक संबंधों की कुर्बानी दे देती हैं। ऐसा करने के पीछे पितृसत्ता द्वारा, स्त्री के लिए दी गई महान त्याग जैसी अवधारणा भी काम कर रही होती है, इसलिए दुखी या विचलित होने के बजाय एक महान कार्य करने का तोष भी स्त्रियां पा ही जाती हैं। सामाजीकरण की यह प्रक्रिया उनके दिमागों को नियंत्रित किए जाने का बड़ा औजार है।

एक दूसरी बात यह है कि इसी के बरक्स पुरुष के भी दिमागी अनुकूलन की प्रक्रिया चल रही होती है। कई बार प्रगतिशीलता के कारण या अपने अनुभवों और अध्ययन से समाज को समझने की तरफ जाने के कारण पुरुष अपने को इस अनुकूलन से कुछ मुक्त कर ले जाने के प्रयत्न की तरफ जाते हैं। इससे मुक्त होने के प्रयास में प्राय: वे इस समाज व्यवस्था से टकराते हंै, सिर फोड़ते हैं और आखिरकार स्त्री के कारण प्राप्त अपनी सुविधाएं छोड़ पाने में असमर्थ, वापस उसी संरचना के भीतर लौट आते हैं। यह अद्भुत सत्य है कि प्राय: प्रगतिशील पुरुष भी अपने बुढ़ापे तक आते-आते पूरी तरह पितृसत्ता के नियमों का पालन करने लगते हैं।

स्त्री द्वारा अपनी सामाजिकता को पहचाने जाने और अपने सामाजिक सरोकारों को महत्त्व दिए जाने के संघर्ष एकदम नए नहीं हैं। इसके तार ऋग्वेद में भी मिल जाएंगे, जहां एक विदुषी स्त्री रोमशां को यह कहना पड़ता है कि ‘हे राजन! मेरे कार्यों को देखो।’ यानी मेरे सामाजिक कामों के महत्त्व को स्वीकार करो। समय की नई करवटों ने शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता से जो कुछ जगह दी, उससे अपनी सामाजिकता को पहचानने और इसके लिए जूझने के प्रयत्न अधिक मुखर होते गए। अनेक छोटे-बड़े आंदोलनों से जुड़ने और कई बार आंदोलनों की कमान अपने हाथ में ले लेने के बावजूद यह समस्या आसान नहीं हो सकी। पर्यावरण, विस्थापन, शराबबंदी के आंदोलन हों या पानी जैसी समस्या, स्त्रियों के सामाजिक सरोकार और उनकी सामाजिकता के प्रयासों ने उन्हें यह दिशा दी, जिससे वे रोकी गई स्त्री गतिशीलता के विरुद्ध जाते हुए, अपने व्यक्तिगत दुख से आगे निकल कर सामाजिक सुख-दुख का हिस्सा बन सकीं और दिए गए दायरे की सीमा के बाहर आकर स्त्रीत्व की व्यापक और सामाजिक छवि के साथ खड़ी हो सकीं।

गहरे मानसिक अनुकूलन और तय कर दी गई सीमाओं के बावजूद एक अदद अपने समाज की आकांक्षा, स्त्री के भीतर से भी पूरी तरह नहीं मिटती। इसलिए यह जद्दोजहद भी चलती रहती है कि आखिर हमारे बनाए से कौन-सा संबंध जीवित है? उसके अपने सामाजिक संबंध भी हो सकते हैं, जिनका निर्वाह करना उसे आवश्यक लग सकता है। जबकि एक हकीकत यह भी है कि स्त्री को अपना घर छोड़ कर हमेशा ससुराल के नए लोगों के बीच संबंध निर्मित करने पड़ते हैं और रक्त संबंधों से उसे प्राय: दूर कर दिया जाता है। इन रक्त संबंधों में केवल पितृसत्ता द्वारा तय किए संबंधों पर उसका नामोल्लेख जैसा अधिकार माना जाता है। माता-पिता, भाई-बहनों से उसकी दूरी और तय कर दिया गया अलगाव उसे मानसिक रूप से अकेला और कमजोर कर दिए जाने की कूटनीति जैसा दिखाई पड़ता है।

आज अपने थोड़े से मिले हुए स्पेस के साथ लड़कियां इस तय कर दी गई सामाजिकता के दायरे को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं। बड़े सहज भाव से, बिना कोई हल्ला मचाए या नारा लगाए उन्होंने नए युग के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपना माध्यम बनाना शुरू कर दिया है और अपने पुराने संगी-साथियों, सहेलियों आदि को खोज ले रही हैं, उनसे बातचीत कर रही हैं। अपने ग्रुप बना रही हैं। कई जगह संकट की स्थिति में आगे बढ़ कर अपने साथियों की मदद को तत्पर हुई हैं। यह उनकी अपनी सामाजिकता निर्मित करने की तरफ बढ़ता एक छोटा-सा किंतु सराहनीय कदम है। साथ ही उनके मनुष्य होने की पहचान कराने वाला साफ कदम भी।