सोशल मीडिया पर जो लोग अपने विचार व्यक्त करते हैं, अक्सर बेरहम होते हैं। पिछले सप्ताह दो वीडियो वायरल हुए। एक में नरेंद्र मोदी का छह साल पुराना भाषण दिखाया गया था, जिसमें उन्होंने कड़े शब्दों में उस समय के प्रधानमंत्री की निंदा की। यह थे उनके शब्द- ‘चीन आए दिन आंखें दिखाता रहता है, हमारी धरती पर घुस आता है। इतना ही नहीं, ब्रह्मपुत्र नदी के पानी को रोकने पर उतारू है।
अरुणाचल प्रदेश को हड़पने पर उतारू है। मेरे भाइयों-बहनों, क्या यह सब सेना की कमजोरी के कारण हो रहा है? ये पड़ोसी देश हमें परेशान कर रहे हैं… यह सेना की कमजोरी के कारण है? समस्या सीमा पर नहीं है, समस्या दिल्ली में है।’ दूसरा वीडियो था रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का, जिसमें उन्होंने तकरीबन इसी तरह की बातें कहते हुए पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह पर आरोप लगाया कि चीन के हमलों का जवाब देने के लिए उन में ‘कलेजा’ ही नहीं है।
दरअसल, उन दिनों मोदी की लोकप्रियता चरमसीमा पर थी। तब उन्होंने भारतवासियों के भीतर आशा की एक ऐसी किरण जगा दी थी, अपने शब्दों से कि मेरे जैसे राजनीतिक पंडित भी मान गए थे कि उनके आने से भारत वास्तव में एक महाशक्ति बन सकेगा, जिसके सामने चीन जैसे दुश्मन देश भी आंखें झुका कर बात करेंगे। यही उम्मीद मोदी को भी थी।
इसलिए प्रधानमंत्री बन जाने के कुछ महीनों बाद उन्होंने शी जिनपिंग को अमदाबाद बुला कर ऐसी मेहमाननवाजी दिखाई, जैसे पुराने, बिछड़े हुए किसी खास दोस्त को दिखाई जाती है। गुजराती झूले झुलाए, गुजराती पकवान खिलाए, उन्हें अपने गांव लेकर गए, गुजराती नृत्य पेश किए। यानी मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे भूल गए थे शायद कि ऐसा कभी पहले भी किया था देश के पहले प्रधानमंत्री ने उस ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ के जमाने में और चीन का जवाब था युद्ध।
1962 में हुए उस युद्ध की तैयारी भारत की तरफ से इतनी कमजोर थी कि हमने अपने बहादुर जवानों को न ढंग का लिबास दिया था, न जूते और न हथियार। बाद में पता चला कि हथियारों के कारखानों में रक्षा मंत्री ‘कॉफी मेकर’ बनवा रहे थे। तभी यह भी सामने आया कि जब चीन असम को हड़पने वाला था तो जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिका के राष्ट्रपति से अनुरोध किया, गिड़गिड़ा कर, कि चीन के आक्रमण को रोकने के लिए अमेरिका अपनी वायु सेना भेजे।
काश कि नरेंद्र मोदी ने उस युद्ध से कुछ सीखा होता। काश कि उनको याद रहा होता कि चीन के साथ हमारी दोस्ती कभी नहीं हो सकती है। काश कि उन्होंने अपनी तरफ से दोस्ती का इतनी बार हाथ न बढ़ाया होता। वे जब से प्रधानमंत्री बने हैं, उन्होंने अठारह बार चीन के नेता के साथ मुलाकातें की हैं। वे शायद ही दुनिया के किसी दूसरे राजनेता से इतनी बार मिले होंगे।
इनकी आखिरी मुलाकात हुई थी पिछले साल नवंबर में तमिलनाडु के समुद्रतटीय शहर महाबलीपुरम में, जहां उन्होंने एक बार फिर दिल खोल कर ‘अतिथि देवो भव’ वाला भारत का चेहरा पेश किया। संयोग से मैं इस मुलाकात से कुछ दिन पहले महाबलीपुरम खुद गई थी। चेन्नई से हवाई जहाज पकड़नी थी मुंबई के लिए और थोड़ी जल्दी पहुंच गई थी। इसलिए सोचा कि इस प्राचीन नगर के दर्शन कर लिए जाएं।
वहां पहुंची तो देखा कि शी जिनपिंग के स्वागत में नई इमारतें बन रही थीं, ‘हिंदी-चीनी दोस्ती’ की झांकियां तैयार हो रहीं थीं और हर किस्म के खाने-पीने का इंतजाम किया जा रहा था वहां के बेहतरीन होटलों में। चेन्नई हवाईअड्डे से शी जिनपिंग जब निकले महाबलीपुरम के लिए तो रास्ते में उन्होंने देखे होंगे कि जो लोग उनके स्वागत में सड़क किनारे खड़े थे, उन्होंने उनके चेहरे का मास्क पहना हुआ था। अब चीन ने पिछले सप्ताह हमारी सेना के बीस जवान मार दिए हैं इतनी बर्बरता से कि हैरान कर दिया है दुनिया को।
रक्षा विशेषज्ञ अब विश्लेषण कर रहे हैं कि ऐसा क्यों किया चीन ने और इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि चीन इसलिए खुश नहीं है कि अब हम अमेरिका के ज्यादा करीब हो गए हैं। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि जब अनुच्छेद 370 हटाया गया और लद्दाख को वह दर्जा दिया गया जो उसको बहुत पहले मिलना चाहिए था, तो चीन को ऐसा लगने लगा कि भारत का इरादा है अक्साई-चिन का वह क्षेत्र वापस लेना जो 1962 वाले युद्ध के बाद चीन ने हड़प लिया था। लोकसभा में गृहमंत्री ने अपने एक भाषण में कहा जरूर था कि अक्साई-चिन और ‘पीओके’ यानी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने के लिए ‘हम जान देने को तैयार हैं’। क्या यह भाषण चीन के ताजा आक्रमण की पृष्ठभूमि में है?
जो भी हो इतना हमको स्वीकार करना होगा कि प्रधानमंत्री ने अगर चीन के साथ हमारे पुराने इतिहास की तरफ ध्यान दिया होता तो न वह इतनी बार दोस्ती का हाथ बढ़ाते और न ही हम आज इस हाल में होते कि अगर हम अपनी सरजमीन से चीनी हमलावरों को हटाना चाहते हैं तो हमको युद्ध के लिए तैयार रहना होगा। इस समय जब हमारी अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है और हम कोविड-19 के साथ लड़ रहे हैं।
पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने कहा है कि हम शांति चाहते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए युद्ध करने के लिए तैयार नहीं हैं। आगे क्या होता है, कोई नहीं कह सकता है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि चीनी न हमारे भाई पहले कभी थे और न भविष्य में होंगे!