माना कि नरेंद्र मोदी ने परिवर्तन लाने का वादा किया था। माना कि देश के मतदाताओं को परिवर्तन का यह वादा इतना अच्छा लगा कि दो बार पूर्ण बहुमत देकर मोदी को जिताया। यह भी मान लेते हैं कि काफी हद तक परिवर्तन जो हुआ है, वह अच्छा परिवर्तन है। समाज कल्याण योजनाओं में भ्रष्टाचार कम हुआ है, क्योंकि अब सीधा लाभार्थियों के बैंक खातों में भेजा जाता है पैसा।
ग्रामीण भारत में डिजिटल पर जोर न दिया होता मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में, तो इस महामारी के दौर में बच्चों की पढ़ाई बिल्कुल बंद हो जाती स्कूलों और कॉलेजों में। अच्छी चीजें और भी हुई हैं, जिनके कारण मोदी की लोकप्रियता कायम रही है, बावजूद इसके कि पहले लॉकडाउन ने अचानक बेरोजगार हुए प्रवासी मजदूरों को कई सौ किलोमेटर पैदल चलने पर मजबूर किया था।
मगर कुछ परिवर्तन ऐसे आए हैं मोदी के आने से, जो देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे लिए जा रहे हैं। पिछले सप्ताह इस गलत परिवर्तन के दो उदाहरण सामने आए। एक जब दिल्ली की एक अदालत ने तबलीगी जमात से जुड़े विदेशी मुसलमानों को बरी करते हुए कहा कि उनको गिरफ्तार ही नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि वे निजामुद्दीन के उस सम्मेलन में शामिल ही नहीं थे, जिस पर महामारी फैलाने का दोष ठहराया गया था मार्च के महीने में।
उनको गिरफ्तार किया दिल्ली पुलिस ने एक सूची के आधार पर, जो गृह मंत्रालय से आई थी। कोरोना के उन पहले दिनों में अफवाहें फैलाई गई थीं कि जमात के इस सम्मेलन के कारण साठ फीसद से ज्यादा कोरोना के मामले सामने आए हैं। यह भी कहा गया था कि जब सम्मेलन में आए मुसलमानों को टेस्ट कराने अस्पतालों में ले जाया गया था, तो उन्होंने स्वास्थ्य कर्मियों पर थूका था कोरोना फैलाने के लिए। यह बात अफवाह निकली, लेकिन अब मालूम पड़ा है कि गृहमंत्री के इशारे पर दिल्ली में आए विदेशी मुसलमानों की सूची दी गई थी दिल्ली पुलिस को, ताकि उनको गिरफ्तार किया जाए, चाहे वे सम्मेलन में शामिल थे या नहीं।
मोदी के दूसरे दौर में हिंदुत्व के एजेंडे को प्राथमिकता दी गई है, जिसके तहत सनातन धर्म में परिवर्तित करके उसे कट्टरपंथी इस्लाम का रूप दिया गया है। इसको अच्छा परिवर्तन नहीं मान सकते हैं हम। इसलिए कि सनातन धर्म का सम्मान दुनिया की नजरों में इसलिए है कि उसमें देवी-देवताओं से भी प्रश्न करने का अधिकार दिया गया है, जो न मुसलमानों को प्राप्त है, न ईसाइयों को। सो, अगर सनातन धर्म के बजाय कट्टरपंथी हिंदुत्व फैलाया जा रहा है इस्लाम की नकल करके, तो किसी हाल में यह भारत के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इसका आधार है नफरत।
इसी सोच से पैदा हो रहे हैं अब तथाकथित लव जिहाद को रोकने के लिए कानून और अध्यादेश। इस प्रयास में सबसे आगे निकल चुके हैं योगी आदित्यनाथ। सो, उत्तर प्रदेश में अब कोई हिंदू लड़की शादी करना चाहती है किसी मुसलिम लड़के से, तो उसको शादी से दो महीने पहले सरकार की इजाजत लेनी पड़ती है। ऐसे कानून का दुरुपयोग स्वाभाविक है। सो, पिछले हफ्ते मुरादाबाद में पिंकी नाम की लड़की को नारी निकेतन में भेजा गया था और उसके पति और देवर को जेल में डाल दिया गया।
पिंकी का कहना है कि नारी निकेतन में उसको इतना प्रताड़ित किया गया कि उसका गर्भ गिर गया। डॉक्टर मानते हैं कि बच्चा अभी बच्चेदानी में है, लेकिन उसके दिल की आवाज अल्ट्रसाउंड में नहीं मालूम पड़ रही है। पुलिसवालों ने अपनी सफाई में सिर्फ यह कहा कि उनको पिंकी ने बताया नहीं था कि वह गर्भवती थी। सवाल है कि उसको गिरफ्तार करने का मतलब क्या था?
एक तो उसकी उमर बाईस साल है और शादी उसने अपनी मर्जी से की थी। धर्मपरिवर्तन भी उसने किया अपनी मर्जी से, सो सरकार का दखल देने का मतलब ही क्या है? लेकिन इस तरह के कानून अब भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में पारित किए जाने के आसार साफ दिख रहे हैं। हरियाणा, मध्यप्रदेश और कर्नाटक में योगी की तरह अध्यादेश तो नहीं जारी हुए हैं, लेकिन विधानसभा में कानून बनाने के प्रयास हो रहे हैं।
क्या ऐसे कानून भारत को आगे ले जाएंगे या पीछे उस दौर में, जब महिलाओं के कोई अधिकार नहीं होते थे? जहां उनके मां-बाप उनकी शादी कराना चाहते थे, वहीं होती थी शादी और लड़कियों को समझाया जाता था बचपन से कि वे अब पराई हो गई हैं और उनके घर में अब सिर्फ उनकी अरथी वापस आ सकती है। नतीजा यह कि वे किसी न किसी तरह बर्दाश्त कर लेती थीं कई तरह के जुल्म अपने ससुराल में। जो दहेज काफी नहीं लाती थीं, उनको कूड़े की तरह बाहर फेंक दिया जाता था या जिंदा जला दिया जाता था।
अब इस तरह की दुष्ट प्रथाएं कम हुई हैं अपने देश में और लड़कियों को पूरी इजाजत है अपना वर ढूंढ़ने की, खासकर शहरों में। अब अगर सरकार तय करेगी कि उनकी शादी किसके साथ होनी है, तो क्या यह रास्ता पीछे को नहीं जाता है?
निजी तौर पर मैं हैरान हूं कि अभी तक महिलाओं की संस्थाएं लव जिहाद वाले कानूनों का विरोध क्यों नहीं कर रही हैं? कहां हैं वे महिलाएं, जिन्होंने अमेरिका की नकल करके ‘मीटू’ की मुहिम चलाई थी इतने दमखम से कि नेताओं और अभिनेताओं को बदनाम किया था सरेआम? क्यों चुप हैं अब जब औरतों के सबसे निजी फैसलों में सरकार को दखल देने का कानूनी अधिकार दिया जा रहा है? क्या जानती नहीं हैं कि ऐसे कानून का कितना दुरुपयोग हो सकता है?