नरेंद्र मोदी के आसपास अगर चापलूस प्रशंसकों की एक पूरी सेना न होती, तो शायद बहुत पहले उनको किसानों की आवाज सुनाई दे दी गई होती। अब भी वे एक बहरे, अहंकारी प्रधानमंत्री पेश आ रहे हैं किसानों की नजर में, तो सिर्फ इसलिए कि उनके खेमे में एक भी सलाहकार ऐसा नहीं है, जो उनके सामने सच बोलने की हिम्मत रखता हो। हुआ होता अगर ऐसा एक भी व्यक्ति, तो जरूर उनको सलाह यह देता कि कच्छ और मध्यप्रदेश के किसानों को पिछले दिनोें संबोधित करने के बजाय अगर वे दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों को संबोधित करते तो शायद इस आंदोलन की समाप्ति के आसार अब तक दिख गए होते।
शुरू से उनके करीबी सलाहकारों ने प्रधानमंत्री के सामने इस आंदोलन की गलत तस्वीर पेश की है। उनको बताया गया कि विरोध करने वाले किसान सिर्फ पंजाब से हैं और उनके पीछे वहां की कांग्रेस सरकार ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। यानी सारा मामला राजनीतिक है।
इस बात को ध्यान में रख कर प्रधानमंत्री निवास या गृह मंत्रालय से इन तथाकथित पंजाबी किसानों को हरियाणा की सीमा पर रोकने का आदेश गया और उनको रोकने का तरीका था उन पर आंसू गैस के गोले और पानी की तोपें चलाना। बड़े-बड़े गड्ढे बनाए गए थे राष्ट्रीय राजमार्ग पर, ताकि उनके ट्रैक्टर और ट्रॉली दिल्ली तक पहुंच न सकें। अब मालूम हुआ है कि इन ‘खालिस्तानियों’ को हरियाणा के किसानों ने अपने खेतों के बीच से रास्ते बना कर सीमा तक पहुंचाया।
अब पता यह भी लगा है कि हरियाणा के किसान उनके साथ हैं और उत्तर प्रदेश के भी। अब मालूम यह है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसान भी उनका समर्थन कर रहे हैं। अब मालूम यह हो गया है हमें कि उत्तर प्रदेश के किसानों को आंदोलन में शिरकत करने से रोकने के लिए गांव-गांव में पुलिस तैनात है।
योगी आदित्यनाथ ने मुरादाबाद में पुलिस वालों की पूरी फौज तैनात की किसानों को रोकने के लिए और चौबीस घंटे तक आंदोलनकारियों की घेराबंदी की गई। बिजली तक काट दी गई थी, लेकिन आज के दौर में सबके पास सेलफोन हैं, सो इस घेराबंदी की तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल दी गईं।
बुजुर्ग किसानों, महिलाओं और बच्चों को ठंड में ठिठुरते देख कर अब किसानों के समर्थन में कई ऐसे लोग और संस्थाएं लग गई हैं, जिनका न खेती से वास्ता है और न उन तीन कृषि कानूनों की समझ, जिसका विरोध हो रहा है। सीमाओं पर किसानों की सेवा करने पहुंच गए हैं छात्र, अभिनेता, कवि और लेखक। और अब भी प्रधानमंत्री को गुमराह करने में लगे हुए हैं उनके दरबारी, जिनमें अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि मेरे कई पत्रकार बंधु भी हैं।
मीडिया की भूमिका इतनी गलत रही है, जबसे यह आंदोलन शुरू हुआ है, कि अब किसानों ने अपना अखबार शुरू किया है, जिसका नाम है ट्रॉली टाइम्स। इस अखबार की प्रतियां मुफ्त में बांटी जा रही हैं दिल्ली की सीमाओं पर और आनलाइन भी दिखने लगी हैं अंग्रेजी में भी, ताकि आंदोलन का ‘असली चित्र’ पेश किया जाए।
सवाल यह है कि मेरे पत्रकार मित्रों ने क्यों अपने लेखों और टीवी पर यही साबित करने की कोशिश की है कि आंदोलन किसानों का नहीं है, आंदोलन के पीछे हैं खालिस्तानी और वामपंथी ताकतें। कई पत्रकार और टीवी चैनल तो यहां तक कह रहे हैं कि इस आंदोलन के पीछे वही लोग हैं, जिन्होंने सीएए (नागरिकता कानून) का विरोध किया था पिछले साल तकरीबन इसी समय। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं की तरह ये पत्रकार कहते हैं कि वह आंदोलन भी झूठा था और यह भी। सब मोदी को बदनाम करने की कोशिश है और कुछ नहीं।
इनका कहना ठीक होता तो किसानों में इतना आक्रोश और विरोध करने के लिए इतना उत्साह कहां से आया कि वे कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं एक पूरे महीने से? यह सवाल अगर प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार पूछते अपने आप से तो शायद समझ में आती उनको असलियत। हकीकत यह है कि किसानों ने दो बार मोदी को जिताया इस उम्मीद से कि वास्तव में उनकी वार्षिक आमदनी दोगुनी करके दिखाएंगे, गन्ना किसानों की बकाया राशि दिलवाएंगे और कर्जे भी माफ कर दिए जाएंगे।
पिछले छह वर्षों में उनका कहना है कि मोदी ने इनमें से कुछ भी नहीं किया है और उनका हाल वैसा ही है जैसा पहले था। इस मायूसी के माहौल में उन पर थोपे गए हैं ये कानून यह कह कर कि उनके भले के लिए हैं। हो सकता है शायद होंगे भी, लेकिन विश्वास उनका जब टूट गया है तो उनको इन कानूनों को शक की नजर से देखना स्वाभाविक नहीं होगा क्या?
अब प्रधानमंत्री के सलाहकार उनको सलाह दे रहे हैं कि बस डटे रहने की जरूरत है। धीरे-धीरे किसानों का जोश कम हो जाएगा और आंदोलन अपनी ही मौत मर जाएगा जैसे सीएए का विरोध समाप्त हो गया था। सलाह गलत इसलिए है, क्योंकि जिस प्रधानमंत्री ने अपने आप को जनता का प्रधान सेवक कभी कहा था, उसमें इस तरह का अहंकार जब आम लोग देखेंगे तो उनकी लोकप्रियता रूई की तरह हवा में उड़ जाएगी और उनके पास रहेंगे सिर्फ उसी किस्म के दरबारी, जो कभी सोनिया गांधी के दरबार को सजाते थे और जिन्होंने जनता की आवाज को उन तक पहुंचने से इतना रोका कि अब हमारी सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी सिकुड़ कर एक निजी कंपनी बन कर रह गई है। जितना नुकसान दरबारी कर सकते हैं किसी राजनेता का, कोई और नहीं कर सकता है। सावधान हो जाएं मोदीजी।