हर साल इस हफ्ते मैं उन शहीदों को याद करती हूं, जो 26/11 वाले जिहादी हमले में बेमौत मारे गए थे। बेगुनाह, बेकसूर, निहत्थे लोग थे, जिनका दोष सिर्फ इतना था कि मुंबई की उस शाम को निकले थे अपने परिवार या दोस्तों के साथ खाना खाने किसी होटल में। कुछ वे थे जो सीएसटी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे और कुछ जो अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती थे। पाकिस्तानी हत्यारों ने किसी को नहीं बाख्शा, लेकिन उस देश के सैनिक शासक उनको शहीद कहते हैं। सो, हमले के दौरान जब मुंबई भेजे गए ये जिहादी, अपना असलहा समाप्त होने पर पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं से आखिरी बातें कर रहे थे। उनको हौसला यह दिया जाता था कि अब “शहीद होने का वक्त आ गया है, अल्लाह आपका जन्नत में इंतजार कर रहा है।”
सेलफोन पर की गई इन बातों को अगर हमारी जांच संस्थाओं ने ढूंढ़ न निकाल होता, तो दुनिया के सामने साबित ही न कर पाते कि इस घिनौने आतंकवादी हमले को करवाया किसने है। पाकिस्तान के सैनिक शासक अभी तक कबूल करने को तैयार नहीं हैं कि इस हमले के पीछे उनका हाथ था और यह घटना उस अघोषित, कायर युद्ध का हिस्सा थी, जो दशकों से पाकिस्तान लड़ रहा है भारत के साथ।
मुंबई हमेशा रहता है उनके निशाने पर, क्योंकि पाकिस्तान के सैनिक शासक जानते हैं अच्छी तरह कि भारत को कमजोर करना है अगर, तो उसकी अर्थव्यवस्था को कमजोर करना होगा। मुंबई पर पहला हमला किया गया था 12 मार्च, 1993 को, जब शृंखलाबद्ध विस्फोट करवाए गए थे इस महानगर की कई जगहों पर। इस आतंकवादी साजिश को पाकिस्तानी सेना ने रचा था, लेकिन प्यादे मुंबई निवासी दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन जैसे हत्यारे थे, जिनको जरा भी दुख नहीं हुआ कि उनके हाथों 257 बेगुनाह, निहत्थे लोग मारे गए थे। अपना काम करके पाकिस्तान भाग गए, जहां उनको आज तक शरण मिल रही है। इस घटना के बाद कई छोटे-मोटे जिहादी हमले होते रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ा हमला हुआ था 26 नवंबर, 2008 की रात, जो चार दिन तक चला।
मुंबई में रहती हूं, ओबेराय होटल से थोड़ी ही दूर, और याद है मुझे अच्छी तरह आज भी कि इस होटल की अठारहवीं मंजिल पर हमला सबसे लंबा चला था। फतेहल्लाह नाम के जिहादी ने कोई तीस लोगों को बंदूक की नोक पर ऊपर ले जाकर तड़पा तड़पा कर मारा था। इसकी गवाही तुर्की के उस दंपति ने दी थी, जिनकी जान सिर्फ इसलिए बख्श दी इस कायर हत्यारे ने, क्योंकि जब उनकी बारी आई दीवार के संग खड़े होकर गोली खाने की, तो उन्होंने फातेहा पढ़ना शुरू कर दिया। जब हत्यारे ने देखा कि वे मुसलमान हैं, तो उनको कहा कि वे चुपचाप लेटे रहें, क्योंकि उनको कुछ नहीं होगा। बाद में जब 26/11 पर फिल्म बनाई किसी ब्रिटिश टीवी चैनल ने, तो उस महिला ने रोते-रोते बताया कि आज भी उसके कानों में उस सत्ताईस साल की लड़की की चीखें गूंजती हैं। वह हांगकांग या सिंगापुर से अपनी पहली बिजनेस ट्रिप पर आई थी।
उस 26/11 के बाद बारह साल गुजर गए हैं, जिनमें पाकिस्तान के सैनिक शासकों ने बार-बार साबित किया है कि उनका यह कायर युद्ध जारी रहेगा। कुछ ही दिन पहले जम्मू के नगरोटा शहर के टोल प्लाजा पर सुरक्षा कर्मियों के साथ मुठभेड़ में चार पाकिस्तानी आतंकवादी मारे गए थे और वह सुरंग मिली, जिसके द्वारा वे सीमा पार करके आए थे कश्मीर घाटी में आतंकवाद फैलाने। यानी पाकिस्तान के इस कायर युद्ध को रोकने का काम हम जब तक डट कर नहीं करेंगे, तब तक यह युद्ध चलता रहेगा। सो, कितना सुरक्षित है मुंबई आज 2008 की तुलना में?
अफसोस के साथ कहना चाहूंगी, जैसे हर साल कहती आई हूं, कि बिल्कुल उतना ही असुरक्षित है जितना तब था। न हमारी समुद्री सीमा पर अब पहले से ज्यादा सुरक्षा दिखती है और न ही इस महानगर के अंदर। माना कि कांग्रेस के दौर में सुरक्षा इसलिए कड़ी नहीं की गई थी क्योंकि पाकिस्तान के साथ वे दोस्ती रखना चाहते थे, इस उम्मीद से कि ऐसा करने से उनका मुसलिम वोट बैंक सलामत रहेगा। लेकिन जो बात बिलकुल समझ में नहीं आती है, वह यह कि वर्तमान मोदी दौर में जब पाकिस्तान का नाम उनके मंत्री लेते हैं जैसे गाली हो, परिवर्तन क्यों नहीं दिखता है? क्यों नहीं हमने इजराइल की नकल करके जिहादी आतंकवाद को खत्म करने की कोशिश की है? इजराइल के आसपास ऐसे देश हैं, जिन्होंने खुल कर कहा है कि उनका एक ही मकसद है और वह है इजराइल का नामो-निशान मिटा देना। मगर अभी तक ऐसा कर नहीं सके हैं, क्योंकि इजराइल ने अपनी सुरक्षा को इतना मजबूत किया है।
मोदीजी जब इजराइल गए थे, बिन्यामिन नेतनयाहू ने उनको अपना दोस्त कह कर हिंदी में स्वागत किया था, तो हमारी मदद खुशी से करेगा इजराइल, जब हम तय करेंगे कि हम किस तरह की मदद लेना चाहते हैं। मैं सुरक्षा विशेषज्ञ नहीं हंू, लेकिन इतना जानती हंू कि हमारी पुलिस के प्रशिक्षण में जो खामियां हैं, वे हम इजराइल की मदद से कम कर सकते हैं। यह ऐसा युद्ध है, जिसमें सेना की जरूरत कम है और पुलिस की ज्यादा है, लेकिन आज भी हमारी पुलिस का प्रशिक्षण वैसा ही है, जैसा हुआ करता था। आतंकवाद से लड़ने के लिए खास प्रशिक्षण की जरूरत है, जो अभी तक किसी भी राज्य में हमारी पुलिस को नहीं दिया जाता है। माना कि अब हमारी खुफिया संस्थाएं बेहतर हो गई हैं, लेकिन जब तक आम पुलिस वालों का प्रशिक्षण बेहतर नहीं होगा, हम इस कायर युद्ध में जीत हासिल नहीं कर सकेंगे।