वाशिंगटन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बात कही थी 2014 में, जो आज भी मेरे कानों में संगीत की तरह गूंजती है। उनका पहला दौरा था अमेरिका का प्रधानमंत्री बनने के बाद और अमेरिका की इस राजधानी में उद्योगपतियों को संबोधित कर रहे थे एक शानदार महफिल में, उनको विश्वास दिलाने के इरादे से कि भारत का माहौल निवेशकों के लिए सुहाना होने वाला है। इस महफिल में कुछ भारतीय पत्रकार उपस्थित थे, जिनमें मैं भी थी। प्रधानमंत्री का शान से स्वागत किया गया, जिसके बाद उन्होंने हिंदी में अपना भाषण दिया। कई बातें कहीं उन्होंने निवेशकों को आमंत्रित करने के लिए, लेकिन जो बात मेरे दिल को छू गई, वह यह थी कि उनकी नजरों में भारत को गरीब देश होने का कोई कारण नहीं दिखता है। यह बात मुझे इसलिए अच्छी लगी, क्योंकि मैं खुद बहुत बार लिख चुकी हूं इसी बात को अपने लेखों में। मेरा मानना है कि भारत के पास हर किस्म का सरमाया है, जो देशों को समृद्ध बनाने में काम आता है, अगर आर्थिक नीतियां सही हों।

मिसाल के तौर पर हमारे सबसे गरीब राज्यों के पास अक्सर प्राकृतिक सुंदरता और प्राचीन इमारतों का ऐसा भंडार है कि टूरिज्म में ही ठीक ढंग से निवेश हुआ होता तो ओड़ीशा और बिहार जैसे प्रदेश संपन्न हो गए होते आज।
गुरबत के शिकंजे में जकड़ कर रह गए हैं इन राज्यों के लोग तो इसलिए कि दिल्ली में तमाम आर्थिक फैसले ‘सेंट्रल प्लानिंग’ की सोच के तहत किए गए। समाजवादी देशों में इस तरह का आर्थिक केंद्रीकरण अक्सर दिखता है, लेकिन सोवियत संघ में सबसे ज्यादा दिखता था और भारत ने सोवियत संघ से प्रेरणा लेकर अपनी नीतियां बनाई थी कभी। सोवियत संघ खुद टूट गया अपनी गलत आर्थिक नीतियों के कारण, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार सिर्फ तब लाए गए, जब 1991 में देश कंगाल होने के कगार पर था। स्थिति इतनी बुरी थी कि प्रधानमंत्री नरसिंह राव को लाइसेंस राज समाप्त करना ही पड़ा।

आर्थिक नीतियों का विकेंद्रीकरण भी हुआ और ऐसा होने से कुछ वर्ष भारत के लिए बहुत अच्छे गुजरे। फिर आया सोनिया गांधी का दौर, जिसमें उन्होंने अपनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा फिर से दिल्ली में लेने शुरू किए बड़े-बड़े आर्थिक फैसले। उनकी सलाहकार समिति बेचारे मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल से भी ज्यादा शक्तिशाली थी, सो मनमोहन सरकार पर थोपी गर्इं मनरेगा जैसी योजनाएं, जो धीरे-धीरे देश भर में लागू कर दी गर्इं। उस समय कुछ भाजपा मुख्यमंत्रियों ने एतराज जताया था कि केंद्र सरकार की ऐसी समाज कल्याण योजनाओं से उनको नुकसान अधिक और लाभ कम होता है, क्योंकि उनकी अपनी योजनाओं को त्यागना पड़ता है। इन मुख्यमंत्रियों में नरेंद्र मोदी भी थे, लेकिन अब लगता है कि उनकी सोच बदल गई है।

सो, पिछले सप्ताह वित्तमंत्री ने गर्व से वक्तव्य दिया कि मोदी सरकार के आने के बाद मनरेगा बेहतर हो गया है, लेकिन यह शायद भूल गए थे कि प्रधानमंत्री ने खुद इस योजना का मजाक उड़ाया था लोकसभा में। यथार्थ यह है कि मनरेगा के आने के बाद न ग्रामीण रोजगार बढ़ा है और न ही गरीबी कम हुई है। यथार्थ यह भी है कि इस योजना में जो लाखों करोड़ रुपए निवेश हुए हैं, अगर वे ग्रामीण स्कूल, अस्पताल और सड़कों पर खर्च हुए होते तो आज शायद ग्रामीण भारत की शक्ल बदल गई होती। मनरेगा बेरोजगारी भत्ता बन कर रह गया है, रोजगार का साधन नहीं। अगर इस योजना को कायम रखना ही था मोदी सरकार को तो कम से कम इतना तो करते कि इसके द्वारा उन चीजों का निर्माण कराने की कोशिश होती, जिनका ग्रामीण क्षेत्रों में सख्त अभाव है। फिलहाल मनरेगा के तहत सिर्फ गड््ढे खोदने और मिट््टी डालने का प्रावधान है।

सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद की एक और देन है, जो मोदी सरकार गर्व से अपना रही है और वह है खाद्य सुरक्षा कानून। इस कानून को शीघ्र ही देश भर में लागू कर दिया जाएगा और इसके बाद सत्तर प्रतिशत से ज्यादा भारतीयों को मुफ्त में गेहूं और चावल दिए जाएंगे। कानून बना तो था बच्चों में कुपोषण कम करने के मकसद से, लेकिन इस नेक काम में वह बिल्कुल बेकार साबित होगा, क्योंकि कुपोषण के कारण और हैं। मुंबई में मैं गरीब बच्चों के लिए नाश्ता नाम की एक छोटी-सी योजना चलाती हूं, जबसे मुझे मालूम हुआ कि कोई दस वर्ष पहले के इस महानगर के लावारिस बच्चों ने न कभी दूध देखा था और न ही सब्जी। यह भी मालूम हुआ कि कुपोषण का यही मुख्य कारण था उनमें। चावल-रोटी की कोई कमी नहीं थी उनके जीवन में। लेकिन दिल्ली में जब भी ऐसी योजनाएं बनती हैं, तो अक्सर उनमें इस तरह के नुक्स होते हैं। न होते गंभीर नुक्स तो आज भारत के बच्चों का यह हाल न होता कि हर दूसरा बच्चा कुपोषित हो। याद कीजिए कि बच्चों में कुपोषण कम करने के नेक मकसद से सोनियाजी की सास ने 1975 में आइसीडीएस नाम की योजना शुरू की थी, जो बाल कल्याण की विश्व में सबसे विशाल योजना होने का दावा करती है। इस योजना की विफलता को अनदेखा करके खाद्य सुरक्षा कानून बनाया गया।

सवाल है कि मोदी क्यों ऐसी नाकाम योजनाओं को अपना रहे हैं, जो न इंदिराजी के दौर में परिवर्तन ला सकीं और न ही सोनिया गांधी के दौर में? सवाल यह भी है कि अगर दिल्ली में केंद्रित ऐसी योजनाओं को मोदी सरकार को कायम रखना है तो क्या मोदी को मिले जनादेश का उल्लंघन नहीं होगा? क्या मोदी भूल गए हैं कि जनादेश उनको मिला था परिवर्तन के लिए? अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है मुझे कि ऐसा लगने लगा है कि बहुत कुछ भूल गए हैं मोदी।