अखबार में लिखे हजार शब्दों और टीवी चैनलों पर बहस में बोले गए उतने ही शब्दों में क्या अंतर है? इस प्रश्न का उत्तर समकालीन भारत के विमर्श की दुनिया का सबसे बड़ा विरोधाभास सामने लाता है। लेख लिखते समय लेखक तर्क गढ़ने में मस्तिष्क का उच्चतम उपयोग करता है। छपने से पूर्व उसे मर्यादा, सभ्यता, तथ्य और तर्क जैसे मानकों पर परखा जाता है। उधर, टीवी चैनलों पर बहस में मर्यादा, निष्पक्षता, तथ्य और तर्क की अवहेलना मानो अनिवार्य हो गया है। परंतु बात यही तक सीमित नहीं है। स्टूडियो में हाथापाई, गाली-गलौज, अभद्र भाव-भंगिमा सामान्य बात हो गई है। सोचने का स्तर निम्नतम होता है। यहां वाणी और विवेक के बीच संबंध विच्छेद रहता है। यही मुख्यधारा है। टीवी चैनलों के जो प्रस्तोता इस कायदे से दूर रहते या रहना चाहते हैं, वे कम काबिल माने जा रहे हैं।
‘लोग क्या देखना चाहते हैं?’ यह प्रपंच के सिवाय कुछ नहीं है
बहस के प्रायोजक इसका औचित्य लोगों की ‘रुचि’ में ढूंढ़ते हैं। वे बौद्धिक और नैतिक गिरावट के लिए इस प्रश्न का सहारा लेते हैं : ‘लोग क्या देखना चाहते हैं?’ यह प्रपंच के सिवाय कुछ नहीं है। इतिहास साक्षी है, लोग सकारात्मकता के सारथी होते हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो वे फिल्मों में नायकों के जगह खलनायकों के दीवाने होते। फिल्मों के लेखक-निर्देशक और निर्माता सकारात्मकता का पक्ष तैयार करते हैं। लोगों के मन को ढालना उस काल के बौद्धिकों पर निर्भर रहता है।
सोलह नवंबर 1869 को काशी में स्वामी दयानंद सरस्वती और पंडितों के बीच मूर्ति पूजा पर शास्त्रार्थ हुआ। उसकी गंभीरता और उसके विषय की संवेदनशीलता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि उस समय वहां हजारों लोग उपस्थित थे। यों संख्या का अनुमान दस हजार से पचास हजार तक का है। दो सौ साल पहले इतनी बड़ी संख्या में सामान्य लोग गाली-गलौज नहीं, गंभीर विमर्श सुनने आए थे। यह उदाहरण उपरोक्त प्रश्न का अपने आप में समाधान है।
टीवी विमर्शों ने उत्तर-विवेकवाद को प्रोत्साहित किया है। यह व्यक्ति को अपनी छवि के साथ-साथ सामाजिक मर्यादाओं के प्रति संवेदनहीन बना देता है। वे प्रसिद्धि की मनोकामना के साथ खलनायकत्व को खुशी से स्वीकारते हैं । यशपाल की एक प्रसिद्ध कहानी है ‘अखबार में नाम’। इसका निचोड़ है ‘प्रसिद्धि’ के लिए कुछ भी करना। आज यशपाल होते तो वे ऐसे (कु) पात्रों की बड़ी संख्या से साक्षात्कार कर पाते। मगर यह स्थिति कुहासा है, अंधकार नहीं।
भारत अपने वैशिष्ट्य को कभी छोड़ता नहीं है। स्वाध्याय, सत्संग और शास्त्रार्थ की परंपरा इतनी गहरी और प्राचीन है कि उस पर कुछ समय के लिए धूल तो जमती है, पर यह ध्वस्त नहीं हो पाता है। यही कारण है कि लोग इन बहसों को गंभीरता से नहीं लेते हैं, लेकिन प्रश्न और भी हैं। टीवी चैनलों को नैतिक जिम्मेदारी का अहसास क्यों नहीं हो रहा है? स्कूल-कालेजों में वाद-विवाद प्रतियोगिता होती है। इसमें भाग लेने वाले भी विषय की तैयारी करते हैं। गौरतलब है कि उनकी संख्या की तुलना में तर्क और तथ्य की संस्कृति का सामान्य छात्रों पर प्रभाव कई गुना अधिक होता है।
सार्वजनिक विमर्श समाज के प्रबोधन, जागृति, चेतना का महत्त्वपूर्ण उपकरण होता है। इसके प्रवाह के प्रति हम हजारों वर्षों से सचेत रहे हैं। पहली दूसरी शताब्दी में बौद्ध विद्वान नागार्जुन का (दक्षिण भारत के राजा गौतमीपुत्र को लिखा गया) ‘मित्र के नाम एक पत्र’ प्रभावी दस्तावेज है। इसका फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी, चीनी, कोरियाई और स्पेनी आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ। काव्य रूप में लिखे गए पत्र में नागार्जुन ने सलाह दी है कि ‘शरीर, मस्तिष्क और बोलने में नकारात्मकता नहीं होनी चाहिए।’ आगे उन्होंने समझाया कि ‘करुणा (दया) एवं बुद्धि का विकास साथ-साथ होना चाहिए।’ प्राचीन काल से भारत ने सामाजिक जीवन के गंभीरतम प्रश्नों का इसी मार्ग से हल ढूंढ़ा है।
गार्गी और याज्ञवल्क्य एवं आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ अपवाद स्वरूप नहीं हैं। इसकी लंबी शृंखला केरल से काशी तक रही है। यही भारतीय ज्ञान परंपरा है। यह विरासत की व्याख्या या उसकी पूजा नहीं है। संदर्भों में ढाल कर आगे बढ़ना ही उस परंपरा को पुनर्जीवित करना है। इसमें ज्ञानार्जन का नैतिक पक्ष शामिल हैं। ऐसा ही एक उदाहरण कुमारिल भट्ट और बौद्ध विद्वानों के बीच बहस का है। भट्ट ने बौद्ध गुरुओं से ही सीख कर उनके साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें ही पीछे छोड़ दिया। बाद में इसे उन्होंने अनैतिक माना और अग्नि समाधि ले ली। यह नैतिकता का शिखर था। तब हम क्या थे और आज हम क्या हो गए?
विचारों में अंतर और टकराव बौद्धिक प्रवाह का हिस्सा है। उसी से विचारों की समृद्धि होती है। दुनिया के जिस भाग और जिस भी कालखंड में यह रहा, वहां तब सामूहिक मानसिक उन्नति हुई। एथेंस (ग्रीक सभ्यता) स्पार्टा की तुलना में उदाहरण बना हुआ है? इसका कारण आर्थिक या सामरिक समृद्धि नहीं थी, बल्कि वैचारिक प्रवाह था। इसके राजा पेरिक्लीज का तीन हजार वर्ष पूर्व का ‘अंतिम संस्कार में भाषण’ राह दिखाता है। पेलोपोनेसियन युद्ध में मारे गए सिपाहियों के सामूहिक अंतिम संस्कार में उन्होंने कहा था कि ‘सामान्य लोग यद्यपि उद्यमों में लगे रहते हैं फिर भी सार्वजनिक प्रश्नों के वे निष्पक्ष न्यायाधीश होते हैं।’ टीवी बहस से जुड़े लोगों को सामान्य लोगों के प्रति अपनी समझ बदलनी चाहिए।
विरोध की संस्कृति विचार प्रवाह समाज को संतुलित नहीं रहने देती है। सामाजिकता इसकी बलि चढ़ जाती है। पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत है। इसके रचनात्मक उदाहरण विद्यमान हैं। जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय के ‘पालिटिकल डायरी’ का प्राक्कथन कांग्रेस के बड़े नेता संपूर्णानंद ने लिखा है। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एनजी गोरे ने जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया। यह बीज स्वरूप नई पीढ़ी और चैनलों के सामने है। यक्षप्रश्न है: वे भारत के नवोदय के सूत्रधार बनेंगे या प्रतिक्रियावाद के जनक?