एक अरसा पहले मेरे एक मित्र आइएएस परीक्षा के इंटरव्यू में पेश हुए थे। अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान उनके विषय थे। इंटरव्यू बोर्ड ने उनको एक काल्पनिक परिदृश्य दिया। मान लीजिए, उन्होंने कहा, आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और आपको और सिर्फ आप को फैसला करना है। आप पर कोई दबाव नहीं है और आपको अपने विवेक का इस्तेमाल ही करना है। मान लीजिए कि नेपाल आपसे कहता है कि हम भारत में अपना विलय करना चाहते हैं, क्या आप इस विलय पर हस्ताक्षर करेंगे? हमारे मित्र ने तुरंत जवाब दिया हां, करेंगे। खयाल अच्छा है। क्यों, उन्होंने पूछा। नेपाल एक तरह से भारत का एक्सटेंशन ही है, उन्होंने कहा। आने-जाने के लिए कोई वीजा वगैरह की जरूरत नहीं पड़ती है और हमारे संबध परिवार जैसे ही हैं। और वैसे भी नेपाल हिंदू राष्ट्र है।
इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों ने पूरी गंभीरता से दूसरा सवाल किया: अब अगर बांग्लादेश भी यही प्रस्ताव रखता है तो क्या करेंगे? उन्होंने तपाक से कहा: बांग्लादेश बंगाल ही तो था, वह तो 1947 की वजह से अलग हुआ। सदस्यों ने सिर हिलाया और फिर पूछा- श्रीलंका भी अगर जुड़ना चाहे तो? और पाकिस्तान? मित्र अब सकपका गए। वे नहीं समझ पा रहे थे कि इंटरव्यू बोर्ड उन्हें किस दिशा में ले जा रहा है। उन्होंने बीच में कुछ अंतरराष्टÑीय मुद्दे डालने की कोशिश की, पर वे लोग अड़े रहे। फैसला आपको करना है, बाहरी मुद्दों को जाने दीजिए। आप इकोनॉमिक और पोलिटिकल साइंस पढ़ चुके हैं और इन्हीं दोनों मुद्दों पर आपका निर्णय होना चाहिए। मित्र ने टालमटोल करने की कोशिश की, पर चूंकि वे पहले ही एक लाइन ले चुके थे इसलिए वे इन दोनों राष्ट्रों को भी शामिल करने से हट नहीं सकते थे। अंतिम हां तक आते-आते वे पसीने-पसीने हो गए थे। बोर्ड के चेयरमैन मुस्कराए। लगता है, आप अखंड भारत के विचार में विश्वास रखते है! आज की तारीख में आपका फैसला न तो अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित है और न ही राजनीतिशास्त्र के। ये सारे देश हमसे गरीब हैं और अगर हममें मिल गए तो हमको और नीचे की तरफ खीचेंगे। भारत प्रगति की राह पर है, अपनी एक रोटी खुद खाने के बजाय, छह लोगों में क्यों बांटना चाहते हैं?
दूसरी बात, उन्होंने कहा, इन देशों में अपना एक पोलिटिकल और सोशल कल्चर विकसित हो चुका है। क्या वे कल्चर हमारी मुख्यधारा में स्वाभाविक रूप से विलय हो पाएंगे? मुझे लगता है कि ऐसा तुरंत होगा नहीं और हमको लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। क्या ऐसी लड़ाई में उलझ जाना देश के लिए हितकर होगा? मित्र के पास कोई जवाब नहीं था। वे सिर्फ यस सर, यस सर करते रहे और अंतत: आइएएस नहीं बन पाए। कश्मीरियों का भी हमारे मित्र जैसा ही हाल है। खयाल अच्छा है, पर वे एक ऐसे रास्ते पर चल रहे हैं, जिसका कोई आर्थिक या राजनीतिक औचित्य नहीं है। पाकिस्तान में अपना विलय करके उन्हें कोई लाभ नहीं मिलने वाला, बल्कि नुकसान ही ज्यादा होगा। पाकिस्तान के कब्जे में जो कश्मीर का हिस्सा है उसके आर्थिक हालात सर्वविदित हैं। साथ ही उस देश का राजनीतिक माहौल भी ऐसा नहीं है, जिससे कश्मीरी अवाम आकर्षित या प्रेरित हो। भारत के कश्मीरी अच्छी तरह जानते हैं कि मजहब के आलावा वे पाकिस्तान से एकदम भिन्न हैं, पर फिर भी खुशफहमी पाले हुए हैं।
वैसे मजहब की आड़ में कश्मीर पिछले तीस साल से भू-माफिया के हाथ में है। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी, जब प्रदेश को धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया था। शुरू में राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी, पर सत्तर के दशक के अंत तक घाटी के राजनेता विशेष दर्जे की आड़ में अपना आधिपत्य स्थापित करने में जुट गए थे। उन्होंने कश्मीर को जागीरों में बांट लिया और केंद्र की दखल से बचने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे। केंद्र सरकार इस दौर में प्रमुख निशाना थी, पर इतना काफी नहीं था। स्थायी हल घाटी में मजहब के नाम पर हिंसा और आजादी का ढोल था, यानी आतंकवाद। वास्तव में कश्मीर में लड़ाई न इस्लामियत की है और न ही आजादी की। 1990 से कश्मीर में हुए पंडितों के पलायन, पाकिस्तान की भूमिका और स्थानीय नेतृत्व का रवैया सिर्फ माफिया की बढ़ती भूमिका की तरफ इशारा करते हैं। असल में ये भू-माफिया व्यक्तिगत स्तर पर, समुदाय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कब्जा जमाना और फैलाना चाहता है।
यह माफिया लगभग पचास से सौ लोगों का है, जिसने अपने इर्दगिर्द उसी तरह से अपराधी पाले हुए है, जैसे मुंबई में दाऊद जैसे माफिया सरगना पाले हुए थे। वही हिंसा के लिए लोगों को उकसाते या खुद करते हैं और फिर उसमें आम कश्मीरियों को लपेट लेते हैं। और जैसा मुंबई में था वैसा यहां भी है- नेता, पुलिस आदि सब मिले हुए हैं और इनको इसमें शामिल रखने के लिए बाहर से पैसा आता है। कब्जे की कोशिश में माफिया पिछले तीस साल में बहुत सफल भी रहा है। लाखों पंडित साफ हो गए, गैर-सलाफिस्ट मुसलमान भाग खड़े हुए और एक वर्ग विशेष के खास लोगों ने अपना सिक्का चलाने के लिए साफ मैदान बना लिया है। दूसरी तरफ पाकिस्तान को भी कश्मीर उसके लोगों की ‘आजादी’ के लिए नहीं, बल्कि उसकी जमीन के लिए चाहिए, जिस पर वे कई और देशों से सौदेबाजी कर सकें। वास्तव में आज जो घाटी में हो रहा है वह सिर्फ जमीन का मामला है, पाकिस्तान भी जो कुछ कर रहा है कश्मीरी जमीन के लिए कर रहा है। दोनों जमातों का कश्मीरी लोगों की बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं है।
दुर्भाग्यवश कश्मीरी अवाम हमारे मित्र की तरह हैं, जो अपनी बेहतरी किसमें है, नहीं समझ पा रहा है, खयाल पर फिदा है और माफिया के झांसे में फंसता चला जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे केंद्र कश्मीरी माफिया के स्वार्थों के जाल में फंस कर बदनाम होता गया है। वैसे कहने को अक्सर कहा जाता है कि कश्मीर समस्या बड़ी जटिल है, जिसका समाधान अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से लेकर हीलिंग टच, विकास आदि या फिर पाकिस्तान से आरपार की लड़ाई के विकल्पों के बीच में कहीं छिपा है। कई दशक से भारत सरकार इन्हीं विकल्पों से आंखमिचौनी खेल रही है, पर कुछ हाथ नहीं आया है। पर सच यह है कि कश्मीर की राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय समस्या का अंत तभी शुरू होगा जब केंद्र सरकार कश्मीरी भू-माफिया पर पुलिस एक्शन कर अपराधियों का सफाया करेगी। उनके खत्म होते ही खयाल भी बदल जाएंगे।

