दिल खुश कर दिया उच्चतम न्यायालय ने पिछले सप्ताह, राजनीतिक दलों को फटकार लगा कर, उनकी चुनावों से पहले मुफ्त चीजें बांटने की आदत को लेकर। न्यायाधीशों ने इस मुफ्तखोरी को गलत बता कर कहा कि क्या हमको चिंता नहीं होनी चाहिए कि ‘परजीवियों का वर्ग’ पैदा कर रहे हैं हम। निजी तौर पर मुझे खुशी हुई, इसलिए कि मैंने वह दौर देखा है, जब मतदान से एक दिन पहले राजनीतिक दलों के दलाल गरीबों की बस्तियों में घूम कर शराब की बोतलें और पैसे बांटा करते थे। कम से कम इन चीजों के लिए पैसा राजनीतिक दलों की अपनी तिजोरियों में से निकलता था। आज जो चुनाव से ऐन पहले ‘लाडली बहना’ किस्म की योजनाएं घोषित होती हैं, उनका पैसा इस देश के करदाता देते हैं।

अपने देश में अक्सर लोग गलती करते हैं इसको सरकारी पैसा कह कर। असल में, यह करदाताओं का पैसा है, जो हम देते हैं इस उम्मीद से कि इसको उन चीजों पर लगाया जाएगा जिससे देश का लाभ हो सके। बिजली, पानी, सड़क, स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएं। जबसे ‘लाडली बहना’ जैसी योजनाओं का दौर चला है, करदाताओं का पैसा वोटों की खरीदारी में लगने लगा है। और इसलिए कि हर राजनीतिक दल ने यह आदत डाल रखी है, इसे रोकनेवाला कोई नहीं रहा है। हम मीडियावाले कुछ थोड़ा-बहुत हल्ला मचा कर चुप हो जाते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि राजनीतिक दलों में एक स्पर्धा शुरू हो गई है इन दिनों, इस तरह की योजनाओं को लेकर। हाल में हुए दिल्ली के चुनावों में जब एक राजनीतिक दल ने महिलाओं को इक्कीस सौ रुपए महीना देने की घोषणा की, तो दूसरे दल ने फौरन ढाई हजार रुपए देने का वादा कर दिया था।

ऐसी योजनाओं का मकसद सिर्फ चुनाव जीतना है। चुनाव के बाद पछताने लगते हैं हमारे शासक, जैसे महाराष्ट्र में हो रहा है। चुनाव जीतने के बाद जब वही शासक लौटकर आए जो पहले थे, उन्होंने ‘लाडली बहना’ योजना की जांच-पड़ताल शुरू की और पाया कि लाखों ऐसी महिलाओं ने उसका लाभ उठाया था, जिनको इस योजना से लाभ लेने का हक नहीं था। महाराष्ट्र सरकार अब उनको ढूंढ़ने में लगी हुई है। ध्यान इस पर भी जा रहा है इस प्रदेश के आला नेताओं का कि कैसे इस योजना के लिए पैसे इकट्ठा हों। कई ऐसी योजनाएं, जिनसे वास्तव में देश का भला हो सकता है, बंद की जा रही हैं, ‘लाडली बहनों’ को खुश रखने के लिए।

सच तो यह है कि जब इस तरह की कोई योजना शुरू की जाती है, उसको बंद करना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। सो, प्रधानमंत्री ने कोविड के दौर में जो मुफ्त अनाज बांटने की योजना शुरू की थी वह कोविड के बाद भी जारी रखनी पड़ी है और आज भी इस देश के कोई अस्सी करोड़ लोग मुफ्त अनाज लेने के हकदार हैं। सवाल है कि क्या अस्सी करोड़ भारतीय इतने गरीब हैं कि दाल, चावल, गेहूं के पूरे पैसे दे नहीं सकते हैं? ऐसा अगर है तो कैसे कह रहे हैं प्रधानमंत्री कि 2047 तक भारत की गिनती विकसित देशों में होने वाली है?

सच तो यह है कि चुनाव जीतने के लिए हमारे राजनीतिक दल असली समाज कल्याण योजनाओं और खैरात वाली योजनाओं का अंतर मिटा चुके हैं। इसका नुकसान आखिरकार उन गरीबों को होगा, जो सपना देखते हैं कि एक दिन उनके बच्चे पढ़-लिख कर गरीबी की बेड़ियां खुद तोड़ने के काबिल हो जाएंगे। जो पैसा खैरात बांटने- या चुनाव जीतने- के लिए खर्च किया जाता है, उसको अगर हम निवेश करते अच्छे सरकारी स्कूल और अस्पताल बनाने में, तो सबसे ज्यादा लाभ होता उन लोगों को, जिनके पास निजी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने की क्षमता नहीं है।

सच यह भी है कि जब तक इन सेवाओं को बेहतर नहीं किया जाएगा, भारत विकसित नहीं हो पाएगा। देश विकसित सिर्फ सपनों और सुहाने नारों से नहीं होते हैं। विकसित होते हैं वे देश, जिनके लोग शिक्षित और स्वस्थ्य होते हैं इतने कि देश के विकास यात्रा में योगदान कर सकें। हमारे राजनेता गर्व से कहते फिरते हैं कि यह सदी भारत की सदी होने वाली है, क्योंकि हमारे देश में युवाओं की सबसे बड़ी आबादी है दुनिया में। यह सच भी है और झूठ भी। बेशक हमारे पास युवा आबादी ज्यादा है, लेकिन अक्सर इनमें ऐसे युवा और युवतियां हैं, जिनको अच्छी नौकरियां नहीं मिलती हैं, इसलिए कि वे ऐसे स्कूलों में पढ़े हैं जहां शिक्षा नहीं, साक्षरता ही हासिल होती है। देहातों से भाग कर आते हैं ऐसे युवा महानगरों में, जहां रोजगार के अवसर ज्यादा हैं, लेकिन मजदूरी के अलावा कुछ नहीं कर पाते हैं।

उम्मीद है कि हमारे राजनेता सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सोचेंगे कि चुनाव जीतना ज्यादा जरूरी है या देश को वास्तव में विकसित होने के रास्ते पर लेकर जाना। मैं न्यायधीशों को आभार व्यक्त करने के बाद सुझाव यह भी देना चाहती हूं कि अपने इस फैसले पर थोड़ा विचार-विमर्श और करने के बाद वह उन राजनीतिक दलों को दंडित करने के भी कोई तरीके बताएंगे, जो इस तरह की योजनाओं पर हमारा पैसा बर्बाद कर रहे हैं।

चुनाव आयोग को भी सोचना चाहिए कि इस तरह की योजनाएं आचार संहिता का उल्लंघन क्यों नहीं मानी जाती हैं। जब शराब की बोतलें और रुपए बांटनेवालों को दंडित किया जा सकता है तो उनको क्यों नहीं, जो वही काम कर रहे हैं, लेकिन थोड़ी चतुराई से। घूस देने का काम कर रहे हैं तो क्यों नहीं पकड़े जाते हैं आचार संहिता के उल्लंघन के लिए?