कुछ साल पहले जब किसी हादसे में काफी लोग मारे गए थे, तो मेरे एक विदेशी दोस्त ने मुझे कहा था कि ‘भारत में जान की कीमत बहुत थोड़ी है’। उस समय मुझे इतना बुरा लगा था कि हम में बहस छिड़ गई थी इस बात को लेकर, लेकिन आज जब भी किसी दुर्घटना में लोग मरते हैं, मुझे उसकी यह बात याद आती है। मानती हूं आज कि वह सही था और मैं गलत। भारत में वास्तव में लोगों की जानें सस्ती हैं। ऐसा न होता, तो बार-बार न देखते हम कि जब लोग मरते हैं भगदड़ में, या सुरंग में दब कर या किसी अन्य निर्माण कार्य में, तो अक्सर ऐसा होता है किसी न किसी की लापरवाही के कारण।

तेलंगाना में कई दिनों से उन आठ मजदूरों की खोज हो रही है, जो सुरंग धंसने से अंदर फंस गए थे। पिछले सप्ताह मालूम हुआ कि पांच साल पहले तेलंगाना सरकार के एक सर्वेक्षण ने बताया था कि जहां सुरंग बन रही है, वहां का पत्थर कमजोर है इतना कि भूस्खलन की संभावना है। इसके बावजूद एक निजी ठेकेदार को सुरंग बनाने का ठेका मिला। उसको जानकारी दी गई थी पहले से कि भूमि में कमजोरी है और सुरंग बनाते समय मजदूरों की जान को खतरा है। इसके बावजूद उनकी सुरक्षा के लिए जो कदम उठाने चाहिए थे, उठाए नहीं गए। खतरे की घंटियां तभी बजने लगीं, जब सुरंग की छत गिर गई। उसके बाद सेना की भी मदद मांगी गई और कई किस्म के ड्रोन और मशीनें लाई गईं मजदूरों के बचाव के लिए। इसके बदले अगर पहले से ठेकेदार ने सुरक्षा पर पैसे खर्च किए होते, तो कहीं ज्यादा कम पैसे लगते।

गरीब मजदूरों की जानें सस्ती हैं सो पूर्व दुर्घटनाओं से भी हमारे ठेकेदार कुछ नहीं सीखते। यहां याद कीजिए उस दुर्घटना को जो उत्तराखंड के सिलक्यारा सुरंग में हुई थी 2023 में, जिसमें 41 मजदूर सुरंग के अंदर 17 दिन फंसे रहे। खुशकिस्मत थे वे मजदूर, इसलिए कि जहां फंसे थे, वहां बिजली थी और सांस लेने के लिए आक्सीजन भी। उनसे संपर्क जब हुआ तो उन तक खाने-पीने का सामान पहुंचाने की गुंजाइश थी। उनको जिंदा निकालने के लिए महंगी अमेरिकी मशीनें लाई गईं और कई दिन तक उनको बचाने का प्रयास चलता रहा, लेकिन आखिर में उनको बचाया बारह लोगों ने जिनको ‘रैट-होल माइनर’ कहा जाता है।

कोयले की खदानों में प्रशिक्षित ये लोग न पहुंच पाते उन 41 मजदूरों तक तो शायद वे बच नहीं पाते। सारी दुनिया ने देखा किस तरह उनको बारी-बारी इन ‘रैट-होल’ खान-मजदूरों ने निकाला था, लेकिन इसके बाद जब आई बारी उनकी काबलियत की कदर करने की या उनको नौकरियों और इनामों से नवाजने की, तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। हाल में उनके बारे में किसी अखबार में खबर पढ़ी थी मैंने, जिससे मालूम हुआ कि इनमें से कुछ तो कचौड़ी बेचने का काम कर रहे हैं शहरों की पटरियों पर और कुछ दिहाड़ी पर काम करते हैं। वकील हुसैन, जो इस टीम का नेतृत्व कर रहे थे, उसके साथ जो हुआ वह इतना शर्मनाक है कि मुझे शर्म आ रही है वह लिखते हुए।

वकील हुसैन रहते थे दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में। एक दिन डीडीए के बुलडोजर उनके छोटे से घर पहुंचे और तोड़ डाला उसको अवैध कह कर। अफसोस कि ऐसा हुआ सिलक्यारा सुरंग वाली घटना के कुछ ही महीने बाद। किसी और देश में पैदा होते तो इनके कच्चे घर के बदले में इनाम के तौर पर पक्का घर तो कम से कम मिलता, लेकिन अपने इस देश में न गरीबों की जान की परवाह है हमारे शासकों को और न ही गरीबों को वे सम्मान देते हैं, जो कम से कम उनको इंसान होने के नाते मिलना चाहिए।

ऐसा क्यों है और कब बदलेगा, मैं नहीं कह सकती, लेकिन इतना जान गई हूं कि मेरा विदेशी दोस्त ठीक था, जब उसने कहा कि हमारे देश में जान सस्ती है। गलती सिर्फ उसकी यह थी कि उसने यह नहीं समझा कि ऐसा सिर्फ गरीबों की जान के बारे में कहा जा सकता है। भारत में जिनकी किस्मत अच्छी होने के नाते किसी अमीर या मध्यवर्ग में कोई पैदा होता है, तो उसकी जान सस्ती बिल्कुल नहीं होती है। पूरी कोशिश रहती है सरकारों की उसको सुरक्षित रखने की उसके अपने घर में भी और उन जगहों पर भी, जहां वह काम करता है। थोड़ी सी लापरवाही अगर दिखती है उन आलीशान दफ्तरों में, जहां ऐसे लोग काम करते हैं, तो मुआवजा मिलता है और सजाएं भी होती हैं।

जान सस्ती है हमारे देश में उन लोगों की, जो वैसे भी गरीबी की वजह से बेजुबान हैं और जिनकी पहुंच इतनी नहीं है कि अखबारों या टीवी में अपनी आवाज उठा सकें। महाकुंभ के दौरान भगदड़ मचने से त्रिवेणी में भी लोग मरे और दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी, लेकिन आज तक बेनाम हैं ये लोग। मुआवजा दिए जाने का एलान तो किया गया है, लेकिन अगर कुछ महीने बाद भी नहीं दिया गया है, तो इतने बेजÞुबान हैं ये गुमनाम लोग कि किसी के पास नहीं जा सकते हैं अपनी फरियाद लेकर।

ऐसा होना तो नहीं चाहिए ऐसे देश में, जिसके हर दूसरे दिन विकसित होने का आश्वासन दिया जाता है प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों द्वारा, लेकिन ऐसा है। विकसित देशों में जान की कीमत इतनी है कि मजदूरों को खानों और सुरंगों में तभी भेजा जाता है, जब उनको सुरक्षित रखने के लिए सारे इंतजाम करते हैं ठेकेदार। ऐसा अपने भारत महान में शायद तभी हो सकेगा, जब हम विकसित भारत का सपना साकार कर लेंगे। वह दिन अभी दूर है। बहुत दूर।