आज के दिन पंद्रह वर्ष पहले दुनिया हमेशा के लिए बदल गई थी। जो सीमाएं युद्ध और शांति के बीच होती हैं वे उस समय मिट गर्इं जब न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन की इमारतों में हाइजैक किए हुए विमान इस्लाम के मुजाहिदों ने ब्रहमास्त्र बना कर इस्तेमाल किए। अमेरिका पर यह हमला किसी युद्ध का हिस्सा नहीं था। अमन-शांति का दिन था 11 सितंबर, 2001, लेकिन इन हमलों से पैदा हुआ एक नए किस्म का विश्वयुद्ध, जो आज तक लड़ा जा रहा है दुनिया के महानगरों और सीरिया, इराक और मिस्र जैसे मुसलिम देशों में। इस युद्ध की सीमाएं नहीं हैं, क्योंकि यह इस्लाम की अंदरूनी लड़ाई का हिस्सा भी है और जिहादी इस्लाम के खिलाफ भी है। इसका सबसे शक्तिशाली हथियार है जिहादी इस्लाम की विचारधारा, इसलिए कि जिस खिलाफत पर आइएस का कब्जा अभी है वह शायद जल्दी ही खत्म कर दिया जाएगा, लेकिन जिस विचारधारा को आधार बना कर इस खिलाफत की नींव रखी गई थी उसको हराना आसान नहीं होगा।

जहां भी मुसलमानों की आबादी है, वहां इस जिहादी विचारधारा का असर दिखता है, क्योंकि 9/11 के बाद अमेरिका ने वैश्विक स्तर पर जिहादी आतंकवाद के खिलाफ जो युद्ध घोषित किया था, उसको कई मुसलमान इस्लाम के खिलाफ युद्ध मानते हैं। 9/11 के हमलों के फौरन बाद इस्लामी देशों में अफवाहें फैलनी शुरू हुई थीं, जो हम-आप के लिए अजीब हों, लेकिन कई मुसलमानों का इन पर इतना विश्वास है कि किताबें लिखी गर्इं हैं इन अफवाहों पर। एक अफवाह यह थी कि 9/11 वाले हमले इजराइल ने करवाए थे, इसलिए न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में यहूदी नहीं मरे। बेबुनियाद है यह अफवाह और उतनी ही बेबुनियाद है वह अफवाह कि इन हमलों के पीछे अमेरिकी सरकार थी, क्योंकि राष्ट्रपति बुश को इराक पर युद्ध करने का बहाना चाहिए था।

इन अफवाहों में सच्चाई बिल्कुल नहीं है, लेकिन जहां जिहादी नेता अपनी बातें स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, वहीं दुनिया के बड़े राजनेता स्पष्ट शब्दों में कहने से कतराते हैं। सो, पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विएतनाम में कहा कि भारत के एक पड़ोसी देश ने जिहादी आतंकवाद को एक्स्पोर्ट करना अपना सबसे अहम हुनर बना रखा है। यह कहते हुए शायद उनके मन में कश्मीर घाटी में फैली वर्तमान अशांति थी। यह सही है कि पाकिस्तान इस अशांति को फैलाने में अलगवादी गुटों की मदद कर रहा है, लेकिन यह भी सच है कि कारण और भी हैं, जो कश्मीर घाटी में इस्लाम की बदलती शक्ल की वजह से पैदा हुए हैं। कश्मीरी इस्लाम को बदलने का काम लंबे अरसे से चल रहा है।

दिल्ली में बैठे राजनेता मानें या ना मानें, कश्मीर घाटी के राजनेता अच्छी तरह जानते हैं कि कट््टरपंथी इस्लाम की शुरुआत हुई थी कोई तीस वर्ष पहले, जब जमात-ए-इस्लामी के हाथों में अचानक सऊदी अरब से बहुत पैसा आना शुरू हो गया था। जमात ने इस पैसे को इस्तेमाल किया वहाबी इस्लाम के प्रचार में, सो जहां कभी कश्मीर की मस्जिदों में औरतों को नमाज पढ़ने की इजाजत हुआ करती थी, आज बेहिजाब औरतें बहुत कम दिखती हैं। इस कट्टरपंथी इस्लामी मुहिम का असर यह भी हुआ कि श्रीनगर के सारे सिनेमा बंद हो गए थे और साथ में शराब की दुकानों और विडियो की दुकानों को भी जबर्दस्ती बंद कराया जिहादी गुटों ने।

यह सब मैंने अपनी आंखों से देखा नब्बे के दशक में। तब कश्मीर पर किताब लिख रही थी मैं और अक्सर वहां जाया करती थी। धीरे-धीरे जिहादी इस्लाम का असर अलगाववादी नेताओं में भी दिखने लगा, सो बुरहान वानी अल्लाह का नाम लेते हुए दिखता है उस वीडियो प्रचार में, जो उसने इंटरनेट पर डाला और जिसके कारण वह कश्मीर घाटी का सबसे बड़ा हीरो भी बना। आजादी का आंदोलन जब शुरू हुआ था 1989 के आखिरी दिनों में तो उसका नेतृत्व यासीन मलिक जैसे सेक्युलर लोग कर रहे थे।

भारत की समस्या यह है कि जिहादी विचारधारा का असर आज देश भर में दिखता है, सिर्फ कश्मीर घाटी में नहीं। मेरी मुलाकात महाराष्ट्र और तमिलनाडु के शहरों में ऐसे मुसलमानों से हुई है, जिन्होंने अपना लिबास तक बदल डाला है इस्लाम के नाम पर। महाराष्ट्र के देहातों में देखी है मैंने उर्दू शाला, जहां मुसलमान जाते हैं उर्दू सीखने इस्लाम से जुड़ने की कोशिश में। ये वही लोग हैं जो कल तक मराठी बोलते थे और जिनका लिबास बिल्कुल गांव के हिंदुओं जैसा होता था। जिहाद के जानकारों का मानना है कि जिहादी विचारधारा का पहला असर दिखता है जब लिबास बदलने लगते हैं मुसलमान, मर्द दाढ़ी रखना शुरू करते हैं और महिलाएं हिजाब से अपना चेहरा ढकने लगती हैं।

भारत के लिए बहुत जरूरी है कट््टरपंथी विचारों को हराना, क्योंकि जिस इस्लाम को हमने सदियों से देखा है इस देश में वह इतना उदारवादी था कि उसमें वहाबी सोच की झलक तक नहीं मिलती थी। इस भारतीय इस्लाम ने पैदा किए गालिब, मीर और इकबाल जैसे शायर, जिन्होंने अपने मजहब के रहनुमाओं से ऐसे सवाल किए, जो वहाबी कभी नहीं करने की इजाजत देते हैं। भारत के हित में है उदारवादी इस्लाम को जिंदा रखना, लेकिन हमारे राजनेता अभी समझे नहीं हैं कि किस तरह इस इस्लाम की हिफाजत की जा सकती है। सो, एक तरफ हैं हिंदुत्ववादी जो इस्लाम को पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं और दूसरी तरफ हैं सेक्युलरवादी, जो मानते हैं कि कट्टरपंथी हिंदुत्व और जिहादी इस्लाम में कोई अंतर नहीं है। भारत के इन रखवालों के बस में ही नहीं है जिहादी इस्लाम को पराजित करना।

भारत की समस्या यह है कि जिहादी विचारधारा का असर आज देश भर में दिखता है, सिर्फ कश्मीर घाटी में नहीं। मेरी मुलाकात महाराष्ट्र और तमिलनाडु के शहरों में ऐसे मुसलमानों से हुई है, जिन्होंने अपना लिबास तक बदल डाला है इस्लाम के नाम पर।