छोटी-सी खबर छपी थी अखबारों में पिछले सप्ताह, लेकिन पढ़ते ही मैं चौंक गई। खबर थी कि मोदी सरकार ने फैसला किया है कि देश भर में संस्कृति स्कूल बनाए जाएंगे, ताकि हमारे बड़े साहब जब दिल्ली से ट्रांसफर होकर किसी राज्य की राजधानी में जाएं, तो उनके बच्चों की पढ़ाई को कोई नुकसान न पहुंचे। खबर में यह भी लिखा था कि हमारे आला अधिकारी दिल्ली छोड़ना इसलिए नहीं पसंद करते हैं कि यहां संस्कृति स्कूल है, जहां शिक्षा इतने ऊंचे स्तर की है कि वहां से केंद्रीय विद्यालों में जाना उनके बच्चों को अच्छा नहीं लगता। यही वजह है कि केंद्र सरकार के कई अधिकारी अपने परिवार दिल्ली में ही छोड़ कर अकेले चले जाते हैं लखनऊ, भोपाल या जयपुर। फिर समस्या यह भी है कि बिना बाल-बच्चों के इनका दिल नहीं लगता नए शहर में।
अब सुनाती हूं आपको संस्कृति स्कूल की कहानी, इस उम्मीद से कि जब आप सुनेंगे तो शायद आपको इन अधिकारियों पर तरस आने के बदले गुस्सा आएगा।

संस्कृति स्कूल दिल्ली में 1998 में बनाया गया था जनता के पैसों से जनता की जमीन पर और जब इस स्कूल में अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी नवासी को भेजा तो इसकी शोहरत इतनी बढ़ गई कि शायद ही कोई राजनेता या आला अधिकारी रह गया है दिल्ली में जो अपने बच्चे या अपने पोते-दोहते इस स्कूल में दाखिल न करा चुका हो। वर्तमान स्थिति यह है इस स्कूल की कि अगर कोई आम इंसान अपने बच्चों को यहां भेजना चाहे तो तभी यह मुमकिन होता है जब किसी नेता या बाबू की सिफारिश हाथ में हो। लंबी पहुंच के बिना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है दाखिला लेना।

जब देश पर राज था भारत के राजघराने का, तो इस तरह की संस्कृति-सभ्यता हम चुपके से बर्दाश्त कर लिया करते थे, लेकिन अब प्रधानमंत्री की जगह प्रधान सेवक हैं, सो क्यों जनता के सेवकों की सुविधा के लिए कई सारे संस्कृति स्कूल बनाने का फैसला किया है केंद्र सरकार ने? इस सवाल का जवाब जानने के लिए मैंने फोन किया मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को, तो मालूम हुआ कि उनके मंत्रालय ने ऐसा फैसला नहीं किया है, बावजूद इसके कि शिक्षा नीति इस मंत्रालय की जिम्मेवारी है। स्मृतिजी ने बल्कि यह भी बताया कि उन्होंने अपने बच्चों को संस्कृति स्कूल में नहीं डाला है, क्योंकि उनको बिल्कुल पसंद नहीं है इस किस्म की ‘इलीट’ शिक्षा। ‘मेरे बच्चे पढ़ते हैं एक मध्यवर्गीय स्कूल में और मैं अपनी तरफ से केंद्रीय विद्यालयों को बेहतर बनाने की हर कोशिश कर रही हूं।’

थोड़ी और तहकीकात करने के बाद मालूम हुआ कि संस्कृति स्कूलों की संख्या बढ़ाने का फैसला आया है भारत सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से। इस विभाग की वेबसाइट पर गई तो परिवर्तन और विकास की खूब चर्चा मिली, लेकिन संस्कृति स्कूलों के निर्माण का जिक्र तक नहीं। यह अच्छी बात है, क्योंकि अगर इस योजना की अभी तक शुरुआत भी नहीं हुई है, तो प्रधानमंत्रीजी प्लीज इसको अभी से रुकवा दें और एक नई शिक्षा नीति की तैयारी में व्यक्तिगत तौर पर दखल दें।
नई शिक्षा नीति इसलिए जरूरी है कि सोनिया-मनमोहन सरकार के दौर में जो शिक्षा का अधिकार कानूनी तौर पर दिया गया, वह पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। भारत के बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने का मकसद था गरीब बच्चों को उत्तम स्तर के स्कूलों में आसानी से दाखिल होने का हक और सरकारी स्कूलों को भी बेहतर बनाना। ऐसा हुआ नहीं है। उलटा यह हुआ कि कोई दस हजार प्राइवेट स्कूलों को बंद करना पड़ा, क्योंकि वे नए नियम पूरा नहीं कर पाए। जो प्राइवेट स्कूल बचे हैं उनमें पच्चीस फीसद सीटें आरक्षित तो हैं कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए, लेकिन सीटों का इतना अभाव है कि इसमें भी हेरा-फेरी चल रही है। रही बात सरकारी स्कूलों के बेहतर होने की, तो ऐसा कहीं पर नहीं हुआ बावजूद इसके कि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की तनख्वाह आजकल इतनी बढ़ गई है कि वे प्राइवेट स्कूलों से ज्यादा पाते हैं कई राज्यों में।

नई शिक्षा नीति का लक्ष्य होना चाहिए देश भर में सरकारी स्कूलों का स्तर केंद्रीय विद्यालयों तक पहुंचाना। मुश्किल नहीं है यह, क्योंकि अगर कुछ सरकारी स्कूल इतने अच्छे हो सकते हैं तो क्यों नहीं सारे अच्छे हो सकते हैं। स्मृतिजी से जब मेरी बात हुई तो उन्होंने यह भी बताया कि केंद्रीय स्कूलों के बच्चे इन दिनों प्राइवेट स्कूलों के बच्चों से अच्छा करते हैं परीक्षाओं में। नई नीति का दूसरा लक्ष्य होना चाहिए शिक्षा विभाग में लाइसेंस राज का खात्मा। इस लाइसेंस राज के होते हुए अधिकारियों को इजाजत है शिक्षा संस्थाओं के हर काम में टांग अड़ाने की और इससे खुल जाते हैं भ्रष्टाचार के कई दरवाजे। समस्या यह भी है कि लाइसेंस उन्हीं को मिलते हैं, जिनकी लंबी पहुंच है, तो शायद ही कोई राजनेता है आज, जिसको स्कूल या कॉलेज खोलने के बहाने महंगी से महंगी सरकारी जमीन न मिल गई हो।

गरीबी हटाने के लिए सबसे शक्तिशाली औजार अगर है कोई तो वह है शिक्षा, लेकिन इस औजार को हमारे शासकों ने गरीबों को इसलिए शायद नहीं दिया है कि जब गरीबी रेखा से ऊपर उठ कर आते हैं मध्यवर्ग में मतदाता, तो बहुत सोच-समझ कर वोट देते हैं। वरना क्या कारण है कि भारत जैसे समाजवादी देश में अभी तक अशिक्षित हैं करोड़ों गरीब लोग? अन्य समाजवादी देशों में सबसे बड़ी सफलताएं दिखती हैं शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में।