पिछले सप्ताह जब सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं को गुजारा भत्ते का वही हक है, जो इस देश की बाकी औरतों को है, मुझे निजी तौर पर खुशी हुई। सुनिए क्यों। कुछ साल पहले मैं जयपुर के एक बड़े पुलिस थाने गई थी किसी हादसे के बारे में जानकारी लेने। गर्मी का मौसम था, तेज धूप थी और थाने के बाहर एक कमजोर-सी औरत दिखी, जिसके साथ एक छोटी बच्ची थी। बच्ची धूप की वजह से परेशान थी और रो रही थी, तो मैंने उसकी मां से पूछा कि इतनी छोटी बच्ची को लिए वह धूप में क्यों खड़ी है। उसका जवाब ये था- ‘मुझे मेरे शौहर ने घर से निकाल दिया है, इसलिए कि उसने दूसरी शादी कर ली है। मैं यहां आई हूं पुलिस की मदद मांगने।’
पुलिस को देखते ही पति महिला को घर आने दिया
मैंने पहले एक पास वाले रेस्तरां में दोनों को ले जाकर खाना खिलाया और उनकी कहानी सुनी। उस औरत ने बताया कि कोई चार साल पहले उसकी शादी हुई थी एक ऐसे आदमी से, जिसकी पहले से एक बीवी थी। उसके मां-बाप ने उसकी शादी करवाई इसके बावजूद। इसके भी बावजूद कि आदमी उनकी बेटी से उम्र में काफी बड़ा था। कारण वही जो अक्सर होता है- गरीबी। आगे सुनिए, उसके शब्दों में। ‘कुछ साल हम खुश थे। लेकिन मेरी बेटी होने के बाद उसने कहना शुरू कर दिया कि वह दूसरी औरत लाएगा, ताकि उसका बेटा हो। आज उसने मुझे घर से बाहर निकाल दिया। अब समझ में नहीं आता है कि जाऊं कहां?’ यह सब सुनने के बाद मैं उस औरत के साथ थाने के अंदर गई और शिकायत लिखवाई। इसके बाद हमारे साथ एक पुलिसवाला आया उसके घर और उसके पति ने पुलिस को देखते ही अपनी बीवी को वापस घर में आने दिया। मैंने उस औरत को अपना नंबर दिया और कहा कि अगर दुबारा उसको निकाला जाता है, तो मुझे फोन करे।
ऐसा नहीं कि सिर्फ मुसलिम महिलाओं को इस तरह घर से निकाला जाता है, लेकिन जब कोई हिंदू लड़की के साथ ऐसा होता है तो कानून उसकी रक्षा करता है। किसी न किसी तरह न्याय मिलता है उसे और गुजारा भत्ता भी मिल जाता है, चाहे लड़ कर लेना पड़े। मुसलिम महिलाओं को नहीं मिलता है सिर्फ इसलिए कि राजीव गांधी ने कट्टरपंथी मौलवियों और मुसलिम नेताओं के कहने पर मुसलिम मर्दों को गुजारा भत्ता देने से आजाद किया इस आधार पर कि शरीअत में तलाक के बाद सिर्फ तीन महीनों तक देने का प्रावधान है। उस समय भी सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पति की याचिका को खारिज करते कहा था कि उसके पति को शरीअत से नहीं, बल्कि देश के कानून के तहत चलना है। राजीव गांधी ने इस फैसले के विरोध में संसद में मुसलिम पर्सनल ला पारित किया था 1986 में।
मेरी सहानुभूति उस समय भी शाह बानो के साथ थी। हुआ यह कि इंदौर गई थी किसी दूसरी वजह से, लेकिन मालूम पड़ा कि शाह बानो का घर पास में ही है, तो उसे मिलने गई। उसकी कहानी सुनी और उसकी फोटो भी ली, जो पत्रकारिता के हिसाब से उसकी पहली फोटो थी। शाह बानो बासठ साल की थी जब उसके पति ने उसको तलाक देकर दूसरी शादी की और जब उसने गुजारा भत्ता लेने की जिद की, तो उसके पति ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की यह कहते हुए कि इस्लाम में तलाक देने के बाद सिर्फ तीन महीनों की इद्दत में उसकी जिम्मेदारी रही थी। अब शाह बानो और उसके बच्चों की जिम्मेदारी उसकी नहीं है।
अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर फैसला सुनाया है कि जो हर तलाकशुदा भारतीय महिला के अधिकार हैं, वही मुसलिम महिलाओं को भी मिलेंगे। आज देश इतना बदल गया है कि कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता इस फैसले का विरोध नहीं करेगा। अच्छा फैसला सुनाया है न्यायालय ने। धर्म के नाम पर जब कोई गलत काम होता है, तो उसका विरोध करना जरूरी है, वरना आज भी इस देश में नाबालिग लड़कियों की शादियों की प्रथा जायज होती और शायद सती प्रथा भी। ऐसा नहीं कि भारत की महिलाओं का जीवन अब स्वर्ग बन गया है, लेकिन प्रयास तो किया गया है कानूनी और सामाजिक तौर पर उन गलत प्रथाओं को समाप्त करने का, जो सदियों से चली आ रही थी धर्म-मजहब के बहाने।
जरूरत सामाजिक परिवर्तन की भी है बहुत बड़े पैमाने पर। पिछले सप्ताह खबर मिली हरियाणा से कि किसी बाप ने अपनी दो जुड़वां बेटियों की हत्या कर दी केवल इसलिए कि उसको बेटा चाहिए था। इस दरिंदगी की खबर उसके साले ने पुलिस तक पहुंचाई, लेकिन समझना मुश्किल है कि इन मासूम बच्चियों की मां ने क्यों नहीं उनको जिंदा रखने की कोशिश की। क्या इसलिए कि उसके पति के परिवार ने उस दरिंदे का साथ दिया था, उस मां का नहीं? अजीब नफरत है अपने देश में लड़कियों से। कभी उनको मार दिया जाता है पैदा होने से पहले, तो कभी उनको पैदा होने के फौरन बाद। जीवित जो रहती हैं, उनकी शादियां अक्सर छोटी उम्र में करवा दी जाती हैं और ऐसा करने के लिए उनको शिक्षा से दूर रखा जाता है।
सबसे बदनसीब हैं वे छोटी बच्चियां, जिनके साथ दुष्कर्म उनके परिवार वाले ही करना शुरू करते हैं। उससे भी बदनसीब हैं वे बच्चियां, जिनको दरिंदे अगवा करके उनके साथ जबर्दस्ती करने के बाद उनको इतनी बर्बरता से मार डालते हैं कि इन हादसों के बारे में मेरे लिए पढ़ना भी मुश्किल है। बहुत कुछ अभी करना बाकी है, लेकिन जो कदम पिछले सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने उठाया है, वह कम से कम सही दिशा में है। मेरी तरफ से सर्वोच्च न्यायालय को तहेदिल से सलाम।
