उत्तर प्रदेश के शाही परिवार में जो अंदरूनी जंग पिछले हफ्ते सामने आई उसके हर पहलू पर दम लगा कर राजनीतिक पंडितों ने चर्चा की। शिवपाल यादव किससे मिलने किस समय गए। अखिलेश यादव इस जंग का दोष किस पर डाल रहे हैं। मुलायम पितामह किसकी तरफ मुलायम हो रहे हैं। उनके कौन से भाई सुलह करवाने किससे मिलने गए हैं। बड़ी-बड़ी लाल बत्ती वाली गाड़ियों के बड़े-बड़े काफिले हमने लखनऊ की भीगी सड़कों पर देखे तामझाम से गुजरते हुए और देर रात को शिवपाल यादव की आलीशान कोठी के बुलंद फाटकों के सामने रोते हुए उनके समर्थक भी देखे। लेकिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शब्दों में ‘अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद’।

क्या है वो अनकही बात? यही कि जिस देश को गर्व है अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली पर उस देश में हमने अपने सबसे बड़े प्रदेश को एक छोटी, घटिया रियासत में तब्दील होने दिया है पिछले पांच वर्षों में और हम चुप रहे। इसलिए शायद कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक परिवारवाद ने असली लोकतंत्र की जगह हड़प ली है बरसों से, या इसलिए शायद कि हम राजनीतिक पंडितों में भी परिवारवाद को लेकर खास एतराज नहीं है। हम इतने आदी हो गए हैं परिवारवाद को लोकतंत्र की जगह लेते हुए देखते कि आजकल राजनीतिक वारिसों को बेझिझक ‘लीडर’ कहते हैं। हमको दिखता ही नहीं है कि परिवारवाद दीमक की तरह लोकतंत्र को अंदर से खोखला बना चुका है।

इस दीमक की पहली झलक तब दिखी जब आपातकाल की आड़ लेकर इंदिरा गांधी ने अपने बेटे संजय गांधी को अपना वारिस बनाया था। संजय के देहांत के बाद राजीव बने इंदिराजी के वारिस और राजीव की हत्या के बाद उनकी विदेशी पत्नी बनीं उनकी वारिस और अब उन्होंने अपना वारिस बनाया है अपने बेटे को और मुमकिन है यह सिलसिला प्रियंका तक पहुंचे और उनके बाद उनके बच्चों तक भी। जब देश का सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार यह प्रथा शुरू कर सकता है, तो क्यों न इसकी नकल और भी छोटे-मोटे राजनेता करें? नतीजा यह हुआ है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक परिवारवाद की बीमारी फैल चुकी है। संसद से लेकर पंचायतों तक इसका असर दिखता है, तो राजनीतिक पंडितों ने इस पर टिप्पणी करना ही बंद कर दिया, यह भूलते हुए कि लोकतंत्र का विलोम है परिवारवाद।

इस बात को चूंकि मैं बार-बार कहती हूं अपने लेखों में, तो जूते भी मुझे बार-बार खाने पड़ते हैं उन लोगों से, जो मेरी इस बात से सहमत नहीं हैं कि भारतीय लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा है अगर तो परिवारवाद से। उनका कहना है कि जब तक जनता ऐसे लोगों को वोट देती है तब तक हमको स्वीकार करना होगा कि जनता को परिवारवाद से कोई एतराज नहीं है। अक्सर ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं उन बुद्धिजीवियों से, जो कभी चुनाव में दिल्ली और मुंबई के अति-सुरक्षित सीमाओं के बाहर जाने की तकलीफ नहीं करते। सो, उनको कभी दिखते नहीं हैं मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली, जिनके बल पर, जिनकी दहशत से बड़े-बड़े नेता चुनाव जीतते हैं।

बात जब आ ही गई है लालू यादव के इस हाल में रिहा हुए साथी की, तो बिहार की भी कुछ बातें कर लेना मुनासीब होगा। नीतीश कुमार ने कई महीनों से स्पष्ट कर दिया है कि बिहार को उन्होंने लालू यादव और उनके बेटों के हवाले कर दिया है, ताकि वे अपनी दिशा दिल्ली की तरफ कर सकें। सो, उन दोनों राज्यों में जिनमें सबसे ज्यादा जरूरत है सुशासन और विकास की, वहां बन गई हैं रियासतें, जिनमें शासन की जगह ले ली है राजघरानों ने। बिहार में लालू यादव और उनके बेटे बेशक चुनाव जीत कर आए हों, लेकिन यथार्थ यह है कि उनकी असली ताकत आती है ऐसे लोगों से, जो चुनाव जितवाने में माहिर हैं। कई तरीके होते हैं लोगों से वोट दिलवाने के उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, जहां ज्यादातर वोट डालने वाले अशिक्षित और गरीब हैं।

ऊपर से यह भी याद रखना चाहिए कि जब किसी अनजान प्रत्याशी के विरोध में खड़ा होता है कोई ऐसा व्यक्ति जिसका नाम सब जानते हैं, जिसकी शक्ल सब पहचानते हैं तो दौड़ में वह शुरू से आगे रहता है। बल्कि यह भी कहना गलत न होगा कि बड़े-बड़े राजनेता हार सकते हैं किसी प्रसिद्ध, लोकप्रिय हस्ती के सामने। यह बात पहली बार तब साबित हुई, जब अमिताभ बच्चन ने हेमवती नंदन बहुगुणा को 1984 में ऐसे पराजित किया जैसे वे कोई मामूली राजनेता थे़, उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े राजनेता नहीं। इसको देख कर फिल्मी दुनिया के अन्य चमकते सितारे भी राजनीतिक जमीन पर उतर कर आए और तकरीबन हर बार जीते, बावजूद इसके कि न उनको राजनीतिक मुद्दों की कोई समझ थी न लोगों की समस्याओं की चिंता।

फिल्मी सितारे अगर जीत सकते हैं चुनाव, तो क्यों नहीं नेताजी के बेटे-बेटियां? लेकिन अंजाम आखिर में वही होता है, जो उत्तर प्रदेश में हो रहा है अभी, यानी सरकार और परिवार के बीच जो सीमाएं होनी चाहिए वे अदृश्य हो जाती हैं और बिल्कुल वैसे जैसे पुराने जमाने में संयुक्त परिवारों में झगड़े होते थे, वैसे ही घरेलू झगड़े राजनीतिक पोशाक पहन कर ऐसे पेश आते हैं कि देश के महान पंडित इनका विश्लेषण करने में लग जाते हैं। सो, हमने सुना उनसे पिछले हफ्ते कि जहां अखिलेश समाजवादी पार्टी का नौजवान चेहरा हैं, वहां शिवपाल यादव संगठन को मजबूत करने में उनसे ज्यादा अनुभवी हैं आदि। एक-दो ही लोग थे, जिन्होंने इशारा किया कि एक घरेलू मामला राजनीतिक बन गया है और शायद असली समस्या है कि पितामह मुलायम की दूसरी पत्नी अपने बेटे को आगे बढ़ाना चाहती हैं। जो भी हो, दो आंसू उत्तर प्रदेश की गरीब जनता के लिए आज बहा दें आप भी।