पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में संघ की जैसी प्रशंसा की, उसे लेकर चैनलों में देर तक बहस होती रही। एक कहिन कि लालकिले से संघ का नाम नहीं लेना था, तो दूसरा कहिन कि संघ के ‘कार्यकर्ता’ से यही उम्मीद थी, तीसरा कहिन कि आजादी की लड़ाई में संघ ने भाग नहीं लिया तो चौथा बोला कि उस पर कई बार पाबंदियां लगीं…।

आरोपों के जवाब में संघ पक्ष गर्व से बोला कि बड़े-बड़े संगठन निपट गए, लेकिन संघ बना रहा और बढ़ता रहा। जब-जब राष्ट्र पर संकट आया, संघ ने उबारा। नेहरू ने परेड में बुलाया, इंदिरा ने सावरकर की तारीफ की… प्रणव मुखर्जी संघ के कार्यालय गए..। उधर, संसद न चलनी थी, न चलने दी गई। अंतिम दिन लोकसभा अध्यक्ष ने कहा कि संसद सिर्फ तीस फीसद चली…यह ‘नियोजित व्यवधान’ के कारण हुआ। सत्र के लिए कुल 222 करोड़ खर्च हुए, लेकिन काम एक तिहाई हुआ..।

अगर संसद में बहस नहीं करनी, तो चुन कर क्यों आते हैं

एक सांसद कहिन कि संसद न चलने देने के लिए सत्ता और विपक्ष बराबर के दोषी हैं। अगर संसद में बहस नहीं करनी, तो चुन कर क्यों आते हैं। बहसें सुन कर लगता है कि सत्ता की जिम्मेदारी है संसद चलाना जबकि विपक्ष का काम है ‘ब्रेक’ लगाना..। लेकिन विपक्ष पर ऐसे आरोप हमें कुछ जंचते नहीं, क्योंकि संसद ‘भवन’ में न सही, विपक्ष की संसद के बाहर तो चलती ही है। विपक्ष के सांसद ‘भवन’ छोड़ सड़क पर धूप-ताप सहते अपने ऐसे पोस्टरों-नारों से ‘बहस’ चलाते तो हैं कि ‘एसआइआर’ बंद करो… वोट चोरी बंद करो..। फिर कहां संसद भवन की एसी की हवा और कहां संसद के गेट के बाहर खुली हवा और सावन-भादो की फुहारें..।

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फिर सांसदों का अपनी युवावस्था में लौट कर सड़क की राजनीति करने का अभ्यास करना..। ऐसे ही घमासान के बीच, विपक्ष के ‘वोट चोरी’ के आरोपों का जबाव देते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ने संवाददाता सम्मेलन के जरिए अपना पक्ष रखा और मीडियाकर्मियों के सवालों का जवाब देते हुए बताया कि आयोग किस तरह ‘पारदर्शिता’ से और नियमानुसार काम करता है कि आरोप ‘स्वयं प्रमाण’ हैं कि ‘एसआइआर’ क्यों जरूरी है… ‘एसआइआर’ से ही मालूम हुआ कि बिहार में इतने लाख वोट ‘जाली’ हैं… कि अगर किसी को शिकायत है, तो वह आयोग को लिख सकता है।

महाराष्ट्र में ‘वोट चोरी’ का आरोप लगाने वाले विपक्ष के नेता से उन्होंने कहा कि वे सात दिन में हलफनामा भर कर शिकायत करें, नहीं तो देश से माफी मांगें। विपक्ष के एक नेता ने इसका यही जवाब दिया कि मैं जन प्रतिनिधि हूं। मेरा कहा ही मेरा ‘हलफनामा’ है..। यानी ‘मेरा वचन गीता की कसम’, कि ‘तू डाल-डाल तो मैं पात-पात…’ और, फिर वही ‘धमकी’ कि हम सत्ता में आए तो देख लेंगे…तलवारें तनी हैं..। ‘चोरी हो गई…वोट की चोरी हो गई’…वाला ‘नारा’ अब समूहगान में बदल कर सीधा हो गया दिखता है! विपक्ष के एक नेता तो अपनी ‘मतदाता अधिकार यात्रा’ में अब सीधे नारे लगवाने लगे हैं। अब बच्चा भी कहने लगा है कि वोट चोर गद्दी छोड़… फिर एक नाम लेकर कहते दिखा कि फलां वोट चोर..।’

बहस में एक चर्चक क्षुब्ध होकर कहता दिखा कि चुनाव आयोग क्यों नहीं ऐसे आरोप लगाने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराता? कई दूसरे भी कसमसाते दिखे कि सत्ता पक्ष ऐसे आरोपों पर कोई कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं करता..। आती खबरों और बहसों में पक्ष-विपक्ष एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं। एक-दूसरे को ‘वोट चोर’ कहते रहते हैं, तो दूसरे, ‘वोट चोर कहने वालों’ पर प्रत्यारोप लगाते रहते हैं कि आप पचास बरस तक जीते या कर्नाटक, हिमाचल, तेलंगाना में जीते तो क्या ‘वोट चोरी’ से जीते… अतीत में हम हारते रहे, लेकिन हमने कभी ‘वोट चोरी’ की शिकायत न की। बिहार में अपनी आसन्न हार को देख ये ऐसे आरोप लगा रहे हैं। जबकि हमारा संगठन है, हम काम करते हैं।

जनता वोट देती है, इसलिए खिसियाए हैं। और अब तो हालात ये हैं कि वोट चोरी का आरोप लगाने वाले खुद कहने लगे हैं कि अगर हमारी बात गलत है तो आपने भी वही मुद्दा क्यों उठाया। वोट चोरी के आरोपों की जांच होनी चाहिए। हम तैयार हैं, आप भी इस पर तैयार हो जाएं। ऐसी ही बहस में एक ने कहा कि भइए! ये तब तक शांत नहीं होने के, जब आप इनको सारे चुनाव जितवा कर गद्दी नहीं सौंप देते। चोर-चोर और चोरी-चोरी के ऐसे ‘चोर सीजन’ में ऐसा लगता है कि इस दुनिया में सब वोट चोर..!