अमेरिका के एक राष्ट्रपति ने राजनीति के बारे में कभी कहा था कि रसोई के ताप से जो डरते हैं, उनको रसोई से निकल जाना चाहिए। यानी राजनीति में आने वालों को महाकाया की जरूरत है। मगर अक्सर राजनेताओं की काया इतनी नाजुक होती है कि आलोचना का छोटा तीर भी छेद कर देता है। जो कहने जा रही हूं इस बात को ध्यान में रख कर कहूंगी। मेरे अनुभव में दो भारतीय राजनेता हैं, जिनके खिलाफ लिखना मुसीबत मोल लेने के बराबर है। इनके नाम हैं नरेंद्र मोदी और सोनिया गांधी।

प्रधानमंत्री की किसी नीति का विरोध करने की जो हिम्मत दिखाता है, उसको भारतीय जनता पार्टी की सोशल मीडिया की ट्रोल सेना का सामना करना पड़ता है, जो आलोचक के माथे पर चिपका देते हैं राष्ट्रद्रोह का आरोप-पत्र। कोई इत्तेफाक नहीं कि तकरीबन हर निजी टीवी चैनल पर प्रधानमंत्री के खिलाफ कम ही लोग बोलते हैं। कोई इत्तेफाक नहीं कि मुट्ठी भर पत्रकार ही रह गए हैं, जो मोदी के खिलाफ लिखने की हिम्मत दिखाते हैं।

सोनिया गांधी के दौर में तकरीबन ऐसा ही हुआ करता था। उनके बेटे के खिलाफ लिखने वाले बहुत सारे थे, उनके नियुक्त किए गए प्रधानमंत्री के बारे में लिखने वाले बहुत सारे पत्रकार थे, लेकिन सोनिया गांधी के खिलाफ बहुत कम लेख छपते थे। उस दौर में भी मीडिया को नियंत्रण में रखा गया था, फर्क इतना था कि सोनिया के दौर में देश के बड़े संपादकों और टीवी पत्रकारों को काबू में रखती थीं सोनिया जी, उनको चाय पर बुला कर, उनकी सलाह लेने का ढोंग करके।

अब भी शायद दस जनपथ की चाय का स्वाद भूले नहीं हैं देश के कई राजनीतिक पंडित, वरना जब पिछले सप्ताह कांग्रेस पार्टी में पहली बार सोनिया के नेतृत्व का विरोध दिखा, तो सोनिया गांधी के नेतृत्व पर कुछ अहम सवाल उठाने का काम अवश्य किया होता। ऐसा नहीं कि विश्लेषण नहीं हुआ है, लेकिन ऐसा जरूर है कि वे प्रश्न नहीं पूछे गए हैं, जो पूछे जाने चाहिए थे।

मेरी राय में इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि सोनिया गांधी के दौर में कांग्रेस पार्टी क्यों एक निजी कंपनी बन कर रह गई है। कई लोग मानते हैं कि दोष सोनिया जी का नहीं है, इसलिए कि यह काम शुरू किया था इंदिरा गांधी ने, जब इमरजेंसी की शरण लेकर उन्होंने अपने बेटे के हवाले न सिर्फ इस राजनीतिक दल को कर दिया था, देश का शासन भी संजय गांधी के हवाले कर दिया था। यह बात सच जरूर है, लेकिन यह भी सच है कि इसके बावजूद कई ताकतवर मंत्री और मुख्यमंत्री रह गए थे कांग्रेस में।

सोनियाजी जबसे 1997 में बनी हैं कांग्रेस की अध्यक्ष, ऐसे लोग ही रहे हैं इस राजनीतिक दल में, जिनका कद गांधी परिवार से नीचा हो। जब नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद सोनिया गांधी का कहना मानना बंद किया, तो उनको हर तरह से जलील किया गया, यहां तक कि उनके पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शन के लिए कांग्रेस मुख्यालय में नहीं रखा जाने दिया गया था।

सोनिया गांधी ने जब प्रधानमंत्री पद को ठुकराया था 2004 में, उनकी छवि त्याग की देवी की बन गई थी, लेकिन वास्तव में उन्होंने सिर्फ जवाबदेही त्यागी थी। सो, प्रशासनिक गलतियों का दोष उनको कभी नहीं मिला, लेकिन पूरा देश जानता था कि असली प्रधानमंत्री वही थीं। अब सबूत भी मिल गया है कि प्रधानमंत्री के दफ्तर से गुप्त सरकारी कागजात उनको भेजे जाते थे।

जब तक गांधी परिवार के नाम पर कांग्रेस चुनाव जीता करती थी तब तक किसी ने कुछ नहीं कहा। आज अगर बगावत के आसार दिखने लगे हैं, तो इसलिए कि गांधी परिवार के नाम पर दो आम चुनाव हार चुकी है कांग्रेस और आज भी इस हार का ईमानदारी से विश्लेषण नहीं होने दिया गया है।

अगर यह सिर्फ कांग्रेस पार्टी का निजी मामला होता, तो यह लेख न लिखती। समस्या यह है कि देश को एक ताकतवर विपक्ष की जितनी जरूरत आज है, शायद ही पहले कभी रही होगी। एक ऐसे दौर से गुजर रहा है देश, जिसमें अंधेरा और मायूसी ही दिखती है जिस दिशा में नजर डालो।

अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है, महामारी का जोर कम होने के बदले बढ़ रहा है, लद्दाख में हमारी सरजमीन पर बैठे हुए हैं आज भी चीनी घुसपैठिए, देश के अंदर जिहादी संस्थाएं हिंसा बढ़ा रही हैं और कश्मीर घाटी में अशांति फैल रही है। पिछले हफ्ते बडगाम से मुझे किसी ने हिंसक भीड़ का वीडियो भेजा, जिसको काबू में लाने के लिए पुलिस आंसू गैस का इस्तेमाल कर रही है।

इन समस्याओं का जिक्र तक नहीं हो रहा है टीवी चर्चाओं में, क्योंकि हम मीडिया वाले मोदी सरकार के खिलाफ बोलने से डरते हैं। लोकतंत्र के चारों खंभे कमजोर हुए हैं मोदी के दूसरे दौर में। संसद में भारतीय जनता पार्टी जो चाहे कानून पारित कर सकती है, क्योंकि उसका बहुमत अब बन गया है दोनों सदनों में। सर्वोच्च न्यायालय पर सरकार का इतना दबाव दिखता है कि कश्मीर घाटी से जुड़े कई अहम फैसले मोदी सरकार के पक्ष में गए हैं।

मैं न कभी सोनिया गांधी की समर्थक रही हूं और न कांग्रेस पार्टी की, लेकिन फिर भी चाहती हूं कि कांग्रेस में अंतर्मंथन हो, ताकि देश को एक मजबूत विपक्षी दल मिल सके। सवाल सिर्फ नेतृत्व का नहीं, सवाल है उन सिद्धांतों का भी, जिनके होने के कारण कांग्रेस दशकों तक सत्ता में डट कर रह सकी है। सेक्युलर और उदारवादी सोच को भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता रोज गाली देते हैं, लेकिन इनकी जरूरत है भारत में बहुत ज्यादा। कांग्रेस को दुबारा बनना पड़ेगा इन विचारों का प्रतीक।