बीते शुक्रवार ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने खुलासा किया था कि उनके देश पर गंभीर और परिष्कृत साइबर हमलों का सिलसिला कई महीनों से चल रहा है। ये हमले सुनियोजित ढंग से सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं पर किए जा रहे रहे, जिससे आवश्यक सेवाएं और कारोबार पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
हालांकि ये हमले अभी तक कामयाब नहीं हो पाए हैं, पर प्रधानमंत्री ने सभी संबंधित संस्थाओं को बेहद चौकस रहने की हिदायत दी है। मॉरिसन के अनुसार यह आक्रामक साइबर कार्रवाई कुछ मुट्ठी भर लोग नहीं कर रहे, बल्कि ऑस्ट्रेलिया को एक देश निशाने पर लिए हुए है। उनका इशारा चीन की तरफ था जो ऑस्ट्रेलिया द्वारा कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर अंतरराष्ट्रीय जांच के प्रस्ताव को लेकर उससे नाराज है। नाराजगी के अलावा चीन शायद आॅस्ट्रेलिया को अपनी क्षमता दिखाना चाहता है।
दूसरी ओर हांगकांग मसले पर ब्रिटेन के बयान पर भी पिछले हफ्ते चीन ने उसे धमकाया था और कहा था कि अगर वह चीन की नीति के साथ कदमताल करने से कतराता है तो उसके परिणाम उसे भुगतने पड़ेंगे। चीन शायद अंग्रेजों को याद दिला रहा था कि अगर वह चाहे तो वास्तविक रूप में उनकी बत्ती गुल कर सकता है। ब्रिटेन के परमाणु विद्युत उत्पादन में चीन का बड़ा निवेश है और वह जब चाहे उसका ‘स्विच आफ’ कर सकता है।
यह सब चल ही रहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भूतपूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सलाहकार जॉन बोल्टन ने अपनी नई किताब में खुलासा किया कि ट्रंप ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से जून 2019 में ग्रुप- 20की बैठक के दौरान ‘गुजारिश’ की थी कि वे उन्हें दोबारा चुनाव जीतने में मदद करें। अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह निवेदन किया था कि चीन के पास वह आर्थिक ताकत और संसाधन है, जिनसे अमेरिका में मतदान प्रभावित हो सकता है। मजे की बात यह है कि इस तरह का कातर निवेदन करने वाला वह अमेरिकी था जो अपने बल और चौड़े सीने की डींगे हांकने से कभी बाज नहीं आता है। साथ ही ट्रंप देशहित और राष्ट्रवाद- ‘अमेरिका फर्स्ट’, ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का दम भरने से थकते नहीं हैं।
भारत के साथ चीन के तेवर को समझने के लिए इन दृष्टांतो को उल्लेख जरूरी है, क्योंकि इनके जरिये हमको चीन के वास्तविक वैश्विक प्रभाव का पता चलता है। चीन की आक्रामक और दूरगामी विदेश नीति शी जिनपिंग के कम्युनिस्ट पार्टी के 2012 में जेनरल सेक्रेटरी और फिर 2013 में देश के राष्ट्रपति बनते ही शुरू हो गई थी। उनसे पहले के नेता चीन के आर्थिक विकास की मजबूत नींव डाल गए थे और 2000 से लेकर 2010 के बीच में चीन ने विश्व व्यापार संगठन के कमजोर चार्टर का पूरा फायदा उठाते हुए दुनिया भर में औद्योगिक और आर्थिक पैठ बना ली थी। शी जब सत्ता में आए तो उनके सामने सिर्फ एक ही एजेंडा था- चीन को विश्वगुरु बनाने का।
2012 में ही शी ने अपनी अध्यक्षता में सेंट्रल लीडिंग ग्रुप आन फॉरेन अफेयर्स का गठन किया और चीन के आर्थिक निवेशों को और गहन करने के लिए दर्जनों देशों की यात्रा की। सिर्फ छह सालों यानी 2012-2018 में चीन यूरोप से लेकर अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका से दक्षिणी अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया से लेकर पाकिस्तान तक में इस तरह से घुस गया कि वे उसके सामान, तकनीकी और निवेश पर निर्भर हो गए। 2018 में शी ने सेंट्रल लीडिंग ग्रुप का स्तर बड़ा कर सेंट्रल फॉरेन अफेयर्स कमीशन का दर्जा दे दिया। इससे साफ हो गया था कि शी अपनी विदेश नीति को प्रभावी कार्रवाई में तब्दील करने में जुट गए हैं।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव उन्होंने 2013 में प्रस्तावित किया था और जब 2017 में चीन ने दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक गलियारे पर शिखर सम्मेलन आयोजित किया था तो इसमें उनतीस देशों के राष्ट्राध्यक्ष, सत्तर अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुख, दुनिया भर के सौ मंत्रीस्तरीय अधिकारी और विभिन्न देशों के बारह सौ प्रतिनिधिमंडल उपस्थित हो गए थे। आर्थिक मंदी से उबरने, बेरोजगारी से निपटने और अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए ‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना के जरिए चीन एशिया, यूरोप और अफ्रीका समेत दुनिया की साठ फीसदी आबादी को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रहा था। चीन ने बहुत बड़ा लालच दिया था, अमेरिका इसमें शामिल हो गया था और पाकिस्तान भी। भारत ने अपने को इससे दूर रखा।
भारत के प्रधानमंत्री की तरह, शी ने भी चीन के राष्ट्रपति के रूप में दूसरी पारी शुरू कर दी है। वे अब और आक्रामक हो गए हैं। कोरोना के कहर ने उनको थोड़ा झटका जरूर दिया है, विशेषकर उन परिस्थितियों में जहां स्वर उठ रहे हैं कि चीन ने दुनिया को भ्रम में रखा। कहीं-कहीं तो कोरोना के उद्गम को चीन की साजिश भी कहा जा रहा है। पर इन आरोपों से शी अत्यधिक रूप से विचलित नहीं दिख रहे हैं। वे अपने लक्ष्य को साधने में पूरी मुस्तैदी से लगे हुए हैं। एक तरह से उन्होंने विश्वव्यापी कोरोना संकट को लक्ष्य सिद्धि के अफसर के रूप में परिवर्तित कर दिया है। लद्दाख में हुई चीनी कार्रवाई साफतौर से इस ओर इंगित करती है।
भारत के पास आज सीमित विकल्प है। यह सच है कि चीन की उग्र साम्राज्यवाद के खिलाफ दुनिया के हर कोने से आवाजें उठ रही हैं। पूर्ण संबंध-विच्छेद तक की बातें हो रही हैं, पर चीन हर देश में इस तरह से घुस गया है कि उसके खिलाफ फौरन वैश्विक कार्रवाई होना संभव नहीं है। राष्ट्रपति शी अपनी इस रणनीतिक गहराई को खूब समझते हैं। शायद विगत वर्षों में किया गया सारा प्रयास इसी दिन के लिए था। वे सारे तुरुप के पत्ते लिए बैठे हैं। भारत इस शिकंजे को समझता है, पर विगत वर्षों में अठारह बार मिलने पर भी हमारा नेतृत्व अपनी छाप चीन पर नहीं छोड़ पाया है। देर बहुत हो चुकी है।
चीन, नेपाल और पाकिस्तान का गठबंधन मुंह बाए खड़ा है। लद्दाख के साथ-साथ कश्मीर घाटी पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। कूटनीति अब एक क्षीण विकल्प है। हम ‘करो या मरो’ की कगार पर हैं। हमें अपनी हिम्मत जुटानी चाहिए। सैन्य शक्ति परिक्षण के अलावा आर्थिक और तकनीकी संबंधित परीक्षण के लिए भी कमर कस लेनी चाहिए। खतरा चौतरफा है। बेलगाम चीन को थामने के लिए बल से ज्यादा विवेक की जरूरत है। इस वक्त सही परामर्श और साहसी नेतृत्व देश को मिल जाए तो जय निश्चित होगी।

