कल्पना करें कि हम एक ऐसे राष्ट्र के नागरिक हैं, जिसने अभी-अभी आजादी हासिल की है और जिसे नया संविधान बनाना है। फिर, कल्पना करें कि हम न्यायपालिका से संबंधित अध्याय लिख रहे हैं। तब मुख्य सवाल ये उठेंगे। (1) हम न्यायपालिका की स्वतंत्रता कैसे सुनिश्चित करेंगे? (2) जज होने की पात्रता क्या होगी? (3) जजों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया क्या होगी? (4) न्यायालय के अधिकार क्या होंगे, खासकर राष्ट्र और राज्यों के शीर्षस्थ न्यायालयों के?

हम इनमें से तीसरे सवाल पर गौर करें। जजों के चयन का अधिकार किसे हो- कार्यपालिका को, या (जजों के) एक कोलेजियम को, या एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को?

संविधान सभा, जिसने नवंबर 1949 में भारत के संविधान के मसविदे को मंजूरी दी थी, उसने निम्नलिखित प्रावधान किए :

अनुच्छेद 124 : सर्वोच्च न्यायालय का प्रत्येक जज राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के ऐसे जजों से सलाह-मशविरे के बाद, जिनकी राय लेना इस काम में राष्ट्रपति आवश्यक समझेंगे।

अनुच्छेद 217 में इसी तरह का प्रावधान उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों की बाबत है।
अमेरिका में, कार्यपालिका (राष्ट्रपति) को विधायिका (सीनेट) की सलाह और सहमति से जजों की नियुक्ति का अधिकार है। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा, इन दोनों देशों में जजों की नियुक्ति गवर्नर जनरल (पढ़िए: प्रधानमंत्री) के हाथ में रहती है। वहां मुख्य न्यायाधीश समेत सेवारत जजों का इसमें कोई दखल नहीं होता।

यह नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है, और न ही कोई यह कह सकता है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 1993 (जब कोलेजियम व्यवस्था ईजाद हुई) से पहले जो जज नियुक्त हुए वे स्वतंत्र नहीं थे।

नियुक्ति की कोई भी प्रणाली एकदम आदर्श नहीं है। कोलेजियम व्यवस्था (संविधान पीठ के पांच में से चार जजों ने इसका जम कर बचाव किया और एनजेएसी अधिनियम को अवैध ठहराया) की अपनी खामियां हैं: ऐसा सभी पांच जजों ने कहा और मामले की अगली सुनवाई की तारीख 3 नवंबर 2015 मुकर्रर की।

ऐसा दुनिया के किसी भी देश में नहीं होता कि सेवारत जज ही जजों का चयन और नियुक्ति करें। भारत के संदर्भ में यह उचित लगता है कि जजों को नियुक्त करने का अधिकार केवल कार्यपालिका को न हो। इसमें न्यायपालिका की भी भूमिका अवश्य होनी चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि इसमें जजों की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए, वहीं कुछ लोगों का आग्रह है कि इसमें संसद की सलाह और सहमति अवश्य ली जाए। लेकिन जजों का तर्क है, जिसके अनुरूप उन्होंने अब फैसला भी सुना दिया है, कि इस मामले में केवल जजों की चलेगी।

आधारभूत सिद्धांत और निहितार्थ:

एनजेएसी मामले में आए फैसले के पीछे चार आधारभूत सिद्धांत हैं और प्रत्येक का एक निहितार्थ है।

पहला, नियुक्ति का अधिकार जजों तक सीमित रहना न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जरूरी है (निहितार्थ: कार्यपालिका या सिविल सोसायटी की भागीदारी, वह न्यूनतम हो तो भी, न्यायिक स्वतंत्रता को कम कर सकती है)।

दूसरा, न्यायाधीश के पद की खातिर चुने जाने वाले शख्स की योग्यता और उपयुक्तता का आकलन करने की समझ न्यायपालिका से बाहर के किसी व्यक्ति में नहीं हो सकती (नए जजों को चुनने में जज हमेशा खरे उतरते हैं)।

तीसरा, सिविल सोसायटी ऐसे दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों के नाम नहीं सुझा सकती, जो चयन प्रक्रिया में भागीदार हो सकें (निहितार्थ: एक बार चुन लिए जाने के बाद जज मनुष्यों की ऐसी श्रेणी में आ जाते हैं जो बाकी दुनिया से अलग है)।

चौथा, राजनेता भ्रष्ट और नाकाबिल हैं (जज कभी भ्रष्ट हो ही नहीं सकते)।

इन आधारवाक्यों में सच्चाई का अंश हो सकता है, मगर निहितार्थों में तो एकदम नहीं। एनजेएसी मामले में (4:1 से) आया फैसला संस्थागत अविश्वास के लंबे सिलसिले का ताजा प्रकरण है। यह अफसोस की बात है कि हमारी संस्थाएं अन्य संस्थाओं के प्रति शंकालु हैं, मगर खुद अपना आकलन करने में बहुत उदार हैं!

दोषपूर्ण एनजेएसी अधिनियम:

तनिक विचार करने पर हम इसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में देश के मुख्य न्यायाधीश (और कोलेजियम) को प्रमुख भूमिका दी जा सकती है, लेकिन इसमें सीमा और संतुलन (चेक एंड बैलेंस) तथा कार्यपालिका की राय ली जाने की व्यवस्था भी जरूर होनी चाहिए।

इस दृष्टि से, 99वां संविधान संशोधन वैध कानून था, जबकि एनजेएसी अधिनियम में खामियां थीं: आयोग में प्रतिष्ठित व्यक्ति कौन होंगे इसे परिभाषित नहीं किया गया, किन्हीं भी दो सदस्यों को वीटो का अधिकार था, तथा गैर-न्यायिक पृष्ठभूमि के सदस्यों की मिलीभगत की सूरत में कानून और भी दोषपूर्ण साबित होता।

दूसरी ओर, यह तर्क नितांत गलत था कि कानूनमंत्री और सिविल सोसायटी से लिए जाने वाले दो प्रतिष्ठित व्यक्ति एनजेएसी व्यवस्था को बुरी तरह बिगाड़ सकते हैं। ऐसा कोई न्यायिक सिद्धांत या प्रमाण नहीं है, जिसके आधार पर मान लिया जाए कि कानूनमंत्री और सिविल सोसायटी के प्रतिष्ठित प्रतिनिधि चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया को दागदार बना देंगे।

एक संभव समाधान:

मैं कुछ सैद्धांतिक बातें सुझाना चाहता हूं, जिन्हें हमारे संविधान में शामिल किया जा सकता है:

1. उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के सिलसिले में विचारणीय नामों का चयन करने का हक सिर्फ कोलेजियम को हो।

2. एक न्यायिक नियुक्ति आयोग सुझाए गए नामों पर विचार करे और सर्वाधिक उपयुक्त उम्मीदवारों की नियुक्ति की बाबत राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश भेजे। आयोग का दायरा बड़ा हो (जैसे कि ब्रिटेन में इस संदर्भ में पंद्रह सदस्यीय समिति है) और उसमें सेवारत जज, दूसरे न्यायविद, कानून के विशेषज्ञ और कानूनमंत्री भी हों।

3. केवल उसी व्यक्ति को जज नियुक्त किया जा सकेगा, जिसे कोलेजियम ने चुना हो और आयोग ने जिसके नाम की सिफारिश की हो।

बेशक ऊपर पेश किए गए सिद्धांतों में भी खामियां ढूंढ़ी जा सकती हैं। याद रखें, एक लोकतंत्र में कोई पूरी तरह सही निर्वाचक नहीं होता, न कोई आदर्श विधान मंडल, न आदर्श कार्यपालिका और न ही एकदम त्रुटिहीन न्यायपालिका। वे अपनी-अपनी कमियों के रहते हुए, एक-दूसरे से संवाद करते हैं और राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति को संभव बनाते हैं।

एनजेएसी अधिनियम, जिसे एक झटके में खारिज कर दिया गया, उसे संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों को स्वीकार्य बनाने के लिए उपयुक्त फेरबदल किए जा सकते हैं।

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