एक रिपोर्टर बीएचयू से बोला : आज मालवीय जी क्या सोच रहे होंगे, जब वे संस्कृत विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किए गए डॉ. फीरोज खान के संस्कृत पढ़ाने के खिलाफ इस विरोध प्रदर्शन को देख रहे होंगे? एक विरोधी छात्र कहने लगा कि वे मुसलमान हैं। मुसलमान हिंदुओं के कर्मकांड नहीं पढ़ा सकता। ऐसे अध्यापक को स्वयं कर्मकांडी होना होता है। जनेऊ धारण करना, गोमूत्र पीना होता है, जबकि एक मुसलमान शरीअत से चलता है। इनको किसी अन्य कोर्स में भेज दो। विरोध के साथ वे ‘बुद्धि शुद्धि यज्ञ’ भी किए जा रहे थे।
हिंदुत्व जब सिर चढ़ जाता है, तो वह इसी तरह बावला होकर अपनी दादागीरी करता है। कितनी भयानक बात है कि कुछ लोग ‘संस्कृत’ को ‘हिंदुत्व’ का पर्याय बनाए दे रहे हैं! विश्वविद्यालय प्रशासन ने साफ किया कि फीरोज खान दस अन्यों से बेहतर थे, नियुक्ति समिति ने उनको सर्वसम्मति से नियुक्त किया। लेकिन सरजी! यह विरोध कानूनी न होकर घोर सांप्रदायिक और फासीवादी है, जबकि फीरोज खान की नियुक्ति शिक्षा के क्षेत्र में ‘बहुलतावाद’ की विजय है! ये संकीर्णमना छात्र नहीं जानते कि ज्ञान के जाति-धर्म नहीं होते : ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान!
सप्ताह की एक और विवादास्पद खबर संसदीय रक्षा समिति में साध्वी प्रज्ञा को संसदीय रक्षा समिति का सदस्य बनाने ने बनाई। कांग्रेस समेत विपक्ष ने आपत्ति की कि जिन पर इतने आपराधिक मामले चल रहे हैं और जो गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को अपना हीरो मानती हैं और जिनके ऐसे बयान पर पीएम ने कहा था कि इस बात के लिए प्रज्ञा को वे कभी माफ नहीं करेंगे। उन्हीं को रक्षा समित में जगह दी तो क्यों?
ऐसी एक बहस में एक विहिप प्रवक्ता ने एक राजनीतिक विश्लेषक को बोलने ही नहीं दिया और एक तेज-तर्रार कही जाने वाली एंकर भी उस परिषद वाले एकदम ‘शट अप’ न कर सकी।
अपने यहां कई चैनलों की बहसें, एंकरों की जानी-अनजानी मेहरबानियों से, हिंदुत्व की ओर इसी तरह लुढ़कती रहती हैं। जिस दिन जेएनयू के छात्रों ने फीस बढ़ाने के खिलाफ संसद पर विरोध प्रदर्शन करने की कोशिश की, उस दिन लगभग हर रिपोर्टर और एंकर जेएनयू के छात्रों को ‘आजादी’ और ‘टुकड़े गैंग’ के पुराने मिथकों से ही परिभाषित करता रहा, जबकि छात्रों में से किसी ने भी इस बार ‘आजादी आजादी’ के नारे नहीं लगाए। पूरे दिन चैनल छात्रों और पुलिस प्रशासन के बीच की रस्साकशी को लाइव दिखाते रहे। धक्का-मुक्की और पकड़-धकड़ पूरे दिन चलती रही।
पुलिस की रोक के बावजूद बैरीकेड तोड़ कर छात्र जब सफदरजंग की सड़क पर आ गए तो भी पुलिस चुप रही। जब अंधेरा छा गया तो लाठी चार्ज किया। कई छात्रों को चोंटे आर्इं। एक दृष्टिहीन छात्र ने दो चैनलों में निर्ममता से पीटे जाने की आपबीती बताते हुए कहा कि लाठी चार्ज से पहले सड़क की बिजली काट दी गई थी।… समूचे कवरेज में किसी रिपोर्टर या एंकर ने यह न कहा कि छात्र प्रदर्शन ही तो करने जा रहे थे, तब उनको पुलिस ने कैंपस में ही क्यों रोकने की कोशिश की? वे जंतर मंतर जाते, डफली बजाते, अपना गुस्सा निकालते और चले आते। अगर न आते, तो आप गिरफ्तार करते। लेकिन यह क्या कि कोई प्रदर्शन ही नहीं कर सकता! मगर वाह रे हमारे ‘कठिन सवाल करने’ वाले एंकर कि वे इस तरह के नरम सवाल तक जेएनयू या सरकार से न पूछे!
उधर, जेएनयू के कुछ छात्र भी कम न थे। उनमें से कई एक चैनल की महिला रिपोर्टर को देर तक ‘हेकिल’ करते रहे। एक ने तो उसके कैमरे के आगे धमकी दे डाली कि हम लाठी बंदूक उठाएंगे और मीडिया को चुन-चुन के मारेंगे।… यह कैसा जेएनयू कल्चर हुआ भाई?
हमारे कुछ एंकर इतनी तीक्ष्णबुद्धि वाले हैं कि कुछ बड़े नेताओं के हर इशारे को पकड़ लेते हैं। इधर एक बड़े नेता कुछ बोले, तो एक ने लाइन लगाई कि सर जी ने एक ‘बड़ा संकेत’ दिया है। फिर राम माधव कश्मीर को लेकर बोल दिए कि अब्दुल्ला मुफ्ती को फिर आना चाहिए।…
राष्ट्रवाद की नित्य की खुराक से छके-पके कई एंकरों को शायद यह लाइन पसंद न आई और बहस कराने लगे। कई संघ प्रवक्ताओं ने राम माधव की लाइन की जम कर ठुकाई की! लेकिन किसी एंकर ने भाजपा से यह सवाल न पूछा कि जब विपक्ष कह रहा था कि उनसे बात करो तो आप उनको देशद्रोही कह रहे थे और अब अपने बड़े भाई वही कह रहे हैं, तो उनको ‘देशद्रोही’ क्यों नहीं कह रहे?
राम जी की लीला राम जी ही जानें : पहले एनआरसी बनवाई और फिर बगलें बताई कि देखा अपना कमाल! जो कहते हैं, कर दिखाते हैं। लेकिन जब उससे मनचीती होती न दिखी, तो कहने लगे हम उसे नहीं मानते और केंद्र जब अखिल भारतीय एनआरसी बनाए तो हमारी भी एनआरसी बनवा दे!
और, एक से एक ‘कठिन सवाल’ पूछने के लिए अपने ही चैनलों में मियां मिठ्ठू बनने वाले प्रश्न-बहादुर एंकर, असम मंत्री की पलटी पर एक भी कठिन सवाल नहीं कर सके कि सर जी पहले एनआरसी बनवाई क्यों और अब रिजेक्ट क्यों की? महाराष्ट्र में एनसीपी-शिवसेना-कांग्रेस की सरकार के बनने के आसार बढ़ने लगे तो कई चैनलों के पेट में दर्द होने लगा। कई एंकर बार-बार यही पूछते रहे कि ऐसी अवसरवादी सरकार कब तक चल पाएगी? पहले चैनल दिल्ली में हवा की राजनीति बजाते रहे फिर पानी की राजनीति को बजाने लगे। जब तक दिल्ली के चुनाव नहीं हो जाते तब तक चैनल दिल्ली की हर चीज को खराब बताते रहेंगे, क्योंकि उनके लिए भी दिल्ली का मतलब ‘केजरीवाल’ है!

