संस्थागत सांप्रदायिक राजनीति के सौ साल होने को हैं। 1919 से यह ब्रिटिश हुकूमत की आधिकारिक नीति बन गई थी। हमारी चिरकालीन परंपराओं की शृंखला में यह परंपरा नवीनतम है, जिसे हम एक विशिष्ट उपलब्धि की तरह सौ साल से धूमधाम से आयोजित और प्रसारित कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि यह परंपरा हमने स्थापित नहीं की थी, बल्कि हमें विदेशी ताकतों के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। हमने जो र्इंट 1919 में रखी थी वह वास्तव में सांप्रदायिक सौहार्द की थी। यह र्इंट खिलाफत आंदोलन की थी, जिसके द्वारा हिंदुओं ने अपने हमवतन, हमनिवाला मुसलमान भाइयों के साथ मिल कर सुदूर तुर्की में खलीफाशाही को अंग्रेजों द्वारा भंग किए जाने के खिलाफ चलाई थी। अंग्रेजों ने इस निर्माण से घबरा कर सौहार्द की र्इंट से अपनी र्इंट बजा दी थी, जिसके भीषण परिणाम हम आज तक भोग रहे हैं।

अंग्रेजों का पहला प्रयोग बंगाल का हिंदू-मुसलिम जनसंख्या के आधार पर 1905 का विभाजन था। पर इस विभाजन से वंदे मातरम् और बांग्लार माटी बांग्लार जल (रवींद्रनाथ ठाकुर) की जो ललकार देश भर में फैली थी, उससे अंग्रेज सहम गए थे। विभाजन को उन्हें 1911 में रद्द करना पड़ा था। पर दूसरी तरफ, विभाजन रद्द करने से पहले, अंग्रेज सरकार 1909 में मिंटो-मोरली रिफॉर्म्स लेकर आई थी, जिसमें स्थानीय और नगरपालिका चुनाव में मुसलमान सिर्फ मुसलमान उमीदवारों को वोट दे सकते थे और हिंदू अपने उम्मीदवारों को। इसके जरिए सांप्रदायिकता का बीज बोया गया था, पर जैसे ही इसके खिलाफ कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया, अंग्रेज सरकर ने सांप्रदायिकता को नीति के तौर पर अपना लिया था। मोंटैग-चैम्स्फोर्ड रिफार्म और उस पर आधारित गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 सांप्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा देने के लिए लाए गए थे।

वैसे हिंदुस्तान में सांप्रदायिकता की जड़ें कैसे जमीं, इस पर कई विद्वानों के शोध उपलब्ध हैं, पर फ्रंटियर गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के बेटे खान अब्दुल वली खान उर्फ वली खान (1917-2006) का शोध तथ्यपूर्ण और रोचक है। वली खान की किताब ‘फैक्ट्स आर फैक्ट्स: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज पार्टीशन, 1947’, खुदाई खिदमतगार आंदोलन के इतिहास पर है, पर उसका बड़ा हिस्सा इस पर है कि किस तरह अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया था, ताकि अविभाजित हिंदुस्तान पर उनका वर्चस्व बना रहे।

वली खान ने ब्रिटिश हुकूमत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट और हिंदुस्तान के वाइसराय के बीच 1922 से 1942 के बीच हुए पत्राचार का अध्ययन किया था। उसके बाद वे लिखते हैं कि वे स्तब्ध रह गए कि किस तरह मजहब की आड़ लेकर मुसलिम नेताओं ने अपनी पूरी कौम के साथ धोखा किया था। ‘मैं उनके घृणित कृत्य को माफ नहीं कर सकता हूं। उन्होंने गुनाह किया था, उन्होंने इस्लाम की आड़ लेकर एक दंभी साम्राज्यवादी और काफिर सरकार का साथ दिया था।’ वली खान राष्ट्रवादी सेक्युलर पख्तून नेता थे, जिन्होंने पूरी जिंदगी फिरकापरस्ती के खिलाफ संघर्ष किया। अय्यूब खान और जुल्फिकार अली भुट्टो के शासनकाल में उन्हें लंबी जेल भी भुगतनी पड़ी थी और 1990 में जब उन्होंने राजनीति से संन्यास लिया तो कहा था कि अब पाकिस्तान की राजनीति मुल्लाओं और आइएसआइ (इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस) की मर्जी और इशारों पर होने लगी है और ऐसे में उन जैसे नेताओं के लिए राजनीति में कोई जगह बची नहीं है।

1988 में पश्तो में लिखी गई किताब में वे कहते हैं कि गांधीजी बहुत पहले अंग्रेजों की मंशा ताड़ गए थे और इसीलिए उन्होंने खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की थी। पलटवार करते हुए विदेशी हुकूमत ने अपने पिट्ठू मुसलमानों के जरिए आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की थी। उसके खिलाफ सबसे पहला बयान हैदराबाद के निजाम का आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि आंदोलन मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं की साजिश थी। वली खान के दस्तावेज मुसलिम लीग के नेताओं और उनकी राजनीति को पूरी तरह बेनकाब करते हैं। वे लिखते हैं कि उन दिनों मुसलिम लीग में दो धड़े थे। उनमें से एक के नेता सर मोहम्मद शफी थे, तो दूसरे की अगुआई मोहम्मद अली जिन्ना करते थे। चुनाव में धर्म के आधार पर निर्वाचन हो या न हो, का मुद्दा अंग्रेजों ने गरमाया हुआ था।

20 मई, 1929 को वायसराय लिखते हैं- ‘कुछ दिन पहले मेरी जिन्ना से लंबी बातचीत हुई और उसमें यह साफ हो गया है कि वे और उनके बंबई वाले लोग, जो कि कांग्रेस से नाखुश हैं, हमारी मदद करेंगे अगर हम बाद में उनकी मदद करें तो।’उस बातचीत के बाद वायसराय ने जिन्ना को मुसलिम लीग का इकलौता नेता बनाने की मुहिम चलाई थी और इसी संदर्भ में उन्होंने 21 मार्च, 1929 को लिखा था कि लीग के दो धड़े दिल्ली में महीने के अंत में मिलने वाले हैं और ऐसी आशा की जा सकती है कि जिन्ना का लीग पर वर्चस्व कायम हो जाएगा। साफ है कि अंग्रेजी हुकूमत ने सुलह कराने और जिन्ना को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई थी।

पर बात सिर्फ यहां तक नहीं थी, 26 नवंबर को वायसराय ने लिखा, ‘मुझे उन सुझावों के बारे में पता चला है, जिनमें कहा गया है कि सरकार को किसी तरह से ऐसा हस्तक्षेप करना चाहिए, जिससे पार्टी को फंड की कमी न हो। साथ में हम चाहेंगे कि मुसलमानों के हकों की पैरवी भी पूरी मुस्तैदी से हो।’ वली खान लिखते हैं कि इस दस्तावेज से साफ है कि अंग्रेज सरकार ने पैसे और साधन प्रदान करके जिन्ना की मुसलिम लीग को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया था। धर्म के आधार पर पार्टी खड़ी करने से अंग्रेज संतुष्ट नहीं थे। 9 फरवरी, 1931 को वायसराय लार्ड इरविन ने लिखा था- ‘मैंने सर मोहम्मद शफी से कहा है कि सिर्फ कुछ मीटिंग कर लेने और अखबारों में लेख छपवाने से काम नहीं चलेगा। अब आप सबको पूर्णकालिक मिशनरीज की भांति सारे भारत में वह अलख जगानी है, जिससे कांग्रेस की खिलाफत प्रभावी ढंग से हो सके।’

अंग्रेज सरकार की नीयत और नीति साफ थी- वह फूट डालो और राज करो की नीति को खुले तौर से अपना चुकी थी। उसने हरिजनों और राजाओं को भी तोड़ने की कोशिश की थी, पर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ऐसी चालों के प्रति सजग थे। गांधीजी ने अनशन करके भीमराव आंबेडकर को पूना पैक्ट के लिए मजबूर किया था और नेहरू ने स्टेट्स पीपुल्स कान्फ्रेंस का गठन करके देश के लगभग छह सौ राजा-महाराजाओं के मनसूबों पर पानी फेर दिया था। वाली खान की किताब सरकार प्रायोजित सांप्रदायिकता का खुलासा करती है। अंग्रेजों ने फिरकापरस्ती का उपयोग अपने राज और हुकूमत को कायम रखने के लिए किया था, पर उसका व्यापक नुकसान 1947 में हमारे देश और समाज को भुगतना पड़ा। उसके बाद भी तरह-तरह से इसको शह मिलती रही है और यह एक विचित्र अधिकृत नीति बन गई है। शायद यह हमारे मानस में परंपरा की तरह उतर गई है, जिसे हम निभाने को मजबूर हैं। दुर्भाग्यवश इससे अलग हमें कोई रास्ता नजर नहीं आता है।