खुले बाजार में अपनी संभावनाएं तलाशता बहुराष्ट्रवाद, धीरे-धीरे वैश्वीकरण की मुख्य पहचान बनता गया है। पर हकीकत यह है कि मौजूदा वैश्वीकरण का क्षेत्र-विस्तार अगर विश्व-बाजार के रूप में हो रहा है, तो उसकी सीमा नव-राष्ट्रवाद के रूप में सिर उठा रही है। मंजिल और यथार्थ के बीच अभी बहुत फासला है। फिर भी, जिसे हम विश्व बाजार की जमीन पर खड़े विश्ववाद के भव्य प्रासाद की तरह देखना चाहते हैं, वह कम से कम मीडिया के भाषा-बाजार के रूप में जरूर एक हकीकत बन कर उभरा है।

आधुनिक काल के वैश्वीकरण के पीछे एक वैज्ञानिक औद्योगिक क्रांति खड़ी थी। इसलिए वह मध्यकाल के, वैश्वीकरण के मुकाबले में ज्यादा शहरी भी था और व्यापक भी। फिर यह जल्द ही साम्राज्यवादी मनसूबों की ताकत बन कर सामने आया। अपने इस रूप में वह तीन-चौथाई दुनिया को औपनिवेशिक गुलामी में ले जाने वाला हो गया। इसलिए ‘शेप दुनिया’ के लिए वैश्वीकरण, एक ‘आरोपित’ वस्तु बन गया। इसे हम ‘आधुनिक वैश्वीकरण’ का मुख्य अंतर्विरोध कह सकते हैं।

अब हम मीडिया की भाषा में, बाजार की वजह से, पहली दफा ठोस और व्यावहारिक होती वैश्विकता को देख रहे हैं। यह वैश्वीकरण हमें एक नए विश्ववादी विमर्श में उतरने की चुनौती दे रहा है। इस चुनौती के बरक्स, हम अपने अतीत के अनुभवों से कुछ सीखने का एक विनम्र दावा जरूर पेश कर सकते हैं। बेशक वह आज के मुकाबले में अमूर्त, प्रतीकात्मक या केवल आनुष्ठानिक तक लग सकता है।

वैश्वीकरण का बाजारवादी रूप, मुख्यत: बहुराष्ट्रीय है। बहुराष्ट्रीय गठबंधन, आर्थिक और राजनीतिक हितों की साझीदारी का बाजार खड़ा करते हैं। यह साझेदारी पिछली सदी के सामरिक गठबंधनों की जरूरत और उसकी सियासत के मुकाबले में, ज्यादा तरल, अनेक परतों वाली और परस्पर-परिवर्तनीय है। यों सामरिक गठबंधनों की भूमिका भी, बदले हालत में, भिन्न तरीके से बनी हुई है। जहां खुलता हुआ बाजार इन सामरिक गठबंधनों के हितों के विरोध में जाता है, वहां आर्थिक प्रतिबंधों की सियासत का सहारा लिया जाता है।

दूसरे, बाजार के जरिए, कमजोर देशों की आर्थिकता और राजनीति- दोनों को नियंत्रित करने के लिए यह बाजार, एक नव-औपनिवेशिक भूमिका भी अख्तियार करता है। तथापि देशों और उनकी मुद्राओं की सरहदें अब ‘राष्ट्रीय राजनीति’ के अधिकार क्षेत्र से बाहर होती जा रही हैं। इस तरह राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय यथार्थ के बीच एक द्वंद्वात्मक रिश्ता दिखाई देने लगा है। और वह जो मीडिया की भाषा का बाजार है, वह इस रिश्ते के भी पार जाने के संकेत दे रहा है।

दरअसल, जब हम ‘मानव चेतना को एक उत्पादन’ की तरह देखते हैं, तो उसके लिए ‘कच्चे माल’ का काम करती है- ‘भाषा’। मीडिया, भाषा के दृश्य और श्रव्य रूपों से होता हुआ, अन्य इंद्रियों के भाषा-संसार में उतरने की तैयारी भी कर रहा है। मीडिया, भाषा के उत्पादित रूपों के लिए एक ‘माध्यम’ की भूमिका निभाता है। पर मार्शल मैक्लुहान ‘माध्यम के संदेश हो जाने’ की स्थिति को भी विचारणीय मानते हैं। मिशेल फूको इसी तर्ज पर भाषा के ज्ञान की शक्ल में हुए उत्पादन को, सत्ता के साथ बंधी वस्तु मानते हैं। उनके लिए उत्पादित भाषा और चेतना, सत्ता के ज्ञान या ज्ञान की सत्ता से उपजने वाली वस्तुएं हैं।

पर ज्ञान की दुनिया जटिल है। वह भाषा के संस्कृति से जुड़े पहलू को केंद्र में लाती है। समाजवादी चिंतक मीडिया के ‘संस्कृति-उद्योग’ हो जाने के पहलू पर केंद्रित होकर, भाषा और चेतना के नए रिश्तों की व्याख्या कर रहे हैं। दरअसल, जहां परिवर्तन दिखाई दे रहा होता है, हमारी सोच और समझ उस पर हमेशा जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया करती है। बेशक इस दिशा में बढ़ रही हमारी समझ, हमें नई अंतदृष्टियां प्रदान कर रही है, पर इसमें एक और बात है, जो नजरअंदाज होती जाती है, कि बाजार की जरूरतों के मुताबिक मीडिया द्वारा जिस भाषा और संस्कृति का चेतनामूलक पुनरुत्पादन होता है, वह उनके एकांश को ही अपने सांचे में ढालता है। अधिकांश में भाषा-संस्कृति पहले से उपलब्ध चेतना-रूपों द्वारा अपना लोकधर्मी अंतर्विकास करना जारी रखती है। ज्यादातर तो भाषा-संस्कृति जीवन के यथार्थ रंगमंच पर अपनी खुद की रफ्तार से ही आगे बढ़ रही होती है। विश्ववादी चेतना, मीडिया की भाषा के रूप में जिस जलधारा का रूप लेती है, उसे भाषा-संस्कृति के समुद्र का विकल्प नहीं कहा जा सकता।

मौजूदा भाषा-बाजार की दो खासियतें हैं। एक है कि वह जन-चेतना को नियंत्रित करने वाले तंत्र का विकास करता है। वह उपभोक्ताकरण को समाज की ‘अपनी इच्छा और जरूरत की तरह’ लाता है। इस तरह वह लोगों को बहुराष्ट्रीय बाजार के उत्पादों का गुलाम बनाता है। इस गुलामी की सच्चाई को वह अपने ‘ग्लैमर’ की लुभाने वाली चकाचौंध से ढांपे-छिपाए रहता है। इसकी दूसरी खासियत अपने सत्तावादी नजरिए को बनाए-टिकाए रखने से ताल्लुक रखती है। इसके लिए भाषा-बाजार प्रतिस्पर्द्धा को जीवन के बड़े से बड़े मूल्य की तरह पेश करता है। इससे विकास और प्रगति के नाम पर लोगों को बड़े-छोटे, आगे-पीछे में विभाजित करने में मदद मिलती है। उसकी सत्ता, शीर्ष पर खुद को बनाए रखने के लिए, विश्वसनीय आधार पा लेती है।

औपनिवेशिक मंडियों और पश्चिमी संस्कृति की, पिछले दौर की विश्वविजय का, यह अगला चरण है। मीडिया का भाषा-बाजार इस नए दौर की नवऔपनिवेशिकता को गहराने वाला कारगर माध्यम बन गया है। पर, इसी भाषा-बाजार की सेंधों से भीतर दाखिल होकर जनभाषाएं अपनी नई अभिव्यक्ति के लिए भी जगह पा रही हैं। हिंदी का भाषा-बाजार अभी स्थानीय और राष्ट्रीय सीमाओं से बंधा हुआ अधिक प्रतीत होता है। मीडिया के वैश्विक संसार में पैर पसारने और जमाने के लिए, उसके पास अगर कोई जमीन है, तो उसका संबंध जन-भाषाओं के विकल्प की संभावना से है। जैसे-जैसे मीडिया का भाषा-संसार खुलेगा, जन-भाषाओं को प्रतिनिधित्व पाने का उतना ही अधिक अवसर मिलेगा।