सांप्रदायिक घटनाओं और प्रवृत्तियों को देखकर लगता है, हमने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा है। हम घटनाओं में स्थानीयता और बयानों में व्यक्ति की राजनीति ढूंढ़ते हैं। इसे अल्पायु मानकर अगली घटना और बयान का इंतजार करते हैं। राजनीति उसका भौतिक समाधान ढूंढ़ती है। वह उसे ही निदान मानती है। यह वैसी ही भूल है जैसी औपनिवेशिक काल में होती रही है। इसका एक अच्छा उदाहरण है। 30 मई 1871 को कलकत्ता उच्च न्यायालय के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश जान नार्मन की हत्या एक वहाबी पंथ (इस्लाम की एक धारा) से जुड़े अब्दुल्ला ने न्यायालय की सीढ़ियों पर कर दी। इसने इतना दशहत पैदा कर दिया कि वायसराय लार्ड मेयो ने मुसलिमों की नाराजगी दूर करने का रास्ता ढूंढ़ना शुरू कर दिया। उसने विलियम विल्सन हंटर को यह काम सौंपा। हंटर ने रपट दी, जो बाद में ‘भारतीय मुसलमान’ के नाम से प्रकाशित हुआ। रपट में मुसलामानों के साथ भेदभाव को कारण बताया गया। मेयो झटपट उसे दूर करने का उपक्रम करने लगे, पर वे खुद शिकार हो गए। 8 फरवरी 1872 को पोर्ट ब्लेयर में शेर अली ने मेयो की हत्या कर दी।

पिछले दो सौ वर्षों से हिंदू-मुसलिम संबंधों पर बहुत कुछ लिखा गया

समुदायों के बीच भेदभाव, प्रतिस्पर्धा, रंजिश, आधिपत्य की महत्त्वाकांक्षा होना अस्वाभाविक नहीं है। इसके निदान की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। पर सांप्रदायिकता इन कारणों से भारत में नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसे जानने-समझने में कमी रही है। पिछले दो सौ वर्षों से हिंदू-मुसलिम संबंधों पर जितना लिखा गया, भाषण दिया गया, गोष्ठियां और संवाद के आयोजन हुए, उतना शायद किसी अन्य विषय पर नहीं हुआ होगा। पर निष्क्रिय इच्छाशक्ति के कारण परिणाम ढाक के तीन पात हैं।

जहां सामुदायिक जीवन मजबूत है, वहां छाया भी नहीं है

दरअसल, सांप्रदायिकता को हमने धार्मिक समुदायों की संख्या के आधार पर देखने-समझने का प्रयास किया है। यह आंशिक सत्य भी नहीं है। वास्तव में इसकी उत्पत्ति धार्मिक समुदायों द्वारा एक-दूसरे को देखने के नजरिए से होती है। नजरिए में जितना परायापन होगा, सांप्रदायिकता उसी अनुपात में फैलेगी। राजनीति सिर्फ घटनाओं का समाधान ढूंढ़ती है। उसके पीछे प्रेरित करने वाली प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालने में उसका अपना राजनीतिक स्वार्थ सामने आ जाता है। यही उसकी अक्षमता का कारण कल था और आज भी है। सांप्रदायिकता के चरित्र को समझना होगा। जहां सामुदायिक जीवन मजबूत है, वहां इसकी छाया भी नहीं है।

औपनिवेशिक काल की जनगणना रपटों में इसका विस्तार से उल्लेख है। हिंदू-मुसलिमों के बीच विवाह, रीति-रिवाज, खानपान, पहनावा, त्योहारों आदि में मेलजोल इतना अधिक था कि समुदायों के बीच विभाजन रेखा खींचना असंभव था। पाकिस्तान आंदोलन के समर्थकों को पता था कि उनकी मंशा तब तक पूरी नहीं हो सकती थी, जब तक इस सामुदायिकता को छलनी नहीं बना दिया जाएगा। मुसलिम लीग ने धार्मिक नेताओं का उपयोग इस विध्वंस के लिए किया। इस्लाम में शुद्धता यानी ‘शरीअत’ के अनुसार चलने पर बल दिया जाने लगा। सांप्रदायिकता का दूसरा चरित्र भी है। यह शहर से गांव की ओर जाता है। यह लोगों के मन में भविष्य के प्रति भय और अस्तित्व के प्रति आशंका पैदा करता है। यह इसको द्रुत गति से फैलाता है।

दुनिया की कोई विचारधारा या दर्शन इतनी तेजी से नहीं फैलता है। 1940 में जो सांप्रदायिक मांग कागजी लगती थी, वह कुछ वर्षों में क्रूर यथार्थ बन गई। सांप्रदायिकता को घटनाओं से परे देखने की जरूरत है। नारों, भाषणों, प्रस्तावों, सेमिनारों में इसका समाधान नहीं है।

प्रत्येक समाज का एक नैतिक बहुमत होता है। इसका तात्पर्य है कि किसी समाज के अधिकांश लोगों की विशिष्ट जीवन पद्धति है, जिसे आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित करते हैं। हिंदुओं का नैतिक बहुमत प्रयोगधर्मिता है, जिसकी कोई चौहद्दी नहीं है। इसीलिए हिंदू समाज में विविधता इस हद तक है कि अनेक स्तरों पर विरोधाभास के रूप में सामने आ जाता है। यही नैतिक बहुमत भारत की पंथनिरपेक्षता की परिभाषा और गारंटी दोनों है। इसका अतिक्रमण ही पंथनिरपेक्षता पर प्रहार है। चाहे वह अंदर से हो या बाहर से।

संविधान अधिकारों की सुरक्षा भर देता है, समाज ही पंथनिरपेक्षता सुनिश्चित करता है। कोई भी संप्रदाय या धर्म अपने अस्तित्व को सुदृढ़ करना चाहता है। पर यह सुदृढ़ीकरण प्रयोगधर्मिता के भविष्य पर सवाल नहीं होना चाहिए। धर्म परिवर्तन सहित अनेक ऐसे विषय हैं, जो समाज को बेचैन करते हैं। आचार्य जेबी कृपलानी ने अपने संस्मरण में आपबीती बताई है। उनके बड़े भाई का जबरन धर्मांतरण करा दिया गया। फिर धर्म उनके लिए अफीम की तरह हो गया। उन्होंने अपने बारह वर्षीय छोटे भाई का अपहरण कर धर्मांतरित कर उसे अफगान तुर्क सीमा पर युद्ध में भेज दिया। उसकी वहां मृत्यु हो गई। कृपलानी लिखते हैं कि बड़ा भाई गांव आता था, तो दहशत फैल जाती थी।

दुर्भाग्य है कि जो प्रश्न आज से डेढ़ सौ साल पहले विवाद का कारण था, वह कमोबेश आज भी कायम है। धार्मिक आचरण में संस्कृति और स्थानीयता का बोध समाप्त होते ही यह प्रतिद्वंद्विता के दायरे में पहुंच जाता है। फिर अनावश्यक बातों को भी सामाजिक तनाव का कारण बना दिया जाता है। जीवन दर्शन की श्रेष्ठता के लिए परस्पर संवाद ठहर जाता है। किसी संप्रदाय/ धर्म के विस्तार और बहुमत में आ जाने से सभ्यता का संस्कार बदल जाए, तो यह विस्तार चिंता का कारण बन जाता है। ज्ञान के क्षेत्र में योगदान के कारण प्रसिद्ध पाणिनी का जन्म आज के पाकिस्तान में हुआ। पर उन्हें सम्मान वहां नहीं, भारत में मिलता है।

जमीनी स्तर पर इस विषाणु को समाप्त करने का प्रयास ही सक्षम रास्ता है। घटना और अनर्गल बयान भले ही क्षणिक लगें, पर मनोवृत्ति पर असर डालते हैं। इनमें रक्तबीज जैसी क्षमता होती है। यह शिक्षित-अशिक्षित, शहरी-ग्रामीण, बाल-वृद्ध, अपने-अपने कामों से स्वैच्छिक अवकाश लेकर उलझ जाते हैं। यह उसके सुहाग को दीर्घायु बना देता है। पीढ़ियों के लिए दायित्वबोध होते ही हमारी निष्क्रियता समाप्त हो जाएगी।