राजीव गांधी जीवित होते तो पिछले सप्ताह वे अपना 80वां जन्मदिन मनाते। दिल्ली में तो यह दिन खूब तामझाम से मनता। कांग्रेसियों की भीड़ जमा होती और अखबारों में उनकी तारीफ में बड़े-बड़े इश्तिहार छपते। दिल्ली के सरकारी गलियारों में लोग इकट्ठा होते उनकी शान में कसीदे पढ़ने। कितना बदल गया है जमाना कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और उनका जन्मदिन आम दिनों की तरह ही गुजरा दिल्ली में।
निजी तौर पर मेरे लिए कई पुरानी यादें ताजा हुईं। याद आया किस जोश से इस देश के लोगों ने 1984 वाले लोकसभा चुनाव में उनको अपना प्यार, अपनी संवेदना और अपने वोट दिए थे। मैं उस चुनाव में मध्य प्रदेश में थी और उस दिन ग्वालियर में थी, जब एक विशाल आमसभा को उन्होंने संबोधित किया था माधवराव सिंधिया के साथ।
रात ठंडी थी, मैं आम लोगों के बीच ठिठुरती खड़ी थी मैदान में और मेरे आसपास जितने भी लोग थे, उनसे पता लगा कि उनमें भारत के लिए एक नए दौर की उम्मीद थी कि अब वास्तव में उनके जीवन में समृद्धि आने वाली है। इंदिरा गांधी की हत्या को भुला चुके थे लोग इसलिए कि उनके दौर में मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की नालायकी से, लोग तंग आ चुके थे।
यह भी पढ़ें: जनसत्ता प्रश्नकाल: विरोधियों समेत सहयोगियों को भी साधने के मकसद से ला रहे तीन कानून
राजीव गांधी का शासनकाल बहुत बुरे दिनों से शुरू हुआ था। उनके प्रधानमंत्री बन जाने के कुछ घंटे बाद सिखों का जनसंहार सुनियोजित तरीके से करने लगे कांग्रेस के कार्यकर्ता। सब खबरें जगजाहिर रहीं कि मुर्दाघर भर गए थे और लाशों को जलाया गया था, उन्हीं सड़कों पर जहां सिखों को इंदिरा गांधी के चाहने वाले और कांग्रेस पार्टी के समर्थकों ने मारा।
इस संहार के हफ्तों बाद भोपाल में उस जहरीली यूनियन कार्बाइड फैक्टरी ने दो दिसंबर की आधी रात अपना जहर फैलाया सोती हुई बस्तियों पर, जिसकी वजह से अगले कुछ दिनों में तीन हजार से पांच हजार लोगों ने अपनी जान गंवाई। फैक्टरी के अमेरिकी मालिक को राजीव सरकार की सहमति से चुपके से वापस अमेरिका भेज दिया गया।
मगर इस देश की आम जनता ने इन दोनों त्रासदियों के बावजूद राजीव को दिल से माफ ऐसा किया कि उनको लोकसभा में 414 सीटें देकर जिताया। विपक्षी दलों का इतना बुरा हाल हुआ इस चुनाव में कि महारथियों को पटक दिया मतदाताओं ने। ग्वालियर में अटल बिहारी वाजपेयी को सिंधिया ने हराया और इलाहाबाद में हेमवती नंदन बहुगुणा को अमिताभ बच्चन ने। यानी राजीव गांधी के हाथों में इतनी शक्ति थी कि देश की शक्ल बदल सकते थे।
ऐसा न हुआ अगर, तो दोष उनका अपना है, लेकिन उनके लिए इतना प्यार था कि उनकी हत्या के बाद न सिर्फ उनकी पत्नी को देश का अघोषित प्रधानमंत्री बनने दिया 2004 से लेकर 2014 तक, बल्कि बाद में उनके दोनों बच्चों को भी संसद तक पहुंचाया।
इस परिवारवाद के अलावा राजीव की राजनीतिक विरासत के बारे में सोचने बैठी, तो एक गहरी उदासी महसूस हुई इसलिए कि अगर राजीव असली राजनेता होते तो प्रधानमंत्री बन जाने के फौरन बाद वे उन जरूरी आर्थिक सुधारों को लाते जो 1991 में नरसिंह राव लाए थे। राजीव की समस्या यह थी कि अर्थशास्त्रियों और राजनीतिक पंडितों के बदले उन्होंने अपने करीबियों में दोस्त रखे। काबिलियत से ज्यादा वफादारी को महत्त्व दिया। इसलिए ऐसे लोग जिनको देश की सेवा से ज्यादा पैसे बनाने का लालच था, वही दिखने लगे प्रधानमंत्री के करीबियों में।
यह भी पढ़ें: हर सत्र वही तमाशा… राहुल गांधी कब सीखेंगे राजनीति संसद में होती है, सड़क पर नहीं?
कुछ ऐसे कांग्रेसी हैं जो कहते फिरते हैं आज भी कि राजीव कंप्यूटर क्रांति लाए थे भारत में। सच यह है कि राजीव के दौर में कंप्यूटर विदेश से लाना इतना मुश्किल था कि इन्फोसिस जैसी कंपनियों को एक साल से अधिक लगता था एक कंप्यूटर लाने के लिए। भारतीय छात्र भी जब अमेरिकी विश्वविद्यालय से घर आते थे छुट्टियों के लिए, तो रोके जाते थे हवाई-अड्डे पर कई घंटों तक अगर उनके पास कंप्यूटर होते।
राजनीतिक बदलाव की बात करें, तो कहना पड़ेगा कि यह न होने के बराबर हुआ राजीव के शासनकाल में। असम में अशांति को शांति में बदला था उन्होंने एक समझौते के जरिए, लेकिन कश्मीर और पंजाब में वही हिंसा और अशांति देखने को मिली, इसलिए कि राजीव के करीबियों में ऐसे लोग थे जिनको मालूम तक नहीं था कि इन राज्यों में अशांति के कारण क्या हैं। समाधान तो दूर की बात। इन सब असफलताओं के बावजूद यह कहना पड़ेगा मुझे कि राजीव अपने बच्चों से कहीं अधिक काबिल थे और उनमें वह संजीदगी और ठहराव था जो उनके बच्चों में नहीं दिखता है।
उल्टा जब भी राहुल गांधी किसी गंभीर मुद्दे को लेकर प्रदर्शन करते हैं या यात्रा पर निकलते हैं जैसे इन दिनों बिहार में निकले हुए हैं, तो उनके भाषण, उनकी बातें इतनी बचकानी होती हैं कि गंभीरता से लेना मुश्किल हो जाता है। शायद यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी से तकरीबन सारे काबिल नेता छोड़ कर चले गए हैं भारतीय जनता पार्टी में। उनके करीबियों में रह गए हैं सिर्फ ऐसे लोग, जिनकी खूबी है खुशामद करना। उनकी बहन उनसे अच्छे भाषण जरूर दे लेती हैं, लेकिन उन्होंने भी अपने आसपास इकट्ठा किए हैं ऐसे लोग जिनकी सबसे बड़ी खूबी है चमचागीरी।
नतीजा यह कि राजीव गांधी के बच्चे अभी तक अपना संदेश जनता तक नहीं पहुंचा पाए हैं। राहुल गांधी के नेतृत्व में अनुमान लगाया जाता है कि कांग्रेस पचास से ज्यादा चुनाव हारी है। इस बात को आज छिपाने की कोशिश हो रही है ‘वोट चोर’ का नारा देकर। इससे पहले खूब हल्ला मचा था ईवीएम को लेकर और हाल में संविधान बचाने का नारा देकर। अफसोस कि राजीव गांधी की राजनीतिक विरासत अगर है कोई, तो यही कि परिवारवाद की जड़ों को उन्होंने मजबूत किया।