राहुल गांधी को जिस दिन, पिछले सप्ताह, आदेश मिला कि उनको अपना सरकारी घर तीस दिनों में खाली करना होगा, खूब हल्ला मचाया उनके साथियों ने। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने रोंदू चेहरा बना कर टीवी पत्रकारों को बताया कि वे अपने प्रिय नेता के लिए अपना घर खाली करने को तैयार हैं। ऐसे पेश आए उनके समर्थक जैसे कि घोर अन्याय हुआ हो। मगर असली अन्याय होता आ रहा है दशकों से इस देश के आम नागरिकों के साथ, इसलिए कि भारत ही ऐसा लोकतांत्रिक देश है, जहां बेघर, गरीब लोगों के पैसों पर राजा-महाराजाओं की तरह शान से रहते हैं उनके जनप्रतिनिधि।

अमेरिका और अन्य लोकतांत्रिक पश्चिमी देशों में सरकारी मकान सिर्फ मुट्ठी भर राजनेताओं को मिलते हैं। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के अलावा ब्रिटेन में यह एहसान किया जाता है केवल वित्तमंत्री के ऊपर और अमेरिका में उप-राष्ट्रपति पर। अपने भारत महान में हम मामूली सांसदों को भी इतने आलीशान आवास देते हैं कि कई अमीर सांसद भी चुनाव हारने के बाद अपने सरकारी घरों से चिपके रहते हैं। राहुल गांधी मामूली सांसद थे 2005 में, जब उनकी माताजी ने उनके हवाले किया ऐसा मकान जो अक्सर सिर्फ आला अधिकारियों और वरिष्ठ मंत्रियों को मिलता है। ये वे दिन थे जब सोनिया गांधी देश की अघोषित प्रधानमंत्री थीं, सो उन्होंने अपनी बेटी को भी उतना ही आलीशान मकान दिलवाया, इस बहाने कि उनके जेड-प्लस सुरक्षा कर्मियों के लिए जगह होनी चाहिए।

अब सुनिए कि लटयंस दिल्ली के ऐसे मकानों की कीमत क्या है बाजार में। अव्वल तो ऐसे मकान मिलते ही नहीं हैं, क्योंकि निजी मकान बहुत थोड़े रह गए हैं दिल्ली के इस सबसे महंगे रिहाइशी इलाके में, लेकिन जब मिलते भी हैं तो उनकी कीमत दो सौ करोड़ से लेकर छह सौ करोड़ रुपए तक होती है। तो क्या असली अन्याय नहीं होता आ रहा है देश के आम लोगों के साथ, जिनके पैसों से रहते हैं उनके नेता इतनी शान से?

निजी तौर पर मैं सालों से मुहिम-सी चलाती आई हूं इस अन्याय के खिलाफ। सो, जब 2014 में नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे और लटयंस के बंगलों में उनके मंत्री और अधिकारी रहने लगे, मैंने अरुण जेटली से पूछा था कि ये सरकारी बंगलों वाली प्रथा कब बंद होगी, तो उन्होंने कहा था, ‘दूसरी बार जब लोकसभा चुनाव जीतेगी भारतीय जनता पार्टी, तो इसके बारे में गंभीरता से हम सोचेंगे।’

ऐसा अगर नहीं हुआ है तो सिर्फ इसलिए कि शान से रहने की आदत अब भाजपाइयों को भी लग गई है। अफसोस कि हमारे जनता के सेवक ऐसे हैं, जिनको गरीबों के आवास की कम चिंता है और अपने आवास की ज्यादा। इतनी कि इंदिरा गांधी के जमाने में उनके एक मंत्री थे, जिन्होंने अपनी नौकरी गंवाने के बाद भी दशकों तक अपना सरकारी मकान वापस नहीं किया। मजे की बात यह है कि जनाब एक काफी बड़ी रियासत के राजा थे।

मैंने जब भी अपने किसी सांसद दोस्त से लटयंस दिल्ली में उनके आलीशान बंगलों की बात की है, तो उनका जवाब हमेशा यही रहा है कि हमारे सांसदों का मासिक वेतन इतना कम है कि दिल्ली में किसी अच्छे रिहाइशी इलाके में किराया देना उनके लिए नामुमकिन है। ऐसा है तो उनका वेतन दुगना-तिगुना भी कर दिया जाता है, तो देश के करदाताओं पर बोझ काफी हल्का हो जाएगा, क्योंकि आलीशान सरकारी मकान के साथ हम उनके लिए बेझिझक देते हैं कई और सुविधाएं। मकान के साथ आते हैं कई घरेलू नौकर, बगीचों के रखरखाव के लिए माली, मुफ्त की बिजली, मुफ्त की फोन सेवाएं, सस्ते गैस सिलेंडर और देश भर में ट्रेन से घूमने के लिए मुफ्त आरक्षित सीटें। जिनको ट्रेन से जाना पसंद नहीं है, वे अपने चुनाव क्षेत्रों में जा सकते हैं विमान से और यह सेवा भी मुफ्त में हम-आप उपलब्ध कराते हैं।

हमारे सांसदों में कई ऐसे लोग हैं, जो अपने आप को समाजवादी और मार्क्सवादी कहते हैं। इनमें एक भी ऐसा नहीं मिला है मुझे, जिसने लटयंस दिल्ली में सरकारी आवास लेने से इनकार किया हो। बालीवुड के सितारे भी मकान लेने से मना नहीं करते हैं, बावजूद इसके कि इतने अमीर होते हैं ये सितारे कि संसद सत्र के दौरान ताज या ओबराय होटल में रह सकते हैं उनके सबसे आलीशान कमरों में। होटलों की बात आई है, तो यह बताना जरूरी है कि दिल्ली में कई सरकारी होटल इतने सालों से खाली पड़े हैं कि खंडहर हो गए हैं। कुछ दिनों पहले मैं उस गली से गुजरी थी, जिसमें अकबर होटल है और उसका हाल देख कर मुझे रोना आया। जो इमारत कभी शानदार और सुंदर होती थी, आज गिरते हुए खंडहर जैसी दिखती है। सम्राट होटल का भी तकरीबन यही हाल है, सो क्यों नहीं सांसदों को संसद सत्र के दौरान इनमें ठहराया जाता है?

इन दिनों प्रधानमंत्री बहुत बार कहते हैं कि प्राचीन भारत में भी लोकतांत्रिक परंपराएं थीं, सो ऐसा कहना गलत न होगा कि भारत माता ने ही जन्म दिया है लोकतंत्र को। ऐसा है प्रधानमंत्रीजी, तो आज तक हम क्यों जीवित रखे हुए हैं ऐसी प्रथाएं, जो सिर्फ रूस और चीन जैसे देशों में होती हैं, जो लोकतांत्रिक होने का ढोंग तक नहीं करते हैं। बेजिंग में शी जिनपिंग रहते हैं उन महलों में, जहां कभी रहा करते थे चीन के सम्राट। मास्को में क्रेमलिन के महलों में रहा करते थे रूस के जार और आज उन्हीं महलों में रहते हैं व्लादिमीर पुतिन। लटयंस दिल्ली का कुछ ऐसा ही हाल है। यहां रहते हैं सिर्फ हमारे तथाकथित जनसेवक। जो मुट्ठी भर निजी मकान रह गए हैं यहां, उनमें रहते हैं देश के सबसे अमीर उद्योगपति।