भारत और इंग्लैंड के बीच क्रिकेट मैच देखते समय एक अग्रणी सीमेंट कंपनी के विज्ञापन की ‘टैगलाइन’ ने मेरा ध्यान खींचा, ‘ऐज इंडिया बिल्ड, इंडिया ग्रो’ (जैसे-जैसे भारत निर्माण करता है, वह विकास के पथ पर आगे बढ़ता है।) बिल्कुल सही बात है। विकास के लिए हमें सार्वजनिक सुविधाओं से जुड़े ढांचे, जैसे सड़कें, पुल, रेलमार्ग, हवाई अड्डे तथा विद्यालयों, महाविद्यालयों, अस्पतालों और कार्यालयों की इमारतों का निर्माण अवश्य करना होगा और यह भी जानना होगा कि कैसे निर्माण करना है।
नेहरू, महान निर्माता
जवाहरलाल नेहरू एक महान निर्माता थे। नेहरू-विरोधियों की आलोचना की अहमियत दो कौड़ी की भी नहीं है। वर्ष 1947 में जनसंख्या 34 करोड़ थी और साक्षरता दर केवल बारह फीसद। नेहरू के सत्रह वर्षों के नेतृत्व में विद्यालयों और महाविद्यालयों का निर्माण किया गया। वे आइआइटी, आइआइएम, इस्पात संयंत्रों, आइओसी, ओएनजीसी, एनएलसी, एचएएल, बीएचईएल, इसरो, भाखड़ा नंगल, हीराकुंड, दामोदर घाटी और कई अन्य महत्त्वपूर्ण संस्थानों और परियोजनाओं में अग्रणी रहे। वह समय स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों का था और तब देश में शिक्षा, प्रौद्योगिकी और कौशल का अभाव था। नेहरू ने जो कुछ भी बनाया, वह आज भी कायम है, क्योंकि उस समय भारत में भले ही कई चीजों का अभाव था, फिर भी यहां एकता, स्थानीय बुद्धिमत्ता और समर्पण वाले लोगों की भरमार थी।
दूसरी शताब्दी ईस्वी में चोल राजा करिकालन ने कावेरी नदी पर कल्लनै (ग्रैंड एनीकट) बनाया। यह दुनिया के सबसे पुराने सिंचाई बांधों में से एक है, जो बिना किसी गारे जैसी सामग्री, बिना तराशे हुए पत्थरों से बनाया गया था और आज भी सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण के लिए उपयोग में है। ताजमहल वर्ष 1653 में बनकर तैयार हुआ। इसके निर्माण में लाल बलुआ पत्थर, संगमरमर व चूने की ईंटों का इस्तेमाल किया गया और मजबूत नींव रखी गई। केंद्र सरकार के मुख्यालय साउथ ब्लाक और नार्थ ब्लाक का निर्माण वर्ष 1931 में हुआ। ये शानदार और मजबूत इमारतें हैं। भारत में प्रतिष्ठित संरचनाओं के निर्माण की परंपरा दो हजार साल पुरानी रही है।
भारत में निर्माण कार्य हर दिन जारी हैं, लेकिन इसमें एक बदलाव है। हर नागरिक निजी निर्माण और सार्वजनिक निर्माण की गुणवत्ता तथा स्थायित्व में अंतर जानता है। दोनों तरह के निर्माण के लिए भवन निर्माता नियुक्त किए जाते हैं, लेकिन उनका व्यवहार अलग-अलग होता है। प्रक्रियाएं भी अलग होती हैं।
निजी बनाम सार्वजनिक निर्माण
इस निबंध में मेरा ध्यान सार्वजनिक धन से किए जाने वाले सार्वजनिक निर्माण पर है। निजी निर्माण की गुणवत्ता वास्तुकार, ठेकेदार और धन की उपलब्धता पर निर्भर करती है। सार्वजनिक निर्माण, खासकर राष्ट्रीय महत्त्व की परियोजनाओं में जमीन या पैसे की कमी नहीं होती। लेकिन हम क्या होता हुआ देख रहे हैं? सड़कें और राजमार्ग धंस जाते हैं; सीवर की पाइप फट जाती हैं और सड़कें गंदे पानी से भर जाती हैं। नई दिल्ली के अशोक मार्ग पर पिछले अठारह महीनों में सीवर की पाइप फटने से तीसरी बार सड़क धंस गई। कारें और बसें सड़क पर बने बड़े गड्ढों में गिर जाती हैं।
गुजरात के मोरबी में एक पुल मरम्मत के चार दिन बाद ही टूट गया था, 141 लोगों की हुई थी मौत
ग्वालियर में अठारह करोड़ रुपए की लागत से बनी सड़क सार्वजनिक उपयोग के लिए खुलने के पंद्रह दिन बाद ही धंस गई। गुजरात के मोरबी में एक पुल के मरम्मत के चार दिन बाद ही टूट जाने से 141 लोगों की मौत हो गई। जांच में पाया गया कि एक अयोग्य कंपनी ने मरम्मत कार्य में घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया था। बिहार में तो लोग अब हैरान नहीं होते, जब निर्माण के दौरान या कुछ समय बाद ही पुल गिर जाते हैं। एक पुल तो तीन बार गिरा। जून में भोपाल के ऐशबाग इलाके के लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि रेलवे और पीडब्लूडी के बीच सात वर्षों की खींचतान के बाद निर्मित 648 मीटर लंबे पुल पर 90 डिग्री का मोड़ था!
समय और धन की इतनी भारी बर्बादी के कई कारण हैं। पहला कारण है पूरी तरह से जवाबदेही की कमी। प्रचलित नियम ऐसा प्रतीत होता है कि ‘जब किसी विनाशकारी परियोजना के लिए कई लोग जिम्मेदार होते हैं, तो अंतत: किसी भी व्यक्ति को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता।’ सामूहिक प्रतिरक्षा का इतिहास अब सामूहिक दंडमुक्ति में बदल चुका है।
दूसरा कारण है प्रक्रिया। आमतौर पर सबसे कम बोली लगाने वाले को किसी कार्य का ठेका दिया जाता है। इससे हटकर कोई फैसला लेना सवालों और प्राय: जांच को न्योता देता है। इसलिए ऐसा करना ही क्यों है? ठेका हासिल करने वाले घटिया सामग्री का इस्तेमाल करते हैं और अधिक लाभ के लिए स्वीकृत योजना में मनमर्जी करते हैं। कई निविदाओं में बोलीदाता आपस में साठगांठ करके किसी एक को ठेका दिलाने की साजिश करते हैं, ताकि वह लागत से अधिक मूल्य पर ठेका हासिल कर ले। ठेका पाने में कामयाब रहने वाला इस अतिरिक्त राशि का इस्तेमाल घूस देने के लिए करता है।
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डिजाइन, नक्शा और लागत का अनुमान तैयार करने और निगरानी करने वाले कर्मी कम योग्यता वाले होते हैं। वरिष्ठ अधिकारी (जो उच्च पदों पर पहुंच चुके हैं) डिजाइन और सामग्री में सुधार, उन्नत निर्माण तकनीक और उपकरणों से वाकिफ नहीं होते हैं तथा श्रम, धन व समय की बचत करने वाली कुशल प्रबंधन पद्धतियों से भी अनभिज्ञ होते हैं।
एक बड़ा कारण है राजनीतिक भ्रष्टाचार। मंत्रियों में ‘लाभकारी’ विभागों के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। कई राज्यों में विभागों के लिए एक ‘रेट कार्ड’ चलता है। कुछ विभाग व एजंसियां बदनाम हैं- पीडब्लूडी सबसे ऊपर है। डीडीए और उसके जैसी संस्थाएं जो कम लागत वाले आवास (वास्तव में, कंक्रीट की झुग्गियां) बनाती हैं, शीर्ष पर हैं। राजमार्ग और रेलवे भी पीछे नहीं हैं।
जटिल गांठ को काटना होगा
यह एक ऐसी जटिल गांठ है, जिसे खोलना नहीं, काटना पड़ेगा। यानी जो सार्वजनिक एजंसियां निर्माण कार्य करती हैं, उन्हें धीरे-धीरे समाप्त करना होगा। अतीत में इस व्यवस्था को सुधारने के प्रयास विफल रहे हैं और आगे भी ऐसा ही होगा। इसके उलट, निजीकरण और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ने दूरसंचार, बिजली वितरण, परिवहन, खनन और तेल खोज जैसे क्षेत्रों में गुणवत्ता को बेहतर किया है।
यही रास्ता सार्वजनिक निर्माण में भी अपनाना चाहिए। शुरुआती दौर में लागत जरूर बढ़ेगी। गठजोड़ की बाधाएं उत्पन्न होंगी, कमियां सामने आएंगी। लेकिन हमें सुधार करते रहना होगा और निजी क्षेत्र को सार्वजनिक वस्तुओं के निर्माण की जिम्मेदारी देने के नए रास्ते पर विश्वास बनाए रखना होगा, बशर्ते उसमें वास्तविक व स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो।