भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के खुलते आख्यान ने व्यापार और वित्तीय जगत का ध्यान आकर्षित किया है। शर्लक होम्स ने कहा था, ‘अगर आप अंधविश्वास, नाटकीयता और अराजकता को हटा दें, तो आपके पास सिर्फ बेजान तथ्य रह जाएंगे।’ इस आख्यान में अंधविश्वास यह है कि सरकार हमेशा आम लोगों के हक में बोलती और काम करती है। नाटकीयता यह है कि आख्यान में बड़े व्यवसाय छोटे निवेशकों के खिलाफ खड़े नजर आते हैं और अंत में सबक यह कि हमें खून-खराबे से बचना चाहिए। अराजकता इस अर्थ में है कि बहुत-से लोग बहुत-सी आवाजों में बोलते हैं और नतीजा सिर्फ शोर होता है।
अगर आप अंधविश्वास, नाटकीयता और अराजकता को हटा दें, तो आपको सच्चाई नजर आ जाएगी। मुख्य प्रश्न यह था कि एक व्यावसायिक समूह में निवेश का स्रोत क्या था? समूह ने इनकार किया कि उसने कोई गलत काम किया है और दावा किया कि सारा पैसा वैध था। संदेह करने वालों ने आरोप लगाया कि पैसा ‘ओवर-इनवाइसिंग’ और ‘राउंड-ट्रिपिंग’ के जरिए आया, और वह अवैध था। ‘सेबी’ ने मामले की जांच की और रपट दी कि उसे प्रथम दृष्टया कुछ भी गलत नहीं मिला, मगर संदेह करने वाले उससे संतुष्ट नहीं थे। आखिरकार, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति सप्रे की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय समिति से जांच कराने और रपट देने को कहा।
समिति ने क्या पाया
न्यायमूर्ति सप्रे समिति ने जो पाया- और वह जो नहीं खोज सकी- वह महत्त्वपूर्ण है। समिति ने पाया कि बारह विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआइ) सहित तेरह विदेशी निवेशक शामिल थे। हर एफपीआइ के ‘लाभ उठाने वाले मालिक’ के बारे में खुलासा किया गया था, लेकिन अंतिम लाभ कमाने वाले मालिक- शृंखला में अंतिम वास्तविक व्यक्ति- का खुलासा नहीं किया गया था। क्यों? क्योंकि अंतिम वास्तविक व्यक्ति के बारे में खुलासा करने की आवश्यकता 2018 में समाप्त कर दी गई थी! फिर भी, ‘सेबी’ ने दावा किया कि उसने अक्तूबर 2020 से तेरह विदेशी संस्थाओं के स्वामित्व की जांच की थी, मगर उसे कोई नतीजा नहीं मिला। समिति की टिप्पणी तीखी थी: ‘ऐसी जानकारी न मिल पाने की वजह से ‘सेबी’ खुद संतुष्ट नहीं हो पा रहा है कि इसे लेकर उठे संदेह को निर्मूल किया जा सकता है। प्रतिभूति बाजार नियामक को गड़बड़ी की आशंका है, लेकिन साथ ही उसे संबंधित विनियमों में विभिन्न शर्तों का अनुपालन भी मिलता है। इसलिए, रेकार्ड से मुर्गी और अंडे वाली स्थिति का पता चलता है।
इससे जुड़े सवाल पर कि क्या निवेशक या उनके लाभ पाने वाले मालिक निवेशक कंपनियों के ‘संबंधित पक्ष’ थे, समिति ने पाया कि ‘संबंधित पक्ष’ और ‘संबंधित पक्ष लेनदेन’ जैसे शब्दों में नवंबर 2021 में काफी हद तक संशोधन किया गया था, लेकिन संभावित प्रभाव के साथ, कुछ 1 अप्रैल, 2022 से और कुछ 1 अप्रैल, 2023 से लागू हुए! इस पहलू पर समिति की टिप्पणी भी उतनी ही तीखी थी: ‘संभावित रूप से स्पष्ट शर्तें बनाने का रास्ता अपनाने के बाद, संबंधित पक्ष लेनदेन को नियंत्रित करने वाले लेनदेनों में अंतर्निहित सिद्धांतों का परीक्षण करने की व्यावहारिकता खत्म हो गई है।’ समिति का अंतिम निष्कर्ष था कि ‘… ऐसा लगता है कि एफपीआइ के स्वामित्व ढांचे पर ‘सेबी’ की विधायी नीति एक दिशा में आगे बढ़ी है, जबकि ‘सेबी’ द्वारा प्रवर्तन विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहा है।’
सेबी ने जांच जारी रखी
फिर भी, सेबी ने चौबीस विशिष्ट मामलों में अपनी जांच जारी रखी। जब समिति ने अपनी रपट सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी, तो अदालत ने दलीलें सुनी और 3 जनवरी, 2024 के आदेश में ‘सेबी’ की कार्रवाई को बरकरार रखा। अदालत ने ‘सेबी’ को तीन महीने में अपनी जांच पूरी करने का भी निर्देश दिया। अब सात महीने बीत चुके हैं।
हितों का टकराव
सभी ने सोचा था कि ‘शार्टसेलर’, हिंडनबर्ग रिसर्च के आरोपों को जनवरी 2024 में चुपचाप दफना दिया जाएगा, लेकिन ‘शार्टसेलर’ अगस्त 2024 में फिर से सुर्खियों में आया, जब उसने ‘सेबी’ की अध्यक्ष माधबी पुरी बुच और उनके पति धवल बुच के खिलाफ आरोप लगाए। सुश्री बुच को अप्रैल 2017 में सेबी का पूर्णकालिक सदस्य नियुक्त किया गया था। अपना कार्यकाल पूरा करने और एक अंतराल के बाद, उन्हें 1 मार्च, 2022 को अध्यक्ष नियुक्त किया गया। जब 2018 और 2021-24 में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गए, तो सुश्री बुच ‘सेबी’ में निर्णय लेने वाले पद पर थीं। सुश्री बुच के खिलाफ हितों के टकराव के आरोप लगे हैं।
ऐसा लगता है कि उनके और उनके पति के उन संस्थाओं में आर्थिक हित जुड़े थे, जिनकी ‘सेबी’ द्वारा जांच की गई थी और न्यायमूर्ति सप्रे समिति द्वारा समीक्षा की गई थी। सुश्री बुच ने अपने निवेश को स्वीकार किया, लेकिन स्पष्टीकरण भी दिया कि वे तब किए गए थे जब वे और उनके पति निजी नागरिक थे; उन्होंने ‘सेबी’ में नियुक्ति के बाद उन्होंने निवेश को भुनाया था; और संबंधित कंपनियां उसके तुरंत बाद निष्क्रिय हो गई थीं। मुद्दा यह नहीं है कि सुश्री बुच की ओर से कोई गलत काम किया गया था या वास्तव में हितों का टकराव था। मुद्दा यह नहीं है कि क्या सरकार व्यवसाय समूह को बचाने के लिए सुश्री बुच को बचा रही है। बल्कि, यह मुद्दा बहुत सरल और सीधा है कि क्या सुश्री बुच ने अपने पिछले संबंधों और कार्यों- और संभावित हितों के टकराव- का खुलासा ‘सेबी’, सरकार, न्यायमूर्ति सप्रे समिति और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष किया?
जाहिर है, नहीं। न ही सुश्री बुच ने जांच से खुद को अलग किया। यह मानते हुए कि सभी तथ्य सुश्री बुच के पक्ष में हैं, कम से कम उन्होंने एक गंभीर और दोषपूर्ण गलती की है। उन्हें मामले का खुलासा करना चाहिए था और खुद को मामले से अलग कर लेना चाहिए था। उनकी भागीदारी ने जांच को कलंकित किया है। उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए और आरोपों की नए सिरे से जांच होनी चाहिए।