इस बार यानी 2024 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद मैंने भविष्यवाणी की थी कि भाजपा की अगुआई वाली सरकार देश को वैसे ही चलाएगी, जैसे वह पिछले दो कार्यकालों में चलाती आई है। भाजपा को इस बार 240 सीटें (साधारण बहुमत से कम) मिलीं, पर उसकी कम ताकत बाधा नहीं बनी, क्योंकि तेदेपा (16 सीटें) और जद-एकी (12 सीटें) ने उसे महत्त्वपूर्ण समर्थन दे दिया। फिर अन्य सहयोगियों के समर्थन से राजग की कुल सीटों की संख्या 293 तक पहुंच गई- हालांकि यह संख्या पिछले चुनावों में ‘अकेले भाजपा’ की कुल सीटों 282 (2014) और 303 (2019) से बहुत अलग नहीं है। नरेंद्र मोदी ने बहुत जल्दी अपने पार्टी के सदस्यों और सहयोगियों को यह यकीन दिला दिया कि उन्हें 2014 और 2019 की तरह ही लोगों का समर्थन प्राप्त है। इस तरह निर्वाचित राजग सांसदों की शुरुआती घबराहट खत्म हो गई।
वापस वही अहंकार
राजनीतिक टिप्पणीकारों ने भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को ‘अल्पमत’ सरकार बताया, जिससे मोदी पर अधिक सतर्क और संयमित रहने का दबाव पड़ा। मैं इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूं। उन्हें लगा था कि मोदी संसद के प्रति अधिक विनम्र होंगे, लेकिन शीतकालीन सत्र में उनकी बात झूठ साबित हो गई। जाहिर है, मोदी के निर्देश पर मंत्रियों और सांसदों ने हमेशा की तरह आक्रामक रुख अख्तियार किया, संसदीय नियमों और परंपराओं के प्रति बहुत कम सम्मान प्रदर्शित किया और विपक्ष को रौंद डाला। इस मामले में, आमतौर पर विनम्र रहने वाले राजनाथ सिंह और संयमित रहने वाले एस जयशंकर के उपेक्षापूर्ण और अभियोगात्मक हस्तक्षेपों का उदाहरण लिया जा सकता है। किरेन रिजीजू अपने अहंकारी तौर-तरीके पर वापस लौट आए।
शीतकालीन सत्र के अंतिम सप्ताह में, सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान (एक सौ उनतीसवां) संशोधन विधेयक पेश किया और तुरंत उसे संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया। यह पर्याप्त संख्या न होने के बावजूद जबरन दबाव बनाने का प्रयास था। विधेयक पेश करते समय इसके पक्ष में 263 और विपक्ष में 198 वोट पड़े। सरकार यह साबित नहीं कर पाई कि उसे संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने के लिए आवश्यक उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। विधेयक को गिराने के लिए विपक्ष को लोकसभा में केवल 182 वोटों की आवश्यकता है। इंडिया गठबंधन के पास 234 सीटें हैं।
वजनदार वजहें
विधेयक को क्यों खारिज किया जाना चाहिए? इसकी कई वाजिब वजहें हैं :
सबसे पहली बात, संविधान में यह प्रावधान है कि लोकसभा (अनुच्छेद 83) और विधानसभाओं (अनुच्छेद 172) को पांच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाना चाहिए। संविधान की एक बुनियादी विशेषता है, और संसद के पास संविधान की बुनियादी विशेषताओं में संशोधन करने की शक्ति नहीं है। मान लीजिए कि संविधान संशोधन विधेयक में एक विचित्र परिवर्तन का प्रस्ताव किया जाए- कि विधानसभाओं को एक बार में एक वर्ष की अवधि के लिए चुना जाएगा। यह असंवैधानिक होगा, क्योंकि इस बदलाव से चुनाव एक प्रहसन और विधानसभाएं एक सर्कस बन कर रह जाएंगी। इसी तरह, अगर यह निर्धारित कर दिया जाए कि विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल के साथ-साथ चलेगा, तो विधानसभाएं- और राज्य सरकारें- एक हास्यास्पद तमाशा बन कर रह जाएंगी। एक निर्वाचित विधानसभा का कार्यकाल छह महीने से पांच साल के बीच कुछ भी हो सकता है। याद कीजिए, 1996, 1998 और 1999 में लोकसभा के तीन चुनाव हुए थे। अगर 1990 के दशक में एक राष्ट्र एक चुनाव का प्रस्ताव लागू होता, तो सभी राज्य विधानसभाओं में तीन साल में तीन चुनाव हो जाते और हम स्थिर राज्य सरकारों की अवधारणा को अलविदा कह देते।
दूसरी बात, संसदीय लोकतंत्र में सरकार के लिए एक निश्चित कार्यकाल की अवधारणा नहीं होती। केंद्र सरकार को हर दिन लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए- इसका अर्थ है कि उसे हर दिन सांसदों के बहुमत का समर्थन प्राप्त होना चाहिए। अगर कभी केंद्र सरकार अपना बहुमत खो देती है, तो सिर्फ इसीलिए राज्य सरकारों को, जो राज्य विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी हैं, संवैधानिक आदेश द्वारा अस्थिर क्यों किया जाना चाहिए? मान लीजिए, किसी विधानसभा चुनाव के एक महीने बाद, लोकसभा भंग हो जाती है: तो उस राज्य की विधानसभा के साथ-साथ सभी विधानसभाओं को क्यों भंग कर दिया जाना चाहिए?
तीसरा, कोई भी विपक्षी दल, जो किसी राज्य में सरकार चलाता है, प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर वोट नहीं कर सकेगा, क्योंकि अगर प्रधानमंत्री विश्वासमत खो देते हैं और लोकसभा भंग हो जाती है, तो सभी विधानसभाएं भी भंग हो जाएंगी। मुख्यमंत्री अपना और अपनी विधानसभाओं का कार्यकाल बचाने के लिए उस वक्त के प्रधानमंत्री का समर्थन करने के लिए दौड़ पड़ेंगे!
चौथा, संसदीय लोकतंत्र का यह अलिखित नियम है कि लोकसभा का समर्थन प्राप्त कोई प्रधानमंत्री किसी भी समय राष्ट्रपति को सदन भंग करने और चुनाव कराने की सलाह दे सकता है। उसके मुताबिक राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह स्वीकार करनी चाहिए और नए चुनाव कराने चाहिए। एक चालाक प्रधानमंत्री, अगर उसे यह विश्वास हो कि उसकी पार्टी केंद्र में फिर से चुनाव जीत जाएगी, तो वह विपक्षी दलों द्वारा गठित राज्य सरकारों से छुटकारा पाने के लिए लोकसभा को समय से पहले भंग करने की सलाह दे सकता है।
इस तरह राज्य सरकारों की किस्मत विधानसभाओं के हाथों में नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के हाथों में होगी। यह संसदीय लोकतंत्र में संघवाद के प्रतिगामी सिद्धांत है।
पांचवां, जब किसी उम्मीदवार का कार्यकाल अनिश्चित हो, तो उसे चुनाव क्यों लड़ना चाहिए? और लोग किसी उम्मीदवार को वोट क्यों दें, जब उन्हें पता ही नहीं कि विधायक कितने समय तक उनका प्रतिनिधित्व करेगा?
छठवीं बात, प्रस्तावित विधेयक के पीछे असली इरादा राज्य-विशेष के दलों को कमजोर और अंतत: बर्बाद करके उनसे मुक्ति पाना है, जो भाजपा को चुनाव जीतने से रोकते हैं।
मसलन, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पंजाब, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, जहां भाजपा को क्षेत्रीय दलों की वजह से चुनाव जीतने में मुश्किलें पेश आती हैं। संसद में मतों के मौजूदा गणित को देखते हुए, स्पष्ट है कि विधेयक गिर जाएगा। फिर, विधेयक क्यों पेश किया गया? क्या भाजपा ने विधेयक पारित करने के लिए कोई ‘मैकियावेलियन’ योजना बनाई है? यह तो समय ही बताएगा।