दिवंगत शख्स के बारे में अच्छा ही अच्छा कहते हैं। एक शख्स के तौर पर जयललिता के बारे में मैं कोई कठोर बात नहीं कहूंगा, बस पिछले पच्चीस वर्षों की घटनाओं का तनिक हवाला दूंगा।एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) अपनी पार्टी (द्रमुक) से 1972 में अलग हो गए और अखिल भारतीय अन्नाद्रमुक पार्टी बना ली। वह 1977, 1980 और 1984 में मुख्यमंत्री चुने गए और मृत्युपर्यन्त अपराजेय बने रहे। उन्होंने जयललिता का चयन किया और उन्हें राजनीतिके गुर सिखाए। एमजीआर के निधन के बाद अन्नाद्रमुक विभाजित हो गई और 1989 के चुनाव में उसे हार का मुंह देखना पड़ा, लेकिन पार्टी जयललिता की अगुआई में फिर से एकजुट हुई। जल्दी ही जयललिता का अन्नाद्रमुक पर एकछत्र नियंत्रण हो गया और उन्होंने पार्टी को अपने वफादारों के जमावड़े में बदल दिया, जो उन्हें देवी की तरह पूजते थे।

खतरनाक राह पर

जयललिता पहली बार 1991 में मुख्यमंत्री चुनी गर्इं। अपने पहले कार्यकाल (1991-96) में उन्होंने और उनके दस्ते (वीके शशिकला तथा उनके ग्रुप) ने भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों से धन इकट्ठा करने का खतरनाक रास्ता पकड़ लिया। हालांकि जयललिता ने तीन बार चुनाव जीता (2001, 2011 और 2016) और उन्हें मृत्युपर्यंत मतदाताओं के बड़े हिस्से का समर्थन हासिल था, पर अन्नाद्रमुक की प्रतिष्ठा को स्थायी रूप से अपूरणीय क्षति पहुंची। यह वही पार्टी नहीं रह गई थी जिसकी स्थापना एमजीआर ने की थी। सुप्रीम कोर्ट के सामने आए मामले में, जयललिता और अन्य पर, 1991-96 के कार्यकाल के दौरान आय से अधिक संपत्ति जमा करने के आरोप थे। मुख्यमंत्री के तौर पर जयललिता के दूसरे और तीसरे कार्यकाल के दौरान उनके खिलाफ लंबित मामले एक के बाद एक खारिज होते गए। आय से अधिक संपत्ति का मामला बना रहा, जैसे कि कुछ और मामले भी चलते रहे। न तो मुकदमे और न कानूनी झटके शशिकला व उनके ग्रुप को रोक सके। उन्होंने दूसरे व तीसरे कार्यकाल के दौरान और ज्यादा धन इकट्ठा किया। इस पर हैरानी होती है कि कुशाग्र बुद्धि की होने के बावजूद जयललिता यह क्यों नहीं समझ सकीं कि वह एक गहरे खड््ड में जा रही हैं जहां से वह सही-सलामत नहीं लौट सकतीं। हालांकि जयललिता के पीछे तमिलनाडु की जनता के बड़े हिस्से का समर्थन था, लेकिन जनता का वही हिस्सा चुपचाप शशिकला व उनके ग्रुप के खिलाफ हो गया। बहुत कम राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने जनता के रुख में रहे इस द्वैत को लक्षित किया होगा।

5 दिसंबर 2016 को जयललिता का निधन हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने 14 फरवरी, 2017 को आय से अधिक संपत्ति के मामले में फैसला सुनाते हुए निचली अदालत के निर्णय को बहाल कर दिया और शशिकला व अन्य दो के खिलाफ सुनाई गई सजा को लागू करने का आदेश दिया। जयललिता जेल जाने के कलंक से बच गर्इं। अन्नाद्रमुक के दोनों धड़े अदालती फैसले की गंभीरता और महत्त्व को नहीं समझ पाए। एक धड़ा फैसले पर खुश है, जाहिर है उसने इस तथ्य से मुंह मोड़ लिया है कि जयललिता भी दोषी पाई गई थीं! दूसरा धड़ा अदालती फैसले को स्वीकार करना नहीं चाहता, बावजूद इसके कि जिसे कुछ दिन पहले उन्होंने नेता चुना था उसे अब चार साल जेल में बिताने होंगे! अलबत्ता तमिलनाडु के लोग इतने निश्चिन्त और इतने क्षमाशील नहीं हो सकते।

प्रचंड महत्त्वाकांक्षा

अब, जयललिता के निधन के बाद, अन्नाद्रमुक एक दूसरी आत्मघाती राह पर चल पड़ी है। कुछ दिन तक एक लुंज-पुंज इंतजाम रहा- पार्टी की महासचिव शशिकला और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ओ पन्नीरसेलवम। लेकिन जैसी कि अटकलें लगाई जा रही थीं- शशिकला और उनके परिवार की प्रचंड महत्त्वाकांक्षा के आगे यह इंतजाम बिखर गया। उनका इरादा केवल पार्टी को अपने हाथ में लेने का नहीं, सरकार पर भी काबिज होने का था। यह एक गुस्ताखी भरा कदम था, लेकिन इसमें नया कुछ नहीं था, यह ढिठाई के उस सिलसिले की ही एक कड़ी था जिसका इजहार शशिकला मंडली 1996 से करती आ रही थी। मगर लोगों की खुलकर नाराजगी तभी सामने आई जब शशिकला ने पार्टी का महासचिव पद हथिया लिया, और फिर इसके कुछ ही दिन बाद, वह अन्नाद्रमुक के विधायक दल की नेता भी बन बैठीं। सोशल मीडिया में उनकी जमकर भर्त्सना हुई, पर लगता है शशिकला ने उसका संज्ञान नहीं लिया, या इससे भी खराब बात हो सकती है, कि उन्होंने इसकी तनिक परवाह न की हो। पहले अन्नाद्रमुक के जनाधार में दरार पड़ी: जनमत का बड़ा हिस्सा, खासकर स्त्रियां व गरीब तबके उनके विरोध में मुखर हुए। पार्टी के सामान्य कार्यकर्ता हतप्रभ थे, पर मायूस और निष्क्रिय। ये सिर्फ पार्टी के पदाधिकारी और विधायक थे, जिन्होंने शशिकला के आगे समर्पण कर दिया और ऐसा व्यवहार किया जैसे उनके कारिंदे हों।

आखिरी खेल

अब अन्नाद्रमुक सीधे विभाजन की ओर भी बढ़ चली है। अगर अन्नाद्रमुक के विधायक शशिकला की जकड़न से बाहर नहीं आ सकते, या नहीं आएंगे, अगर विधायक दल के नए नेता पलानीस्वामी बहुमत साबित करने में सफल हो जाते हैं, तो जनता और पार्टी/सरकार के बीच खाई और चौड़ी होगी।
जो संकेत मिल रहे हैं वे शुभ नहीं हैं। जेल जाने के लिए बेंगलुरु रवाना होने से ऐन पहले शशिकला ने अपने दो भतीजों को पार्टी में शामिल किया (जिन्हें जयललिता ने निकाल दिया था), और उनमें से एक (दिनाकरन) को अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का संचालन करने के लिए उप-महासचिव नियुक्त किया। यह अचंभे में डालने वाली बात है कि शशिकला यह मान कर चल रही हैं कि वे जेल से भी, अपने कठपुतली नुमाइंदों के जरिए, अगले चार साल तक पार्टी व सरकार चला सकती हैं! उनके ताजा कदमों ने उन्हें तमिलनाडु की जनता से और दूर कर दिया है। आज शशिकला तमिलनाडु के सार्वजनिक जीवन की सबसे निंदित शख्सियत हैं।
अपने चौवालीस साल के इतिहास में, अन्नाद्रमुक लगता है अब अपने खात्मे की तरफ बढ़ रही है। यह भाग्य की एक क्रूर विडंबना है कि जो पार्टी भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करते हुए बनी थी, वह अपने तीसरे (और अंतिम?) सुप्रीमो के भ्रष्टाचार की बलि चढ़ेगी।