कांग्रेस पार्टी का घोषणापत्र जिस दिन राहुल गांधी पेश कर रहे थे पिछले हफ्ते, मैं दूर किसी गांव में थी, लेकिन गांव में टीवी था, तो मैंने ध्यान से पूरा समारोह देखा। बहुत ध्यान से मैंने कांग्रेस अध्यक्ष का भाषण सुना। सुनने के बाद ऐसा लगा जैसे मैंने किसी राजा का भाषण सुना हो, जिसमें वे अपनी दरियादिली दिखाने के वास्ते अपनी प्रजा को दान कर रहे हों कई सारी नेमतें। रोजगार, नगद पैसा, स्कूल, स्वास्थ्य सेवाएं और किसानों के लिए और भी बहुत कुछ। एक अलग किसानों का बजट और यह वादा भी कि अगर कोई किसान अपना कर्ज लौटा न सके, तो उसको अपराध नहीं माना जाएगा कांग्रेस का दौर वापस जब आएगा।

अध्यक्ष महाराज का ध्यान उस दिन खासतौर पर अपनी प्रजा के उस वर्ग पर आकर्षित था, जो गरीबों में सबसे गरीब माने जाते हैं। उनके लिए यह नारा था : गरीबी पर वार, बहत्तर हजार। ऐसे बोले कांग्रेस अध्यक्ष जैसे कि यह रकम अपनी जेब से निकाल कर सीधा गरीबों को दे रहे हों। लेकिन ऐसा तो है नहीं। यह पैसा इस देश के उन मुट्ठीभर लोगों का है, जो ईमानदारी से कर देते हैं सरकार को। जिस दिन न्याय (न्यूनतम आय योजना) लागू होगी, इन करदाताओं के टैक्स बढ़ जाएंगे, क्योंकि कहीं न कहीं से लाना होंगे वे तीन सौ साठ लाख करोड़ रुपए, जिसके बिना न्याय असंभव है। राहुल में लेकिन गरूर इतना था कि उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया इस बात पर। बस वादे सुनाते गए, सुंदर सपने दिखाते गए जैसे यह सब वे अपने निजी बल पर कर सकते हों। बिल्कुल ऐसा कभी किया करते थे राजे-महाराजे। सो, इस दृश्य को देख कर मुझे याद आया कि मैं वंशवाद का इतना विरोध क्यों करती हूं। याद आया कि भारत के लोकतंत्र को किस तरह इस ‘समाजवादी’ सामंतवाद ने खोखला कर दिया है।इतना खोखला हो गया है हमारा लोकतंत्र कि हमारे तकरीबन सारे राजनीतिक दल अब विरासत में देते हैं राजनेता अपने वारिसों को। पूरी सूची पेश करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि आप गूगल करके देख सकते हैं कि किस तरह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर राज्य में अब एक किस्म का सामंतवाद आ चुका है। सामंतवाद की समस्या है कि उसके आने से वारिसों को इतना घमंडी बना देता है कि उनको लगने लगता है कि राज करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसी भावना राहुल गांधी में जाहिर ज्यादा ही होगी, क्योंकि जहां बाकी वारिस सिर्फ एक राज्य चलाने की उम्मीद रखते हैं, राहुल गांधी तो भारत चलाने की उम्मीद रखते हैं।

सो, जबसे एक चायवाले ने उनसे उनका वह अधिकार छीन लिया है, जो वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं, तबसे जब भी राहुल गांधी मोदी के सामने पेश आए हैं, तो उन्होंने इतना घमंड दिखाया है कि प्रधानमंत्री पद की गरिमा को भी भूल गए हैं कई बार। पहली बार ऐसा पेश आए लोकसभा के अंदर, जब उन्होंने भाजपा सांसदों की तरफ इशारा करते हुए कहा ‘आपका प्रधानमंत्री’। हंगामा मच गया, जिसमें ऊंची आवाजों में सांसदों ने याद दिलाया राहुल गांधी को कि प्रधानमंत्री देश के होते हैं, किसी विशेष दल के नहीं। राजा राहुल कहां सुनने वाले थे यह बात, सो जब भी मोदी के सामने आए, उन्होंने स्पष्ट किया कि वे उनकी जरा भी कद्र नहीं करते हैं। अपने भाषणों में इस बात को और भी ज्यादा स्पष्ट किया राजनीतिक भाषा की सारी मर्यादाएं तोड़ कर। सो, कभी मोदी को चोर कहते हैं, तो कभी उनको झूठा कहते हैं। मोदी की कद्र उन्होंने तब भी नहीं की, जब बालाकोट के हमले के बाद उन्होंने वायु सेना को बधाई दी, लेकिन मोदी की हिम्मत को नहीं। क्या वायु सेना पाकिस्तान के अंदर घुस कर हमला कर सकती थी बिना प्रधानमंत्री की इजाजत के?

इतनी मगरूरी से पेश आने लगे हैं कांग्रेस अध्यक्ष जैसे वे अभी से बन गए हों भारत के न सिर्फ प्रधानमंत्री, बल्कि सम्राट। ऐसा क्यों न हो, जब स्वतंत्र भारत के सत्तर वर्ष के इतिहास में से उनके परिवार का राज रहा है पचपन वर्षों का? जहां भी सामंतवाद कायम हो जाता है- चाहे वह समाजवाद के भेस में ही क्यों न हो- वहां प्रजा इतनी दब जाती है कि राजा साहब की कोई भी ज्यादती सह लेती है चुप करके। सो, हमारे लोकतांत्रिक भारत में मतदाता सहते हैं चुप करके यह भी कि उनके प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद आलीशान कोठियों में रहते हैं, विदेशों में छुट्टियां मनाने, इलाज करवाने जाते हैं जनता के पैसों से, और अपने बच्चों को प्राइवट स्कूलों में भेजते हैं, क्योंकि जानते हैं कि जो स्कूल और कॉलेज उन्होंने जनता के लिए बनाए हैं, वे बिलकुल बेकार हैं। चुनाव के इस मौसम में क्या हमको इन चीजों के बारे में सोचना नहीं चाहिए? क्या इन सामंतवादी तरीकों पर सवाल नहीं उठाने चाहिए? क्या उन वारिसों को अस्वीकार करने का साहस नहीं दिखाना चाहिए, जो जनता की सेवा के बहाने सिर्फ अपनी और अपने परिवार की सेवा करते आए हैं? यह काम वास्तव में हम पत्रकारों का है, लेकिन हम कांग्रेस पार्टी का साथ हमेशा देते आए हैं, क्योंकि हम अपने आप को ‘सेक्युलरिज्म’ के ठेकेदार मानते हैं। मोदी ने गोरक्षकों को खुली छूट देकर शायद अपने शासनकाल की सबसे बड़ी गलती की, क्योंकि ऐसा करके साबित कर दिया कि वास्तव में कांग्रेस के दौर सेक्युलर रहे हैं और उनका दौर पूरी तरह सांप्रदायिक। सवाल है कि अगर यह बात सच भी हो, तो क्या हमारा फर्ज नहीं बनता है सेक्युलर दलों की सामंतवादी आदतों की तरफ ध्यान दिलाना? इस फर्ज को हमने नहीं निभाया है। सो, आज राहुल गांधी इतना घमंड दिखाते हैं जैसे वे चुनाव जीतने नहीं निकले हैं, अपना जन्मसिद्ध अधिकार वापस लेने आए हैं।