संसद सर्वोच्च विधायी संस्था है। प्रधानमंत्री देश की कार्यपालिका के प्रमुख हैं। संसद में दिए गए प्रधानमंत्री के वक्तव्य की निश्चय ही एक पवित्रता और वैधानिक महत्ता होती है। 27 फरवरी 2015 को, राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद, धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था: ‘‘कई बार यह कहा गया है कि हम मनरेगा को खत्म करने जा रहे हैं या खत्म कर देंगे…आप में से अधिकतर यह मानते हैं कि मुझमें भरपूर राजनीतिक समझ है। और वह राजनीतिक समझ मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती कि मनरेगा को बंद कर दूं। मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता, क्योंकि मनरेगा आपकी विफलताओं का स्मारक है। आजादी के साठ सालों बाद, आपकी वजह से लोगों को गड्ढे खोदने पड़ रहे हैं, इसलिए यह आपकी नाकामियों का सबसे बड़ा उदाहरण है, और मैं अपनी पूरी ताकत से इस बात का प्रचार करने जा रहा हूं। मैं दुनिया को बताऊंगा कि आप जो गड्ढे खोद रहे हैं वे साठ वर्षों की आपकी गलतियों की ओर इशारा करते हैं।
क्या यह कांग्रेस को लक्ष्य कर निर्मम, राजनीतिक ताना मारना था? या यह सोच-विचार और विश्लेषण के बाद निकाला गया निष्कर्ष था? यह कहना मुश्किल है, जैसे कि प्रधानमंत्री की अधिकतर टिप्पणियों के बारे में। ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के बारे में यह आशंका निराधार नहीं है कि इसे धीरे-धीरे समेट लिया जाएगा या खत्म कर दिया जाएगा।
कोशिश हुई, पर नाकाम:
सरकार ने योजना में कटौती के प्रयास किए। फंड आबंटित करने में देर की गई, काम की मांग को पूरा कर पाना राज्य सरकारों के लिए मुश्किल बनाया गया। इसके ठोस प्रमाण हैं। पंद्रह दिनों के भीतर भुगतान किए जाने का आंकड़ा 2013-14 में पचास फीसद था, जो गिर कर 2014-15 में 26.85 फीसद रह गया। इस योजना से सृजित होने वाले मानव श्रम दिवसों की संख्या घट गई, जिसे निम्नलिखित आंकड़े में देखा जा सकता है:
2012-13 : 230 करोड़ मानव श्रम दिवस
2013-14 : 220 करोड़
2014-15 : 166 करोड़
नतीजतन, सौ दिन तक काम पाने वाले परिवारों की संख्या 2012-13 में जहां इक्यावन लाख से ऊपर थी, 2014-15 में यह घट कर पच्चीस लाख पर आ गई। इस योजना को, जिसे मोदी ने हिकारत से गड्डे खोदना करार दिया, दस वर्ष हो गए हैं। और इस अवसर को उत्साह तथा तामझाम के साथ किसने मनाया? राजग सरकार ने! पूरे मीडिया में सरकार इस योजना का श्रेय लेती दिख रही थी!
इस साल सूखे के कारण पैदा हुई विषम स्थिति का मतलब है मनरेगा की मांग में भारी वृद्धि होना। सरकार ने मनरेगा के तहत मिलने वाले काम में सूखा प्रभावित इलाकों में पचास दिनों की बढ़ोतरी की है। ऐसा लगता है कि सरकार को इस योजना की अच्छाई नजर आने लगी है। पर उसके लिए मायूस करने वाली बात यह जरूर है कि वह इस योजना का नाम आसानी से बदल कर इसका श्रेय अपने खाते में दर्ज नहीं कर सकती। मनरेगा इतना आमफहम है कि इसका नाम-परिवर्तन आसान नहीं हो सकता।
सकारात्मक पक्ष:
मनरेगा ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सहारा देने में अहम भूमिका निभाई है। पहली बात यह है कि मुसीबत के दिनों में इसने राहत पहुंचाने का महत्त्वपूर्ण काम किया है, और इस मायने में यह अपने आप चक्र की दिशा बदलने वाली तजवीज है। सूखे के दिनों में मजदूरी की मांग बढ़ जाती है। दूसरे, यह योजना स्वयं-चयन की पद्धति से काम करती है, लिहाजा लाभार्थियों के चयन में किसी के विवेकाधिकार या अपनी मर्जी चलाने की नाममात्र की गुंजाइश रहती है। तीसरे, चूंकि भुगतान सीधे बैंक या डाकघर के खाते में भेजा जाता है, दूसरी कल्याणकारी योजनाओं के मुकाबले, इस योजना में गड़बड़ी के मौके कम हैं। चौथे, मनरेगा आकस्मिक, अनियमित मजदूरी की दर बढ़ाने में सहायक हुआ है- ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति मजदूरी दस साल तक सालाना बारह फीसद की दर से बढ़ी, और यह क्रम 2014-15 तक चला।
अगर व्यापक संदर्भ में देखें तो यह योजना भारत में हो रहे रूपांतरण का एक महत्त्वपूर्ण औजार है। लोगों की एक बड़ी तादाद खेती से मैन्युफैक्चरिंग या सेवाक्षेत्र की तरफ जा रही है, या जाने को है। बहुत-से लोग अन्यत्र अपेक्षया स्थायी काम पाने से पहले एक खास सीजन में मिलने वाले काम के चलते दूरदराज जाते हैं। इसका अर्थ है कि वह काम गांव में भी पाया जा सकता है, जिन दिनों शहर में उन्हें काम नहीं होता। इसके अलावा, उन करोड़ों मजदूरों के लिए, जो गांवों में ही बने रहते हैं, मनरेगा रोजगार का अहम जरिया है, खासकर उन दिनों जब खेती में काम मिलने की संभावना बहुत कम होती है।
नकारात्मक पक्ष:
लेकिन कुछ ऐसे भी पहलू हैं जिन्हें लेकर मैं शुरू से सवाल उठाता रहा हूं। जो ‘काम’ अमूमन कराए जाते हैं वे हैं तालाबों को गहरा करना या सड़कों के किनारे की झाड़-झंखाड़ साफ करना। यह महत्त्वपूर्ण होगा, पर पंचायत को ‘काम’ के बड़े दायरे को दृष्टि में रखना चाहिए, जिसमें जल संरक्षण, नहरों का निर्माण और रखरखाव, सूखा निवारण (वनीकरण), तालाबों का जीर्णोद्धार, भूमि विकास, साफ-सफाई, ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण, बाढ़ नियंत्रण, वर्षाजल संचयन और पेयजल की उपलब्धता जैसे काम शामिल हैं। कामों की बाबत व्यापक चुनाव पंचायत (पढ़िए पंचायत प्रमुख) को ऐसे काम को चुनने की गुंजाइश देता है, जिसकी चाहत लोगों में सबसे ज्यादा हो, पर जिसकी मांग कम हो। मेरा खयाल है कि हमें इस मामले में विपरीत रुख अख्तियार करना चाहिए: पंचायत को ऐसे निर्माण-कार्यों को चिह्नित करना चाहिए जिनकी जरूरत गांव में सबसे ज्यादा हो, और उनमें से मनरेगा के काम का चुनाव करना चाहिए।
मनरेगा काम के बदले खैरात बांटने का कार्यक्रम नहीं है। मनरेगा की मजदूरी के मद में हर साल विशाल धनराशि खर्च होती है। इस योजना के तहत काम कर रहे श्रमिकों की संख्या इस समय लगभग दस करोड़ है। हमें इस श्रम-शक्ति का इस्तेमाल टिकाऊ, स्थायी और उपयोगी परिसंपत्तियों के निर्माण में करना चाहिए।
मनरेगा कभी भी ‘खड्ढे खोदना’ नहीं था; न ही यह ‘नाकामी का स्मारक’ है। पर मोदी की टिप्पणी को देखते हुए, समय आ गया है कि हम इस योजना को एक ऐसी योजना में परिणत करें, जो टिकाऊ परिसंपत्तियों का निर्माण करे और ‘सामाजिक न्याय का स्मारक’ बने।