‘घोड़े राहों की ओर मुंह किए खड़े हैं/ और मेढक घर की उस किवाड़ से लगा है/ जिसे लेकर आई है नदी/… माना कि हाव-भाव है अलग-अलग/ भाषा है जुदा-जुदा/ फिर भी यह नाभिनाल हिलता है/ इधर की हवा से भी, उधर की हवा से भी।’ इन कुछ पंक्तियों से अगर कवि का आशय समझने का प्रयास करें तो कहा जा सकता है कि रचनाकार अपनी प्रेरणा भीतरी जड़ों और बाह्य परिवेश- दोनों से ग्रहण करता है। यह बात कमोबेश सभी रचनाकारों पर लागू होगी, पर ‘नाभिनाल’ के कवि रवींद्र भारती पर पूरी तरह खरी उतरती है।

इस संग्रह में कुल चौवन कविताएं हैं। अधिकतर शांत, स्थिर, सांकेतिक, सूक्ष्म, कभी-कभी भटकाने का भ्रम कराती हुई भी सही जगह और सही समय पर पहुंचती। संग्रह की पहली कविता ‘हमशकल’ के कुछ अंश: ‘आते जाते दिनों को अपने रंग में जो हैं रंगते…/ उनकी पुतलियों में देखता है कोई अपना मुख…/ उस देखने को देखता अदीखा-सा उन्हीं में मैं भी कहीं हूं/ और यह जो मेरी एवज में बोलता है/ है मेरा हमशकल।’

कथन के बीच छोड़ दिए गए अंतरालों को अपनी ओर से भरने की प्रेरणा पाठक को देने वाली यह पद्धति अनेक कविताओं में झलकती है। ‘सपनों में ट्राम’ का आरंभ यों होता है: ‘करिश्मे की तरह छोटी-बड़ी रोशनियां/ उसके पीछे-पीछे ट्राम में दाखिल हुर्इं और/ बैठते ही चूमने लगीं उसकी पलकें, कानों की लुरकियां/ देर तक उसी तरह चूमती रहीं।’ पर वह पूरी इस तरह होती है: ‘होते हैं सभी, समय जिन्हें करता है बूढ़ा/ सिर्फ प्रेम ही है हमारा जो बूढ़ा नहीं हुआ।’

‘गुनिया’ कविता उस गायक के बारे में है, जो शताब्दियों पूर्व दीवानगी में गए लोगों में से कुछ की कथा सुनाते हुए उनका हेराया हुआ धीरज लोगों की आंखों में हेरता रहता था। एक दिन जब वह तांत की धुन के साथ धीरे-धीरे अपने को उंड़ेलता हुआ कवि को मिला तो: ‘मैंने चुल्लू बांध ली और झुक गया/ धीरे-धीरे दरिया के रंग का हो गया/ आसमान के रंग का हो गया धीरे-धीरे…’

आदि से अंत तक इस संग्रह में यही स्थिर, कोमल, चुप्पा स्वर पिरोया हुआ है; कहीं भी अधीरता नहीं, शोर नहीं, हड़बड़ी नहीं। आप टटोलने की कोशिश करें कि सचमुच यह किसका स्वर है? शमशेर का? रघुवीर का? कुंवर नारायण का? श्रीकांत का? किसी अन्य पूर्वज या समवयस्क का? यह रवींद्र भारती का अपना स्वर है- बावजूद इस प्रकटत: विराट फलक के कि ‘चुप्पियां/ पिता के अंतिम दिनों में उनके साथ थीं/ और यही, बुद्ध जब कपिलवस्तु छोड़ रहे थे/ उनके होंठों पर थीं।’

यह कविता जहां समाप्त होती है वहीं से शुरू भी होती है: ‘आस्तीनें गीली हो रही थीं/ भीग रही थीं तारीखें।’ यह मितकथन कवि-कौशल की नहीं, उस निगाह की परिणति है, जो देख सकती है कि- ‘दूर से उड़ कर पानी में आए जंगली पत्ते/ गहरे में बैठ कर मुस्कराते हैं/ जब बावली को पार करते समय/ भीग उठता है किसी का जांघ के ऊपर बटोरा हुआ कपड़ा।’

एक ओर तो है पानी में डूबे पत्तों की ‘विनोदप्रियता’, दूसरी ओर किसी को टेर भी न लगाने वाला ‘अकेले का पास’: ‘बचे हुए को छोड़ते आहिस्ता/ तेज बौछारों में उतर कर/ निकल गया वह बारिश के अंधेरे में चुपचाप/ उफनती नदियों के पीठ पीछे/ किसी को टेर भी न लगी/ यहां तक (कि) उन राहों को भी जो लोगों की पगध्वनियां/ करती हैं लिपिबद्ध।’

रवींद्र भारती जिस खास ढंग से अपने को व्यक्त करते हैं उसे आधुनिक कहते हुए भी अत्याधुनिक बताने में हिचक होती है। मध्ययुगीन कवि बिहारी के इस दोहे- ‘तंत्री नाद, कवित्त रस, सरस राग, रति रंग, अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग’ की व्यंजना से नितांत भिन्न रंवीद्र भारती की ‘बूझ-अनबूझ’ परक यह अभिव्यक्ति अपने को जितना खोलती है, उतना ही बंद भी रखती है: ‘बिछुड़ी हुई तमाम नदियां एक-एक कर आर्इं/ मुझे अंजुरी में उठाया/ सिर से लगाया।/ उसी समय सुन कर बाहर की आवाज/ पानी के साथ दरवाजे पर आ गया।’

तो भी ये रचनाएं वैकल्पिकता का वह प्रश्न उठाती हैं, जो किसी भी कवि की किसी भी रचना पर कभी भी लागू किया जा सकता है कि उसने जो कहा, क्या वही कहना चाहता था या उसके स्थान पर कह गया कुछ और? उदाहरण के लिए, जब कोई कवि कहता है: ‘जहां लिखा था ‘प्यार’, वहां लिख दो ‘सड़क’, कोई फर्क नहीं पड़ता’ तो क्या उपर्युक्त उद्धरण में भी ‘नदियां’ की जगह ‘नगर’ और ‘पानी’ की जगह ‘डगर’ कर देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा?

रवींद्र भारती की कविता के साथ इस तरह का खिलवाड़ उचित नहीं। वे जो भी कहना चाहते हैं, अचूक और खास अंदाज में अपने विशिष्ठ तेवर के साथ कहते हैं, कभी-कभी वह ‘अस्पष्ट’ या ‘अबूझ’ भले प्रतीत हो। आज की बहुतेरी कविता की तरह उनमें शाब्दिक खिलवाड़ या भ्रमोत्पादक शब्दजाल नहीं होता। वास्तव में, वे मितकथन की अनंत संभावनाओं का संधान करने वाले कवि हैं। उनकी कहन का अपना बिलकुल निजी तरीका है, जो भीड़ से उनको अलग करता है।

सौभाग्यवश, ऐसी गूढ़ता के प्रति हिंदी कविता का पाठक आज अपने को तैयार कर चुका है और वह ऐसे उपहास से विचलित नहीं होता कि ‘अगर यही ‘नई कविता’ है तो वह सरलतापूर्वक उलटे हाथ से लिख कर फेंकी जा सकती है’… स्वयं ‘निराला’ के उत्तरवर्ती गीतों को भी एक समय इसी तर्क पर खारिज किया गया था।

इन कविताओं की आंतरिक संगति कवि की प्रतिबद्धता का सुफल है, अपनी अर्जित कमाई- कोई उधार या अनुकरण का- चुराया कि उठाया माल नहीं। रवींद्र भारती को पढ़ते हुए मुझे ‘अमलतास’ के अनंतकुमार पाषाण एकाध बार याद आए। लेकिन उसे खोज फिर से बांच सकने की इच्छा जब तक पूरी नहीं होती, तब तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ उलटना-पलटना प्रीतिकर होगा।

(अजितकुमार)
नाभिनाल: रवींद्र भारती; राधाकृष्ण, 7/31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 250 रुपए।
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-किताबें मिलीं-

मनोरंजक प्रलय
अस्सी के दशक में अपने पहले कविता संग्रह से परिदृश्य पर दस्तक देने वाले राजेंद्र उपाध्याय उन कवियों में शुमार हैं, जो मुख्य काव्यधारा से बाहर हाशिये पर डाल दिए गए हैं। इतना ही नहीं, कहना और देखना यह चाहिए कि राजेंद्र उपाध्याय ने इसके बाद लगातार हर पांचवें वर्ष में एक कविता पुस्तक पेश की है। इस तरह बीते चालीस वर्षों में हम उनके आठ कविता संग्रहों से रूबरू होते हैं। यह सब कवि की सतत रचनात्मकता और सर्जनात्मकता का भी एक साक्ष्य है।

राजेंद्र उपाध्याय के प्रस्तुत कविता संग्रह मनोरंजक प्रलय की आधारभूमि ही विसंगतियों से भरे हमारे इस दौर को बेनकाब करने की कोशिश है। खुद मास मीडिया से संबद्ध होकर राजेंद्र उपाध्याय उस दर्शन शैली और मानसिकता पर प्रहार कर रहे होते हैं जो बड़ी से बड़ी त्रासदी और प्रलय को भी मनोरंजन की बातों के रूप में पेश करने के लिए कुलबुला रही है। इस पर यह दंभ कि आंखों से देका यह बेबाक वर्णन एक खास मीडिया और चैनल एकदम पहले-पहल ही व्यक्तियों के सामने प्रस्तुत कर रहा है। वह चाहे मुंबई पर हुए आतंकी हमले की रपट हो या केदारनाथ और हाल ही में नेपाल में आई प्राकृतिक विपदा की खबर। राजेंद्र मानते हैं कि यह सब निहायत ही अमानवीय नजरिया और पेशकश है।

मनोरंजक प्रलय: राजेंद्र उपाध्याय; साखी प्रकाशन, 509, जीवन विहार, पी एंड टी चौराहा, भोपाल; 200 रुपए।


अटके भटके लटके सुर
वैसे कहने भर को ये एकल-नाट्य हैं, मगर सच्चाई यह है कि इनमें अनेक चरित्रों का मेला लगा हुआ है। शास्त्रीय गायिका, फिल्मों के डांस डायरेक्टर, गोरखा बावर्ची, घर काम वाली महाराष्ट्रीयन सोनाली बाई, जौनपुरिया आटो ड्राइवर, अंगरेजी का रिटायर बंगाली प्रोफेसर, सौ साल के करीब खड़ा एक मुसलिम बुजुर्ग, उसका शोषित-दमित नौकर, टिकट चेकर, पैसेंजर, बाराती, बाडीगार्ड, नेता, डॉक्टर, नर्स वगैरह। एक बड़ा रोचक रंगीन मनुष्य समाज। अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए एक दिलचस्प रंग-यात्रा, अपने को खंगालते-टटोलते हुए अपनी प्रतिभा के पड़ताल की प्रयोगशाला।

‘अटके भटके लटके सुर’ में गायकी है। अच्छा गायन करने वाली अभिनेत्रियों के लिए भैरवी, कजरी, शिवरंजनी और मेघ मल्हार गाने का अच्छा मौका। चारों ही नाटकों में तरह-तरह की ध्वनियां हैं या कहें आवाजें व्याप्त हैं- घुंघरुओं की, बोतल फूटने की, ट्रेन की। इंजन का हॉर्न, मोबाइल का कोई फनी रिंगटोन, एंबुलेंस का सायरन, कुत्ते की भों-भों आदि।

अटके भटके लटके सुर: अशोक मिश्र; सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर; 250 रुपए।


बिखरने से बचाया जाए
हम क्यों ठहरते नहीं, कहां जाना है, किस बात की जल्दी है, इतना अकेलापन शायद ही किसी दौर ने महसूस किया हो। न ही वह मासूम मुस्कान है, न आंसुओं में वह गीलापन, सुख के सभी सोते हम सुकाने पर आमादा हैं। कागज के फूलों में खुशबू को तलाशता यह मन, तितली के रंगों की चमक आंखों में संजो कर वहां एक बार फिर लौटना चाहता है। अब जरा-जरा-सी बात पर रूठने लगे हैं, जरा-सी ठेस से टूट जाते हैं। वक्त से ज्यादा हम बदलने लगे हैं। यह भी उतना ही सच है कि कल की उम्मीद, हौसलों की ऊंची उड़ान जिंदगी का सफर तय करने के लिए बेहद जरूरी है। ‘कदमों में सूरज भी होगा एक दिन/ आग पानी में लगा कर देखिए।’

ऐसे समय में जब सब कुछ बिखर रहा हो, तो जरूरी है उस ताने-बाने को कसने की, जो जिंदगी को जिंदा रखती है, बिखरने से बचाने की एक सार्थक कोशिश है यह संग्रह।

बिखरने से बचाया जाए: अलका सिंह; नवशिला प्रकाशन, ए-75, श्रीराम कॉलोनी, निलोठी एक्स., नांगलोई, नई दिल्ली; 300 रुपए।