वर्ष 2014 के ग्रीष्म को याद करें, भाजपा सरकार के लिए लगभग हर चीज संभव थी। एक पीढ़ी के अंतराल पर मिले जनादेश ने सरकार को वह भारी राजनीतिक पूंजी दी थी, जिसके बूते काफी समय से लंबित और मुश्किल सुधारों सहित सुधार का कोई भी कार्यक्रम लागू किया जा सकता था।

अफसोस, मई 2014 के दो साल बाद, सरकार मजाक का पात्र हो गई है। इसके कट्टर समर्थक इसका बचाव करने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं। कई लोग, जिन्होंने भाजपा को वोट दिया था, अब विकल्प चाहते हैं, जैसा कि उन्होंने दिल्ली और बिहार के चुनाव में जताया था। सरकार अपनी राजनीतिक पूंजी काफी-कुछ गंवा चुकी है।

स्थिति में आए इस परिवर्तन की खास वजहों में एक वजह सरकार की अनिष्टकारी प्रवृत्ति है, जो बहुत महंगी साबित हुई है। यह हैरानी की बात है कि जिस पार्टी ने आम चुनाव में गजब के राजनीतिक कौशल का परिचय दिया था, वह सत्ता में आने के बाद कुछ स्थितियों का आकलन करने में बुरी तरह नाकाम रही। कुछ उदाहरण गौरतलब हैं:

विधायी भूलें
भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन: भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजे, पारदर्शिता तथा पुनर्वासन व पुनर्स्थापन के अधिकार के कानून को, संबंधित पक्षों से राय-बात किए बगैर, बदलने की कोशिश की गई। इस कानून की सबसे अहम धाराओं में इतनी जल्दी संशोधन करने का कोई मतलब नहीं था, जबकि यह कानून भाजपा की सहमति से पारित हुआ था। एक से ज्यादा बार अध्यादेश जारी करने के बाद आखिरकार वह कोशिश छोड़ देनी पड़ी।

जीएसटी विधेयक: सरकार ने जीएसटी को लेकर दोषपूर्ण संविधान संशोधन विधेयक की हिमायत में विपक्ष को ठिकाने लगाने की कोशिश की। सरकार ने कांग्रेस के तर्कपूर्ण मुद््दों पर उससे बात न करके हठधर्मिता का ही परिचय दिया। नतीजा: जीएसटी विधेयक अब भी पारित नहीं हो पाया है और विधेयक को लेकर संदेह का इजहार दिनोंदिन बढ़ रहा है।

आधार विधेयक: यह धन विधेयक नहीं था, फिर भी लोकसभा अध्यक्ष को इस बात के लिए राजी किया गया कि वे इसे धन विधेयक घोषित करें, ताकि यह राज्यसभा की मुश्किल डगर पार कर सके। यह एक बेवकूफी भरी तरकीब थी, और जैसा कि अनुमान था, गलती से धन विधेयक करार दिए गए इस विधेयक को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई है। संभव है कुछ हफ्तों में एक और मुसीबत सरकार पर टूट पड़े।

कांग्रेस पर निशाना
कांग्रेस मुक्त भारत मिशन: यह हमेशा एक असंभव मिशन था, और हमेशा असंभव ही रहेगा, फिर भी मोदी-शाह की जोड़ी ने तय किया कि इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए। सबसे मुख्य निशाना नेहरू-गांधी परिवार था। दूसरे निशाने भी सोच-समझ कर चुने गए। मामले मनगढ़ंत थे, जांच एजेंसियों में हुक्म बजाने वाले अफसर तैनात किए गए, खुलासों और निंदात्मक टिप्पणियों की बाढ़ आ गई, और मीडिया का एक हिस्सा सरकार के इस गंदे खेल में झूठे गवाह की तरह शामिल हो गया। सरकार की इस हरकत ने सभी विपक्षी पार्टियों को और शंकालु बना दिया तथा चुनिंदा विधेयकों को पारित कराने व अत्यावश्यक प्रशासनिक सुधारों को लागू करने के लिए विपक्ष के समर्थन की जो थोड़ी-बहुत गुंजाइश थी वह नष्ट कर दी। क्या आज कोई पार्टी (शिवसेना समेत) या कोई राज्य सरकार (ओड़िशा की बीजद सरकार समेत) है, जो केंद्र सरकार पर भरोसा करने को तैयार हो?

छद्म राष्ट्रवाद: जेएनयू के कुछ विद्यार्थियों के खिलाफ, छेड़छाड़ किए गए वीडियो पर आधारित, राजद्रोह के फर्जी मामले थोपने के बाद सरकार ने ‘आंतरिक शत्रु’ की धारणा फैलाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया था। इस रणनीति से एक ही चीज हासिल हुई, वह यह कि इसने पुणे और हैदराबाद से लेकर अलीगढ़ और जादवपुर तक कॉलेज परिसरों को रणक्षेत्र में बदल दिया। इसमें बीफ पर पाबंदी, भारत माता की जय के नारे, तर्कवादियों की हत्याओं जैसी आग-लगाऊ चीजों को जोड़ दें, गहरे ध्रुवीकरण और शहरों-कस्बों में अल्पसंख्यकों को किनारे कर देने की पृष्ठभूमि तैयार है। राष्ट्रवाद को हिंदुत्व का पर्याय बनाना और एक दक्षिणपंथी, अतीतोन्मुख एजेंडा, दरअसल ‘सबका साथ सबका विकास’ के वादे की विदाई है।

सरकारों को गिराने की कोशिशें: उत्तराखंड सरकार को गिराने का निर्लज्ज प्रयास बुरी तरह नाकाम हो गया, केंद्र सरकार के पास अपने जख्म सहलाने के सिवा और कुछ नहीं बचा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राष्ट्रपति के सामने विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई, क्योंकि उन्हें लगभग आधी रात को राष्ट्रपति शासन की घोषणा पर हस्ताक्षर करने की सलाह दी गई थी, जबकि दूसरे दिन ग्यारह बजे विश्वास-मत का समय तय था। सारी राजनीतिक पार्टियों को यह शंका है कि भारतीय जनता पार्टी किसी अन्य दल के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहती।

आतंक के आरोपियों को क्लीन चिट: बड़े अनिष्टकारी संकेत हैं। समझौता एक्सप्रेस और अजमेर दरगाह मामलों में गवाहों के मुकरने का सिलसिला शुरू हो गया है। एक सरकारी वकील यह राज खोल चुकी हैं कि उन्हें ‘धीमे चलने’ की सलाह दी गई थी। आरोपपत्रों में फेरबदल किए जा रहे हैं, खासकर मालेगांव विस्फोट मामले में। सबसे चौंकाने वाला बयान राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) के महानिदेशक का है, जिन्होंने दक्षिणपंथी अतिवाद के बारे में सवाल किए जाने पर ‘द वीक’ पत्रिका से कहा, ‘‘चूंकि 2008 से ऐसी कोई गतिविधि एनआइए के संज्ञान में नहीं आई है, इसलिए कोई खतरा होने का अंदेशा नहीं है।’’ यह आदेश का पालन था।

विदेश नीति नदारद
नेपाल: सरकार कुछ भी कहे, नेपाल में आम धारणा यही है कि वहां के अंदरूनी मामलों में भारत की दखलंदाजी जारी है। ताजा आरोप ओली सरकार गिराने का षड्यंत्र रचने का है। एक बहुत घनिष्ठ पड़ोसी और भी दूर हो गया है, याद नहीं पड़ता कि ऐसा पहले कभी हुआ हो।

पाकिस्तान: अगर कलाबाजी को नीति की संज्ञा दी जा सकती है, तो जरूर भारत के पास एक पाकिस्तान नीति है! पठानकोट वायुसैनिक ठिकाने पर हुए आतंकी हमले की ‘जांच’ के लिए पाकिस्तान की संयुक्त जांच टीम (जेआइटी) को न्योता देने से ज्यादा नादान फैसला और कुछ नहीं हो सकता। जेआइटी को जो करना था वह उसने बखूबी किया, स्वदेश लौटते ही उसने भारत की ओर से सौंपे गए सबूतों को रद््दी की टोकरी में फेंक दिया और पाकिस्तान के सरकारी और गैर-सरकारी, सभी संदिग्धों को क्लीन चिट दे दी। यह एक अंतरराष्ट्रीय झटका था।

चीन: हालिया वीजा प्रकरण ने गृह मंत्रालय की घबराहट और विदेश मंत्रालय के अनाड़ीपने को बेपर्दा कर दिया। ये मामले विदेश नीति संबंधी घातक भूलों के सिलसिले की ताजा कड़ी भर थे, जिनमें सरकार को बड़ी जगहंसाई के साथ पीछे हटना पड़ा।

हर दुर्घटना की कीमत चुकानी पड़ती है। सबसे बड़ी कीमत यह चुकानी पड़ी कि अगर सरकार इन अवसरों पर समझदारी दिखाती तो आम सहमति और विकास के रूप में जो हासिल होता, वह नहीं हो पाया।