एनडीटीवी पर मनदीप बोलता है- हम गंगाराम गए। मूलचंद गए। अपोलो गए। लेकिन किसी ने भर्ती नहीं किया। एलएनजेपी के डॉक्टर ने कहा गंगाराम में जांच कराए तो वहीं ले जाओ। पांच-छह मिनट में पापा वहीं सामने मर गए!
टाइम्स नाउ एक दृश्य दिखाता है- मुंबई का एक मरीज गिड़गिड़ाते हुए कहता है कि मेरा इलाज कोई नहीं कर रहा है। मैं मर जाउंगा..!
एक चैनल लाइन लगाता है- दिल्ली में कोरोना केओस! दिल्ली में कोरोना उपद्रव! दूसरा उसे फॉलो करता है- दिल्ली संक्रमण के टॉप पर! बंदी खुलने के बाद, कोरोना से लडाई ‘कोरोना क्रंदन’ बन चली है!
एक दिन एक दावा करता है- सामुदायिक संक्रमण शुरू हो चुका है! (हमारा डर बढ़ता है!)
दूसरा तुरंत इस दावे का खंडन करता है- अभी कोई सामुदायिक संक्रमण नहीं है। (हम कुछ निर्भय होते हैं।)
एक ऐलान- जुलाई तक दिल्ली में पांच लाख से अधिक मामले हो जाएंगे। इसके लिए इतने हजार बेड और चाहिए होंगे! (हम फिर से डरने लगते हैं!)
दूसरा ऐलान- कोरोना तो दो तीन साल तक रहना ही है! (हम और अधिक डर जाते हैं।)
एक विशेषज्ञ कहता है कि ‘एसिम्प्टोमेटिक’ व्यक्ति की जांच जरूरी, दूसरा कहता है कि कतई जरूरी नहीं। फिर तीसरा कहने लगता है कि जरूरी है। हम ऊहापोह में! इनमें कौन सही है? कोई नहीं बताता।
एक दिन एक चैनल पर एक विशेषज्ञ कहता है कि बुजुर्ग घरों में बंद रहें तो सुरक्षित रहेंगे। दूसरे दिन दूसरे चैनल पर दूसरा कहता है कि घर में संक्रमण का खतरा अधिक है। बेहतर हो, वे पार्क में बैठें। फिर तीसरे पर तीसरा कह जाता है कि घर में ही रहें तो बेहतर! फिर चौथा और डरा जाता है कि घर में भी खतरा है!
यह हर घड़ी का डरना और मरना है। आदमी दिन में हजार बार डरता है और मरता है। रोग से ज्यादा रोग का डर मार रहा है। कोई न कोई आकर डरा जाता है। डर की भी राजनीति है।
एक चैनल पर दिल्ली कहती है केंद्र कुछ नहीं कर रहा। जवाब में एक प्रवक्ता कहता है कि दिल्ली कुछ नहीं कर रही। जवाब में दिल्ली कहती है कि हमने इतने हजार बेड और बनाए हैं, लेकिन अगर सब बाहर वाले यहां आ गए तो दो दिन में सारे बेड भर जाएंगे। दिल्ली वाले कहां जाएंगे? फिर राज्यपाल से मुलाकात के बाद सीएम प्रबोधते हैं कि ये वक्त आपस में लड़ने का नहीं हैं। दिल्ली सरकार केंद्र्र-उपराज्यपाल की बात मान कर काम करेगी।
लेकिन मरीज मारे-मारे फिरते दिखते हैं। चैनल हर रोज दिखाते हैं कि कहां क्या हाल है? एक चैनल दिखाता है कि चार राज्यों में कितना बुरा हाल है। कहीं मरीज मरने का इंतजार कर रहा है, कहीं मरीजों के पास शव पड़े हैं और कही शव सड़ रहे हैं और सरकारें एक दूसरे पर तोहमतें लगाने में व्यस्त दिखती हैं। एक दिन एक विवादप्रिय इतिहासज्ञ ने एक विभाजनवादी अंग्रेज को उद्धृत करके विवाद पैदा कर दिया कि ‘गुजरात कल्चरली पिछड़ा है…’।
उनकी इस ‘असांस्कृतिक’ हरकत पर हमारे दो भक्त एंकर बहुत नाराज दिखे और इसीलिए वे अपने चैनलों पर इतिहासज्ञ भाई को देर तक भला-बुरा कहते और कहवाते रहे। फिर जब एक बहस में भाजपा प्रवक्ता ने दूसरे अर्ध-कांग्रेसी वक्ता को कुछ ज्यादा ही ‘तिकतिका’ दिया तो वह वीररस से भर उठा और भाजपा प्रवक्ता का नाम लेकर ललकार उठा कि मैं तुझे पंखे से लटका कर ऐसे-ऐसे घुमांउगा कि..!
इधर एक दिन पहले अपने एंकर भैया जी को मुंबई पुलिस ने फिर तलब किया, उधर भैया जी थाने के बाहर कार में बैठ कर अपना ‘विक्टिम कार्ड’ खेलते रहे। फिर शाम को स्टूडियो में आकर ऐलान किया कि अभी तो नहीं, लेकिन एक दिन वे जरूर बताएंगे कि उनके साथ क्या क्या गुजरी..!
एक दिन एक भक्त एंकर लाइन देता रहा कि देखा हमारा पावर! चीन पीछे हटा! फिर आधे घंटे तक एक ‘लिबरल’ रक्षा विशेषज्ञ के ट्वीट को देशविरोधी कह कर पीटता-पिटवाता रहा कि ये कह रहे हैं कि चीन अब भी चालीस किलोमीटर अंदर तक घुसा हुआ है। वह कहीं नहीं हटा हैङ्घ सब एक दम झूठ!
जाहिर है कि ऐसे ढीठ चीन को अपने चैनल ही सबक सिखा सकते हैं। सो दो चैनलों ने चीन की पिटाई शुरू कर दी। एक ने नारा दिया ‘बायकाट चाइना’, दूसरे ने नारा दिया कि चीन के सामान का बहिष्कार करो!
इसके बाद एक चैनल अपने सर्वे के जरिए बताता रहा कि देश के सड़सठ फीसदी लोग चीन को ‘दुश्मन’ की तरह देखते हैं। चीनी सामान के बहिष्कार को लेकर एक चर्चक ने प्रबोधा कि भइए, ये जो लैपटाप तुम लिए हो, ये भी चीन का है, तुम्हारा मोबाइल भी वहीं का है और ये-ये वो-वो चीन का है… कहां तक बचोगे? चीन के सामान का बहिष्कार करना है तो पहले उससे सस्ता और बढ़िया तो बना लो! ऐसी बातें सुन कर देशभक्त एंकर हकलाने लगा!
इस बीच अमित शाह जी ने दो-दो ‘वर्चुअल रैली’ कर बिहार और बंगाल में चुनावी बिगुल बजा दिया और बहुमत वाली सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। एक ओर कोरोना काल, दूसरी ओर ‘सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है’। कैसा विरोधाभास!

