जम्मू-कश्मीर में नए राज्यपाल आ चुके हैं। साथ ही नए मुख्य सचिव, नए पुलिस महानिदेशक और नए सुरक्षा सलाहकर ने भी काम संभाल लिया है। जम्मू-कश्मीर, खासकर कश्मीर घाटी के लोगों तक पहुंचने का मकसद था कि वे साथ आएं ताकि राज्य में स्थानीय निकायों यानी पंचायतों और नगर निगमों के चुनाव कराए जा सकें। लेकिन सरकार के इस अभियान को लोगों ने तगड़ा झटका देते हुए खारिज कर दिया और कश्मीर घाटी में पहले दौर के मतदान में 8.2 फीसद और दूसरे में मात्र 3.3 फीसद वोट पड़े। कई वार्डों में तो कोई उम्मीदवार ही नहीं था, कइयों में वोट ही नहीं पड़े। कई वार्डों में एकमात्र उम्मीदवार निर्विरोध ‘निर्वाचित’ हो गया।

देश को इस बारे में पहले से ही चेता दिया गया था। हुर्रियत ने लोगों से चुनाव का बहिष्कार करने को कह दिया था। पूर्व पुलिस महानिदेशक ने भी अपने को अचानक हटाए जाने से पहले ही साफ कह दिया था कि चुनाव कराने के लिए यह उपयुक्त समय नहीं है। राज्य की चार बड़ी पार्टियों में से दो- नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने चुनावों से अलग रहने का फैसला कर लिया था। तीसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस ने इस पर काफी विचार किया और अपनी चिंताएं व्यक्त कर दी थीं, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं की इच्छा का सम्मान करते हुए चुनाव में हिस्सा लेने का फैसला किया। हालांकि कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अगर सुरक्षा हालात नहीं सुधरे तो वह अपने फैसले पर फिर से विचार करेगी। फिर भी सरकार ने चुनाव करवा डाले।

इस बार जिन हालात में राज्य में चुनाव हुए, ऐसा तो शायद ही पहले कभी हुआ होगा। उम्मीदवारों की सूची तक नहीं थी। कश्मीर घाटी में उम्मीदवारों को होटलों में छिपा कर ‘सुरक्षित’ रखा गया था। कोई प्रचार नहीं, कुछ नहीं। फिर भी इसे चुनाव कहा जा रहा है! कुल मिलाकर एक तमाशा था यह।

राज्य का ध्रुवीकरण

जम्मू-कश्मीर में ऐसा ध्रुवीकरण पहले कभी नहीं हुआ। कश्मीर घाटी से जम्मू का विवाद रहा है। लेह का झुकाव जम्मू की ओर है और करगिल का घाटी की ओर। हालांकि लेह और करगिल ने अपनी पहचान को बनाए रखा है। यह हमेशा से एक जटिल स्थिति रही है। भाजपा ने अपने नीहित स्वार्थों का जो एजंडा चलाया, उससे यहां नफरत का माहौल बनता चला गया। और पीडीपी भी इसमें भाजपा की तब तक भागीदारी बनी रही जब तक 19 जून, 2018 को उसका भाजपा के साथ चला आ रहा बेमेल गठबंधन टूट नहीं गया।

जम्मू-कश्मीर कई सालों से राजनीतिक समाधान की मांग कर रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीतिक समाधान की जरूरत को समझा था। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि हुर्रियत और पाकिस्तान सहित सभी पक्षों से बात करना कितना आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने अपने शब्दकोश में से ‘इंसानियत’ जैसा शब्द निकाला, बस लेकर लाहौर गए, आगरा में वार्ता के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति मुशर्रफ को न्योता दिया। लेकिन अंतत: उनकी ये सारी कोशिशें इसलिए कामयाब नहीं हो पार्इं, क्योंकि वे अपनी पार्टी और आरएसएस के भीतर कट्टरपंथियों को मना नहीं पाए और राज्य में सुरक्षा बलों को अभियान चलाने से रोक नहीं सके।

लेकिन अब नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में कश्मीर को लेकर जिस तरह का अतिवादी नजरिया देखने को मिल रहा है, उसे देख कर तो कोई कह ही नहीं सकता कि इस मामले में सरकार की कोई नीति भी है। सरकार जिस तरह तेजी से और अचानक फैसले करती और बदलती रहती है, उससे कभी तो लगता है कि कुछ करेगी, और कभी लगता है एकदम दिशाहीनता की हालत है। बतौर राजनीतिक पार्टी भाजपा का हमेशा से, खासतौर से मोदी के नेतृत्व में और ज्यादा, विरोधियों को कुचलने के लिए बल प्रयोग, सैन्य और अतिवादी नीतियों पर चलने और कानून के डंडे का सहारा लेने में विश्वास रहा है। जम्मू क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए इसने उग्र-राष्ट्रवाद की आग भड़का दी। भाजपा को यह भी लग रहा है कि कत्ल करने के लिए उसे अब दूसरा भूत (जो कि कश्मीर के ‘भटके’ हुए नौजवान हैं) हाथ लग गया है। ऐसे उग्र-राष्ट्रवादी बाकी देश में भी खूब देखने को मिल रहे हैं।

क्यों मर रहे हैं लोग

भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की खामियों भरी इस असफल नीति की देश भारी कीमत चुका रहा है। इस सारणी को देखेंगे तो सब स्पष्ट हो जाएगा- पाकिस्तान भी काबू में नहीं आ पाया है। घुसपैठ को रोकने की बल प्रयोग की नीति सफल नहीं हो पाई। 2015 से हर साल घुसपैठ बढ़ी है। 2015 में घुसपैठ का आंकड़ा 121 था, जो 2016 में 371 हो गया और 2017 में बढ़ता हुआ 406 तक पहुंच गया। सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाए जाने के बावजूद नागरोटा (2016), कुलगाम, अनंतनाग तथा पुलवामा (2017) और शोपियां (2018) में हमले नहीं रोके जा सके। सरकार की नीति का सबसे बुरा नतीजा यह हुआ कि राज्य में उग्रवादी संगठनों में शामिल होने वाले नौजवानों की संख्या तेजी से बढ़ी है। 27 अगस्त, 2018 के ‘द हिंदू’ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में 126 नौजवान उग्रवादी संगठनों में शामिल हुए थे, और 2018 में (अब तक) यह आंकड़ा 131 तक पहुंच गया है।

हासिल सिर्फ बर्बादी

राज्य में विकास के जो वादे किए थे, वे धरे रह गए। कुछ इलाकों में तो हालात और बिगड़ गए हैं। प्राइमरी स्कूलों में बीच में ही स्कूल छोड़ देने की दर 6.93 फीसद से बढ़ कर 10.3 फीसद और उच्च प्राथमिक स्कूलों में 5.36 से बढ़ कर 10.2 फीसद हो गई है। प्रति व्यक्ति डॉक्टर की उपलब्धता का अनुपात 1.1880 से घट कर 1.1552 रह गया। सीएमआइई के मुताबिक पिछले तीन साल में कश्मीर घाटी के लिए सिर्फ 65 करोड़ रुपए की निजी परियोजनाओं का एलान हुआ। इसी तरह कर्ज उठान का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया। 2016-17 में 27650 करोड़ रुपए के बजाय सिर्फ 16802 करोड़ रुपए और 2017-18 में 28841 करोड़ रुपए के बजाय 10951 करोड़ रुपए कर्ज जारी हुए।

शांति प्रयासों के मोर्चे पर भी कोई प्रगति नहीं हुई। 2017 में वार्ताकार की नियुक्ति हुई थी, जिसे अब सब भूल चुके हैं। कठुआ बलात्कार और हत्याकांड के आरोपियों को समर्थन देने सहित भाजपा जम्मू में अपना आधार मजबूत करने में लगी है और कश्मीर घाटी के लोगों को पूरी तरह से अलग-थलग कर डाला है। 2001 से 2014 के बीच जो कुछ प्रगति हुई थी और हासिल किया गया था, वह बर्बाद हो चुका है। अगर आज हालात खराब लग रहे हैं, तो कल ये बदतर होंगे।