लटयन्स शब्द का राजनीतिक प्रयोग पहली बार मैंने ही किया था। तब मुझे मालूम न था कि यह शब्द हथियार बन जाएगा, जो मेरे जैसे लोगों के खिलाफ रोज इस्तेमाल किया जाएगा सोशल मीडिया के रंजिश भरे गलियारों में। पहली बार राजनीतिक तौर पर इस शब्द को मैंने तब प्रयोग किया अपने स्तंभ में 2013 में, जब मुझे विश्वास होने लगा था कि नरेंद्र मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे। ऐसा विश्वास उन लोगों को भी होने लगा था, जो सत्ता की ऊंचाइयों पर हमेशा विराजमान रहने के आदी हो गए थे। ये सारे लोग बसते थे राजधानी के उस रिहायशी इलाके में, जिसको लटयन्स दिल्ली कहा जाता है। मेरी पूरी जिंदगी दिल्ली के इसी इलाके में गुजरी है, सो मैं इन लोगों की चिंताओं से वाकिफ थी अच्छी तरह। मोदी का नाम सुनते ही ये लोग कांपने लगे थे 2013 में, इसलिए कि उनको यकीन था कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो लटयन्स दिल्ली की शक्ल हमेशा के लिए बदल डालेंगे।

चिंता उनको यही थी कि जिन दीवारों के पीछे वे आम भारतीय की रोजमर्रा समस्याओं से दूर आराम और चैन की जिंदगी गुजार रहे थे, उन दीवारों को अगर मोदी तोड़ डालते हैं तो आम भारतीय मतदाता देख पाएंगे कि इस देश के जनप्रतिनिधि और सरकारी अफसर किस शान से रहते हैं समाजवाद के झूठे पर्दों के पीछे। याद रहे कि राजनेताओं और आला अधिकारियों के अलावा दिल्ली के इस हिस्से में सिर्फ बड़े उद्योगपति रहते हैं, क्योंकि यहां एक कोठी की कीमत बाजार में डेढ़ सौ करोड़ रुपयों से ज्यादा है। मैंने ये सारी बातें अपने उस लेख में लिखी थीं, जो अगस्त, 2013 में छपा था। लेख के छपने के अगले दिन मुझे गांधीनगर से फोन आया, गुजरात के मुख्यमंत्री के दफ्तर से बुलावा था। कौन मना कर सकता है ऐसे बुलावे को? सो, मैं गई और नरेंद्र मोदी के साथ कोई एक घंटा उनके दफ्तर में मिली। इस लंबी बातचीत के दौरान उन्होंने मेरे उस लेख का जिक्र किया और कहा कि, ‘आपने ठीक लिखा था। मैं दिल्ली में रहा हूं और वहां काम भी किया है, लेकिन मैं कभी दिल्ली का हुआ नहीं।’

मोदीजी की यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी, इसलिए कि विश्वास था मुझे कि लटयन्स दिल्ली में प्रवेश करते ही उनको दिख जाएगा कि जनता के सेवकों को कोई अधिकार नहीं होना चाहिए बड़ी-बड़ी कोठियों में रहने का, जब आम भारतीय जिंदगी भर की मेहनत के बाद दो कमरों का घर भी बना सके, तो अपने आप को खुशकिस्मत मानते हैं। अफसोस कि मोदी ने लटयन्स दिल्ली में ऐसा परिवर्तन नहीं लाकर दिखाया है अभी तक, लेकिन परिवर्तन यह जरूर आया है कि उन आलीशान कोठियों में रहने वालों के चेहरे बदल गए हैं। शान उनकी उतनी ही है जैसे पहले वालों की हुआ करती थी, लेकिन मोदी के समर्थकों ने लटयन्स को एक गाली बना कर उनके लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, जो उनकी नजरों में सत्तर सालों से इस देश को ‘लूटने का काम किया है।’
मोदी के समर्थक हैं ये लोग और रोज उनको कोसते हैं, जो मोदी से पहले सत्ता में थे और उन पत्रकारों को जिनको वे मानते हैं ‘लटयन्स’ दिल्ली के हैं। इनमें मुझे भी गिना जाता है और मुझे इस बात की जरा भी शर्म नहीं है, इसलिए कि मेरे नाना उन पांच ठेकेदारों में से थे, जिन्होंने एडविन्स लटयन्स के साथ नई दिल्ली का निर्माण किया था कोई सौ साल पहले। अजीब बात मुझे यह लगती है कि मोदी के समर्थकों को अभी तक क्यों नहीं दिखा है कि लटयन्स दिल्ली की शानो-शौकत में फर्क सिर्फ यह पड़ा है कि चेहरे बदल गए हैं इस शाही इलाके के निवासियों के।

मोदी के समर्थकों को ‘इलीट’ शब्द से नफरत है, लेकिन उनको यह नहीं दिखता है कि इस ‘इलीट’ में अब वही लोग आ गए हैं, जिनका वे समर्थन करते हैं। शान उनकी वही है जो पुराने लोगों की थी, लेकिन लटयन्स दिल्ली में रहने वाले नए लोगों की पहचान अलग है। जहां पुराने लोग अंग्रेजी बोलते थे, अब हिंदी-गुजराती बोलने वाले आ गए हैं। जहां पुराने लोग थोड़े पश्चिमी किस्म के थे, अब देसी किस्म के हो गए हैं। सो, भारतीय सभ्यता के अनुसार ये नए ‘एलीट’ में धार्मिक लोग ज्यादा दिखते हैं, जो शराब पीना और गोश्त खाना बुरा मानते हैं। गोमाता का सम्मान करने वाले ज्यादा दिखते हैं और हिंदुत्ववादी ज्यादा दिखते हैं, जिनकी नजरों में भारत को बंटवारे के बाद ही हिंदू राष्ट्र बन जाना चाहिए था। इनकी समझ में देशभक्ति वही होती है, जिसका बुनियादी उसूल है सरकर की आलोचना कभी न करना। जो लोग मोदी सरकर की कश्मीर नीति की आलोचना करते हैं, उनको ये गद्दार मानते हैं। पाकिस्तान जाने को कहते हैं। लटयन्स की तरह पाकिस्तान शब्द भी गाली बन गया है।

ऐसा नहीं कि लटयन्स दिल्ली में परिवर्तन नहीं आया है। बहुत आया है। नए किस्म के राजनेता आ गए हैं, नए किस्म के पत्रकार, नए किस्म के बुद्धिजीवी, नए किस्म की सभ्यता। लेकिन जिस परिवर्तन की मुझे निजी तौर पर उम्मीद थी, वह अभी तक आया नहीं है। भारत ही एक लोकतंत्र देश है दुनिया में, जहां जनप्रतिनिधियों को गरीब मतदाता ऐसा जीवन जीने का हक प्रदान करती है, जो जनता अपने सपनों में भी नहीं देख सकती है। अन्य लोकतांत्रिक देशों में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के अलावा किसी को सरकारी कोठी नहीं मिलती है। कई विकसित देशों में प्रधानमंत्री खुद मेट्रो में जाते हैं और जनता के बीच में रहते हैं आम लोगों की तरह। ऐसा जिस दिन हो जाएगा भारत में, तो असली लोतंत्र की बुनियाद रखी जाएगी।