जिस दिन महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजे आए थे पिछले सप्ताह, मीर तकी मीर का एक शेर बहुत याद आया मुझे। यह शेर है : ‘जिस सर को गरूर आज है या ताजवरी का/ कल उस पे यही शोर है फिर नौहागरी का।’ यानी सत्ता इतनी नाजुक चीज है कि कभी भी चली जा सकती है। यह शेर और भी याद आया जब प्रधानमंत्री ने उस शाम को भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते समय कहा कि उनको गर्व होना चाहिए कि इन दोनों राज्यों में पांच साल काम करने के बाद उनकी सरकारें फिर से लौट कर आई हैं। यथार्थ कुछ और है और ऐसा लगा जैसे मोदी इस यथार्थ का सामना करने के बजाय उससे दूर भागना चाहते हैं। क्या इसलिए कि उनको भी अहसास होने लगा है कि सत्ता नाजुक चीज है?

कहने को तो भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है दोनों राज्यों में, लेकिन इस जीत का विश्लेषण अगर किया जाए, तो साफ दिखने लगते हैं इस जीत में हार के कुछ छिपे हुए आसार। इसलिए कि जबसे नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ है तबसे भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में एक अजीब-सा घमंड नजर आने लगा है जैसे कि अब उनको हराने वाला कोई नहीं रहा है। यह घमंड चुनाव अभियान में अहंकार बन गया था, जिसके कारण ऐसा लगा जैसे जमीन से इन आला नेताओं का रिश्ता टूट गया हो। सो, जहां सबसे बड़े मुद्दे थे आर्थिक मंदी से जुड़े हुए, वहां चुनाव अभियान का सबसे बड़ा मुद्दा बनाया उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाने को। प्रधानमंत्री ने अपने हर भाषण में अपने प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती दी कि अगर इस धारा को हटाना उनको पसंद नहीं है तो खुल कर क्यों नहीं कहते हैं कि इसको वापस लाएंगे। जवाब उनको मिला शरद पावर से, जिन्होंने कहा कि इसके हटने न हटने से महाराष्ट्र को कोई मतलब नहीं है, क्योंकि इस राज्य के किसानों में क्षमता ही नहीं है कश्मीर में जाकर जमीन खरीदने की।

महाराष्ट्र में रहती हूं, सो यकीन मानिए जब मैं कहती हूं कि प्रधानमंत्री और अमित शाह ने बहुत कोशिश की अनुच्छेद 370 को सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनाने की, लेकिन उनकी कोशिशें नाकाम रहीं। आम लोगों से मैंने जब इसे समाप्त किए जाने के बारे में पूछा तो अक्सर जवाब मिला कि उनको ज्यादा चिंता थी आॅटो उद्योग में हजारों नौकरियों के जाने की। जब पंजाब और महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक (पीएमसी) में घोटाला सामने आया और लोगों के इस सदमे से मरने की खबरें आने लगीं, तो आर्थिक मंदी और भी बड़ा मुद्दा बन गई थी, लेकिन इसको अनदेखा करके भारतीय जनता पार्टी के राजनेताओं ने अनुच्छेद 370 की ही रट लगाए रखी। ऐसे पेश आए जैसे अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विरोध करना देशद्रोह के समान हो।

देशभक्ति एक ऐसी भावना है, जो दिल से निकलती है, उसे जबर्दस्ती नहीं थोपा जा सकता। मगर मोदी के इस दूसरे शासनकाल में देशभक्ति को जबर्दस्ती थोपने की लगातार कोशिश होती आई है। कश्मीर का विशेष दर्जा हटाए जाना जैसे परीक्षा बन गई है देशभक्ति की, बिना यह देखे कि जो लोग इस विशेष दर्जे को हटाए जाने के पक्ष में हैं उनको भी अब चिंता होने लगी है कि कश्मीर घाटी में शांति बहाल करने के लिए मोदी सरकार की कोई रणनीति है भी या नहीं, और अगर नहीं है तो क्यों नहीं है।

कश्मीर को अब हम अपना घरेलू मुद्दा नहीं कह सकते हैं। इसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है। जब तक कश्मीर के बड़े राजनेता नजरबंद रहते हैं, जब तक घाटी में कर्फ्यू हर दूसरे दिन लगता रहता है, तब तक दुनिया सवाल उठाती रहेगी और भारत की बदनामी होती रहेगी, जैसे वॉशिंगटन में पिछले सप्ताह तब हुई जब अमेरिका की एक कोंग्रेस समिति ने दक्षिण एशिया में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चर्चा की। चर्चा सिर्फ कश्मीर घाटी पर हुई। न किसी ने बलूचिस्तान का जिक्र किया और न ही किसी ने ध्यान दिलाया पाकिस्तान में शिया मुसलमानों के साथ हो रहे जुल्म की तरफ। सिर्फ कश्मीर की बातें हुर्इं, जिनको सुन कर ऐसा लगा कि भारत एक ऐसा देश है, जिसमें लोकतंत्र नहीं तानाशाही है। ऐसी चर्चाएं होती रहेंगी, जब तक कश्मीर घाटी में शांति बहाल नहीं होती और वह तभी होगी जब आम कश्मीरी को महसूस होने लगेगा कि वास्तव में अनुच्छेद 370 के हटने से उसकी भलाई है। तब तक मोदी सरकार की कश्मीर नीति पर सवाल पूछे जाएंगे।

महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को हथियार बना कर इस्तेमाल करना गलत था। ऐसा करने से सवाल पूछने वालों की तादाद बढ़ी है। मेरी राय है कि इस अनुच्छेद को कभी न कभी तो हटाया ही जाना था, लेकिन मुझे भी चिंता होने लगी है कि अगले कदम के बारे में मोदी सरकार ने अभी तक सोचा ही नहीं है। कभी न कभी तो कर्फ्यू हटाना पड़ेगा घाटी से, कभी न कभी तो कश्मीर के बड़े राजनेताओं को रिहा करना पड़ेगा, तब क्या होगा? क्या कोई रणनीति बनी है शांति वापस लाने की? इन सवालों का वास्ता कश्मीर से है, किसी अन्य राज्य के चुनावों से नहीं।

हर राज्य के अपने स्थानीय मुद्दे होते हैं, जिनको उठाए बगैर चुनाव बेमतलब से हो जाते हैं आम मतदाता की नजरों में। सो, ऐसा हुआ है इन विधानसभा चुनावों में और पहली बार ऐसा लगने लगा है कि मोदी-शाह के आलीशान चुनावी रथ में थोड़ी-सी कमजोरी आ गई है। नहीं आई होती, तो लोकसभा चुनावों में शानदार जीत हासिल करने के कुछ ही महीनों बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में कमजोरियां न दिखने लगी होतीं।