जनवरी 2000 में मसूद अजहर की रिहाई के बाद से जो झटके लगने शुरू हुए, वे जारी हैं। भारत के लोगों को ऐसा हर झटका उस बड़े झटके की याद दिलाता है जब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने बंधक बना लिए गए आइसी-184 उड़ान के यात्रियों और चालक दल के सदस्यों की रिहाई के बदले मसूद अजहर को छोड़ने का फैसला किया था। मसूद अजहर और दो अन्य को काबुल ले जाते और इन्हें उनके आतंकी साथियों के हवाले करते हुए विदेश मंत्री जसवंत सिंह की जो तस्वीरें आई थीं, वे आज भी उन दर्दनाक क्षणों की याद दिलाती हैं। इसके तत्काल बाद मसूद अजहर ने जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना की। जैश ने अपना पहला हमला 19 अप्रैल, 2000 को श्रीनगर में सेना की पंद्रहवीं कोर पर किया था और यह आत्मघाती हमला था। तबसे जैश ने संसद, श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर विधानसभा परिसर और कुपवाड़ा तथा बारामुला जिलों सहित कई ठिकानों को अपना निशाना बनाया।

घुसपैठ और भर्ती
जैश-ए-मोहम्मद दो स्तरों पर काम करता है। पहला तो यह कि भारतीय क्षेत्र में आतंकियों को घुसा कर खास ठिकानों पर हमले करवाना। पठानकोट, उड़ी और नगरोटा के हमले इसके उदाहरण हैं। दूसरा यह कि स्थानीय स्तर पर नौजवानों की भर्ती कर उन्हें आत्मघाती हमलावरों के रूप में इस्तेमाल करना। इसका उदाहरण आदिल अहमद डार है, जिसने 14 फरवरी, 2019 को सीआरपीएफ के काफिले में अपनी एसयूवी घुसा दी और उसे उड़ा दिया, जिसमें चालीस जवान मारे गए।
हैरान करने वाला तथ्य यह है कि 2015 से घुसपैठियों और स्थानीय स्तर पर भर्ती होने वाले नौजवानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। (देखें सारणी)
जम्मू-कश्मीर के बारे में मेरे विचार जगजाहिर हैं। पाकिस्तान में ‘सत्ता प्रतिष्ठान’, कमजोर सरकार और सेना, जिसने कोई सबक नहीं सीखा है, ने जम्मू-कश्मीर को तबाह किया है और पाकिस्तान की आर्थिकी की कब्र खोद डाली है। साथ ही, मैं भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के बाहुबल, सैन्य और अतिवादी नीति का भी कड़ा विरोध करता रहा हूं, जिसने जम्मू-कश्मीर के लोगों का उत्पीड़न किया है।

राष्ट्र का अहित
एनडीए सरकार ने भारत को कई मामलों में नाकाम बना डाला, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को उतना खतरा किसी से नहीं हुआ, जितना कि जम्मू-कश्मीर पर सरकार की अनर्थकारी नीति से हुआ। 13 मई, 2018 को इस स्तंभ में मैंने लिखा था कि ‘एक राष्ट्र के रूप में भारत अपनी एकता, अखंडता, बहुलबाद, धार्मिक सहिष्णुता, लोगों के प्रति जवाबदेह सरकार, मतभेदों को सुलझाने के लिए वार्ता आदि के लिए जाना जाता है और जम्मू-कश्मीर में ये सब कसौटी पर हैं। एक राष्ट्र के रूप में भारत इस कसौटी पर खरा नहीं उतर रहा है।’
पुलवामा के बाद सरकार और अति-राष्ट्रवादी एक ऐसा राक्षस खड़ा कर रहे हैं, जिसे चुनावों में मार डालना है। और इन लोगों ने ऐसा किया भी है। जम्मू और भारत के दूसरे शहरों में कश्मीरी व्यापारियों और छात्रों पर हमले किए गए। कश्मीरी छात्रों को हॉस्टलों से बाहर कर दिया गया। उत्पीड़न के तौर पर सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ पोस्ट डाले गए। पाकिस्तान को किए जाने वाले निर्यात पर और उसके साथ होने वाले मैचों पर भी प्रतिबंध लगाने की चिल्ला-चिल्ला कर मांग की गई। मेघालय के राज्यपाल, जिन्होंने संविधान की रक्षा की शपथ ली थी, ने तो यहां तक कह डाला कि ‘कश्मीर न जाएं, अमरनाथ न जाएं, कश्मीरी व्यापारियों का बनाया हुआ सामान न खरीदें, जो हर साल सर्दियों में अपना माल बेचने यहां आते हैं।’ ये साफ-साफ युद्ध के नगाड़े का शोर है।
चालीस जवानों को खोने से हम गमजदा हैं और दुख की इस घड़ी में उनके परिवारों के साथ हैं। लेकिन शोर और उन्माद के बीच हम ये प्रासंगिक सवाल पूछने में नाकाम रहे हैं कि- राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह खुफिया नाकामी थी? क्या दो हजार से ज्यादा जवानों को एक ही काफिले में भेजने का फैसला गंभीर चूक थी? क्यों बाईस साल के नौजवान आदिल डार ने चालीस जवानों को मार डाला और अपने को भी खत्म कर लिया? जब तक हम इन सवालों को नहीं पूछते हैं और इनके जवाब नहीं तलाशते हैं, तो हम इतिहास को दोहराने से नहीं रोक पाएंगे।

समझदारी की बात
और लोग भी सवाल पूछ रहे हैं, उनका आभार।
– रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल हसनैन ने लिखा है : ‘भारत अपने रणनीतिक लक्ष्यों को तब तक हासिल नहीं कर सकता जब तक कि कश्मीरियों को निशाना बनाया जाता रहेगा, उनका उत्पीड़न किया जाता रहेगा और सोशल मीडिया पर अल्पसंख्यकों को लेकर नफरत फैलाई जाती रहेगी।’
– रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल हुड्डा ने एक इंटरव्यू में कहा : ‘कश्मीर समस्या को लेकर हमें आंखें नहीं मूंदनी चाहिए, आखिरकार जिस आतंकी ने ये किया वह स्थानीय आतंकी था… इसलिए समस्या अपने भीतर की ही है।’
– पूर्व विदेश सचिव श्यामा सरन ने लिखा कि ‘कश्मीर को बाकी भारत से अलग नहीं किया जा सकता और अलग-थलग पड़ गई इसकी आबादी को कड़े सुरक्षा उपायों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है… कश्मीर पर हमें एक ऐसी रणनीति की जरूरत है जिसमें कश्मीर मामले से जुड़े देशी और बाहरी आयामों का खयाल रखा जा सके।’
– पूर्व आइपीएस अधिकारी जूलियो फ्रांसिस रिबेरो ने लिखा : ‘अगर उस समुदाय, जिससे कि आतंकवादी आते हैं, पर काबू नहीं पाया गया, तो आतंकवादियों को अपने सह-धर्मियों से लगातार आॅक्सीजन मिलती रहेगी और होगा यह कि एक आतंकवादी मरा तो दूसरा-तीसरा खड़ा हो जाएगा जो कि भावनात्मक रूप से प्रभावित रहा होगा।’
जब ये बातें उठ रही थीं, सेना के प्रवक्ता अपनी हमेशा की भाषा बोल रहे थे- ‘चिनार कोर के कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल कंवलजीत सिंह ढिल्लों ने 19 फरवरी, 2019 को चेतावनी दी कि कश्मीर में जिस किसी ने भी बंदूक उठाई है, अगर वह हथियार नहीं डालता है, तो उसका सफाया कर दिया जाएगा।’
लेकिन लोगों के बढ़ते गुस्से और हताशा के बीच हम उम्मीद नहीं छोड़ सकते। सबसे बुरा और चिंताजनक तो यह है कि मौजूदा सरकार जो कर सकती है वह यह कि देश को एक और ऐसे जोखिम में धकेल देगी, जिससे लोगों में और अविश्वास पनपेगा, जम्मू-कश्मीर में लोग और भड़केंगे, और ज्यादा जानें जाएंगी और हम समाधान से और दूर हो जाएंगे। हालांकि मुझे भरोसा है कि इस तरह की समझदारी वाली आवाजें उठती रहेंगी और भविष्य की सरकार बेहतर समझ दिखाएगी, नेतृत्व बुद्धिमत्तापूर्ण होगा और राजनीतिक समाधान के लिए गंभीरता से काम होगा।