अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी
आज बाजार ने हमारी चेतना में इस बोध को लगभग स्थापित कर दिया है कि किसी उत्पाद की विकास प्रक्रिया से अधिक महत्त्वपूर्ण उसकी उपयोगिता होती है। इस तर्क पर देखा जाए, तो इंटरनेट भारतीय समाज में अनेक सकारात्मक परिवर्तनों के साथ प्रस्तुत हुआ है, जिनमें से कई का प्रभाव सीधे आम जनता पर पड़ा है।
तर्क है कि चूंकि मशीन घूस नहीं ले सकती और उसके भाई-भतीजे नहीं होते, उसकी भागीदारी से प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ेगी और भ्रष्टाचार में कमी आएगी। इसी विचार से प्रभावित मौजूदा सरकार डिजिटलीकरण के प्रति गंभीर दिख रही है। वह 2017 तक देश के ढाई लाख गांवों में ब्राडबैंड पहुंचाने के लक्ष्य पर काम कर रही है। आज देश में 25.20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़े हैं, जो संख्या की दृष्टि से अमेरिका और चीन के बाद तीसरा स्थान है। अब खुद इंटरनेट की नियामक संस्था की तरह व्यवहृत गूगल ने भविष्यवाणी की है कि 2017 तक भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या अमेरिका से अधिक होगी।
इंटरनेट की पहुंच बनाने में अब मोबाइल भी प्रभावी भूमिका निभा रहा है, क्योंकि यह सिर्फ अपनों से बात करने और संदेश भेजने का माध्यम नहीं रहा, बल्कि सामान्य जीवन की अपरिहार्य आवश्यकयता बन चुका है। बाजार की एक शोध संस्था ‘आइडीसी’ के अनुसार देश में 2013 तक मोबाइल ग्राहकों की संख्या नब्बे करोड़ थी, जिसमें से तीस प्रतिशत स्मार्ट फोन थे। आज मोबाइल के साधारण हैंडसेट से स्मार्ट फोन में परिवर्तन की दर एक सौ छियासी प्रतिशत है। स्पष्ट है कि जैसे-जैसे स्मार्ट फोन का प्रभाव बढ़ेगा, सूचना-क्रांति के विस्तार की पृष्ठभूमि मजबूत होती जाएगी।
गौरतलब है कि सूचना-क्रांति की मातृभाषा अंगरेजी है और अपने पूरे कलेवर में यह भारतीय स्थिति के बरक्स खड़ी दिखती है। इससे न सिर्फ भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के सीमित होने का खतरा बढ़ रहा है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रतिरोध की धार भी कुंद हो रही है, क्योंकि भारत एक बहुभाषी देश है और आम भारतीय संवेदना की अभिव्यक्ति अंगरेजी में संभव नहीं है। ऐसे में जब डिजिटल-क्रांति के दायरे में आमजन आएंगे, तो फिर संवाद की भाषा और प्रक्रिया पर नए सवाल खड़े होंगे।
वैसे भी यह कैसे संभव है कि जहां पांच भाषा-परिवार के अंतर्गत एक सौ बाईस भाषाएं और लगभग सोलह सौ बावन मातृभाषाएं हैं, बाईस भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं और इसमें विस्तार की मांग लगातार बनी हुई है, सत्तासी भाषाएं देश में मुद्रण और प्रसार माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती हैं, इकहत्तर भाषाओं में आकाशवाणी का प्रसारण होता है, संघीय स्तर पर दो राजभाषाओं के साथ विभिन्न स्थानीयता के अनुरूप बत्तीस भाषाएं राजभाषा के रूप में कार्यरत हैं, सैंतालीस भाषाएं विद्यालयों के शिक्षण के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती हैं, यहां तक कि देश की मुद्रा द्विभाषिक है और पंद्रह भाषाओं द्वारा इसका मुद्रा-मान संप्रेषित कराया जाता है, वहीं डिजिटलीकरण की प्रक्रिया अपने निहित उद्देश्यों को सिर्फ अंगरेजी में पा सकेगी?
यह सूचना-तकनीक के उत्पादों की स्वाभाविकता ही है कि इंटरनेट के माध्यम से बन रहे नए प्रशासनिक-तंत्र में नौकरशाही की अंगरेजीपरस्ती को नए सिरे से वैधता मिलती है। इसके अलावा इंटरनेट ने जिस वैश्विक भूगोल को अपने प्रभाव-क्षेत्र में समेटा है, उसमें छह हजार से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, हालांकि इस पूरी आबादी के नब्बे प्रतिशत लोग सिर्फ तीन सौ भाषाओं में व्यवहार करते हैं। मगर सूचना-प्रौद्योगिकी का पूरा प्रसार विश्व की लगभग सौ भाषाओं के भीतर ही सीमित है, जबकि एकमेव वर्चस्व अंगरेजी का है। इस प्रकार सूचना-प्रौद्योगिकी को सूचना की भाषाई विविधता स्वीकार्य नहीं है, जो न सिर्फ संप्रेषणीयता का ह्रास है, बल्कि अंगरेजी से वंचित विश्व की एक बड़ी आबादी के लिए आज भी यह द्वितीयक है। अब ‘डिजिटल इंडिया’ की संकल्पना में जिस पारदर्शिता और भ्रष्टाचार की कमी की बात की जा रही है, कहीं वह अंगरेजी के ज्ञान के अभाव में खुद एक शोषण का माध्यम न बन जाए।
सूचना-तकनीक के इंटरनेट के माध्यम से उपस्थिति ने जिस परिदृश्य का निर्माण किया है, वह केंद्रित संसाधन के विकेंद्रित प्रयोग पर आधारित है। इसमें सूचना-संसाधन का केंद्र अमेरिका है, जहां गूगल, फेसबुक, ट्वीटर और वाट्स-ऐप आदि इंटरनेट के वर्चस्व वाली अधिकतर कंपनियों के सर्वर हैं। इसके प्रभावस्वरूप जिस समाज का निर्माण हो रहा है, वहां ‘माइक्रोसॉफ्ट’ अपने आॅपरेटिंग सिस्टम और ‘गूगल’ इंटरनेट पर वर्चस्व के कारण डिजिटल समाज के सामंत हैं। अगर ‘क्लाउड कम्प्यूटिंग’ कल की सच्चाई है, तो निस्संदेह इसका पूरा बादल अमेरिका का होगा और जमीन के पास परोक्ष रूप से उसके हितों को पोषित करने के अलावा कोई काम नहीं बचेगा।
अगर सामरिक लिहाज से भी देखें तो उत्तर-आधुनिक चिंतक ल्योतार कंप्यूटर की जिस संग्रह-क्षमता को ज्ञान का केंद्र कहते हैं, वह आज निजी कंपनियों के स्वामित्व में अमेरिका में संरक्षित है और यही अमेरिका अपने हिसाब से विश्व भर के व्यक्तियों की जासूसी भी करता है। उसके इस खेल में गूगल से भी सूचनाएं लेने की शिकायतें आ चुकी हैं। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि भारत भी अमेरिका के इस दायरे और मंशा से बाहर नहीं है। यह पूरा प्रसंग निजता के हनन का वैसा मामला नहीं है, जो व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य होता है, बल्कि इसमें राष्ट्र और इसकी सामरिक और रणनीतिक पहचान भी शामिल है।
सूचना-क्रांति जिस तरह अंगरेजी के कंधे पर चल कर वैश्विक एकरूपता की साधन बनी है, उससे हम प्रभावित हुए बिना रह नहीं पाए हैं। यह अनायास नहीं कि आज अंगरेजी के मानकीकरण का काम सूचना-क्रांति कर रही है और चूंकि यह क्रांति अमेरिका द्वारा पोषित है, इसलिए अंगरेजी का वह रूप, जो कभी ब्रिटेन के लिए निष्ठा और प्रतिष्ठा का विषय था, उसे आज बिना किसी युद्ध और उन्माद के सहज ढंग से अमेरिका अपने अनुसार विश्व के अधिकतर देशों पर थोप रहा है। तकनीक और भाषा के आंतरिक संपर्क में भाषा को तकनीक के अनुरूप ही खुद को ढालना पड़ता है।
जब कोई उत्पाद समाज में आता है, तो अपनी कुछ शर्तें साथ लेकर आता है, सूचना-क्रांति के संदर्भ में भाषाई शर्त भी शामिल है। इसका लाभ उसके उत्पादक देश और समाज को मिलता है। यही नहीं, आगे वह किसी विजेता की तरह अपने परिवेश का विस्तार करता है, अन्यथा ऐसा कौन-सा कारण है कि स्वच्छ होने की चाह रखने वाला ‘भारत’ अपने ‘डिजिटल’ होने की योजना मात्र में ‘इंडिया’ हो जाता है? अगर भारत के प्रसंग को देखें, तो यह महज योजनाओं का नामकरण नहीं, बल्कि समाज के दो रूपों के व्याप्ति की स्वीकारोक्ति है, भारत स्वच्छ हो सकता है, डिजिटल नहीं। डिजिटल होने के लिए उसको ‘इंडिया’ बनना ही पड़ेगा।
इधर दस-पंद्रह वर्षों से भारतीय भाषाओं, खासकर हिंदी ने इंटरनेट पर अपनी प्राथमिक उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन इसका माध्यम ब्लागिंग और माइक्रो-ब्लागिंग से जुड़ी वेबसाइटें ही हैं, जिन पर एकाधिकार अमेरिकी कंपनियों का है। हालांकि इन्हीं कंपनियों ने हिंदी के लिए कुछ टाइपिंग टूल, फांट और आनलाइन कोश आदि के विकास और प्रसार में योगदान भी दिया है, लेकिन यह सब बाजार के वे टूल होते हैं, जिनसे उसकी पहुंच और सामर्थ्य का विस्तार हो सके।
इस प्रकार यह सब व्यापक भारतीय उपभोक्ताओं को अपने साथ जोड़ने की पहल मात्र है, गूगल द्वारा ‘हिंदीवेब’ को लेकर किया गया हालिया प्रयास भी इसी बोध पर की गई पहल है। आज भारत की आबादी का बहुसंख्य हिस्सा युवा है, जो इस क्रांति के प्रयोग के केंद्र में है। इन्हीं की आंखों से गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक जैसी अमेरिकी कंपनियां अपने भविष्य के सपने बुन सकतीं हैं, तो यह काम भारत और भारतीय भाषाएं क्यों नहीं कर सकतीं? डिजिटल भारत की भाषा क्या होगी, इस प्रश्न पर विचार भी नहीं किया जा रहा है और इसे सिर्फ बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है।
यह सही है कि आज इंटरनेट और डिजिटलीकरण का विरोध करना समय से पीछे जाने जैसा होगा, लेकिन इसको किसी एक भाषा में थोपने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। क्या एक बहुभाषिक समाज को डिजिटलीकरण की सुविधाएं उसकी अपनी भाषा में उपलब्ध कराने के लिए प्रयास नहीं होने चाहिए? जो इंटरनेट आज समाज की आंतरिक प्रसंगों का एक अनिवार्य साधन बन रहा है, उसे डिजिटलीकरण की प्रक्रिया में सिर्फ बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। जो भारतीय बहुसंख्यक उपभोक्ता आज वैश्विक बाजार के केंद्र में हैं, उन्हीं के आधार पर भारत को अपना स्थाई ढांचा खड़ा करना चाहिए। इसी से अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती मिल सकती है और प्रशासनिक सुधार, आंतरिक सुरक्षा के उद्देश्यों को वास्तविक अर्थों में प्राप्त किया जा सकता है। भारतीय भाषाई-सांस्कृतिक विविधता के प्रति आसन्न खतरे को भी कम किया जा सकता है।
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