तरुण विजय
चिढ़ है। झुंझलाहट है। कुंठा में डूबा गुस्सा है। गुस्सा भी ऐसा करना है कि लगे वे सक्रिय हैं। इसलिए छत्तीसगढ़ में वामपंथी विचारधारा के कम्युनिस्ट आतंकवादियों, जिन्हें नक्सली और माओवादी भी कहा जाता है, द्वारा मार डाले गए चौदह भारतीय सुरक्षाकर्मियों के दुख-दर्द और वहां की परिस्थिति पर कोई चर्चा नहीं हुई। नहीं, इस चर्चा को होने ही नहीं दिया गया। जब गृहमंत्री राजनाथ सिंह छत्तीसगढ़ से इस बारे में संसद में बयान देने आए, जिस पर चर्चा हो सकती थी, तो उनको भी बयान नहीं देने दिया गया। पाकिस्तानी गोलाबारी में शहीद सैनिकों या वामपंथियों की हिंसा में शहीद सुरक्षाकर्मी, ये विषय उस जिद और जड़ विरोध के आगे बौने बना दिए गए, जिस जिद का परिणाम संसद को भी जड़ता देता है।
जो राजनीतिक दल राज्यसभा में एक मल्लाह निषाद बहन के कथन पर आगबबूला होकर सदन की कार्यवाही रोकते रहे, वही राजनीतिक दल लोकसभा में अनुशासित बने रहे और सदन में कोई शोर-शराबा नहीं किया। अगर ईमानदारी होती तो दोनों जगह एक-सा व्यवहार होता। इधर कुछ, उधर कुछ न होता। लेकिन उन्होंने सोचा होगा कि एक सदन में विपक्ष कुछ अधिक संख्या में है तो वहां जोर दिखा दिया जाए। ये वही लोग हैं, जिनका सार्वजनिक संवाद शाब्दिक हिंसा से भरा होता है।
इन तमाम तथाकथित सेक्युलर खेमे के सेनापतियों द्वारा भारतीय सेना और तिरंगे के प्रति अपशब्द कहने वाले विदेशी पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकारों को प्रश्रय दिया जाता रहा। क्या इनके मुंह से कभी एक बार भी उन माओवादियों के विरुद्ध कठोर शब्द सुने गए, जो अब तक बारह हजार से ज्यादा भारतीय सुरक्षाकर्मी और नागरिक मार चुके हैं? ये वे लोग हैं, जो कश्मीर में बर्बरता के साथ भारतीय नागरिकों पर जुल्म करने वालों और तिरंगे को जलाने वालों के साथ डिनर खाते हैं और उनके विरुद्ध कभी कुछ बोलते देखे नहीं गए। इनके मुंह से कभी कश्मीर में हिंदुओं की वापसी का मुद्दा सुना नहीं गया और उनकी पीड़ा पर कभी सदन में कोलाहल नहीं मचा।
शहीद सुरक्षा सैनिकों के परिवारों को अधिक सुविधाएं दी जाएं और सैनिकों को बेहतर हथियार और पेंशन मिले इसके लिए कभी सदन की कार्यवाही रोकी नहीं गई। सर्दियों के समय ठंड से ठिठुरते भारतीय नागरिकों को फुटपाथ पर सोने की मजबूरी न हो, बल्कि उन्हें अनिवार्य रूप से रात्रि शरणस्थल की सुविधा मिले, इसके लिए कभी सामंजस्य और समन्वय के साथ सदन को संबोधित नहीं किया गया। लेकिन एक दलित महिला ने जब यह मान भी लिया कि उन्होंने जो कहा वह नहीं कहना चाहिए था, वे अपने शब्द वापस लेती हैं और खेद व्यक्त करती हैं, देश के प्रधानमंत्री भी इस विषय पर गंभीरता से सदन को संबोधित कर गए, तो भी बहादुर कांग्रेस जिद की जड़ता नहीं छोड़ सकी। वामपंथी तो उनके साथी हैं ही, अब से नहीं, देश विभाजन के समय से।
तकलीफ मल्लाह बहन के शब्द नहीं, बल्कि सत्ता से विसर्जित होने की है। जिन लोगों को उन्होंने अपनी सत्ता के समय पौशाचिक पीछा किया, अछूत बनाया, उनके लिए हर द्वार बंद किए, सार्वजनिक तौर पर बोले न जा सकने वाले अपशब्द और गालियां दीं, उन्हें पूर्ण और निर्णायक बहुमत के साथ सत्ता में बैठे देखना सहा नहीं जा रहा है। बस इसीलिए कुछ भी मिल जाए, मुद्दा हो या न हो, लेकिन शोर मचाने की क्षमता के अनुसार रास्ते में कांटे बिछाने ही हैं।
इनके लिए इस बात का भी कोई महत्त्व नहीं है कि प्रधानमंत्री न तो किसी पार्टी के होते हैं न किसी वर्ग के, बल्कि वे सारे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनके सम्मान और अपमान में देश का सम्मान और अपमान होता है। जब उन्होंने सदन में आकर स्पष्ट रूप से साध्वी के बयान से असहमति जाहिर की तो बात यहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। बयान के बाद भी निंदा प्रस्ताव या असहमति का प्रस्ताव पारित करने की जिद क्यों? क्या इसलिए कि दलित साध्वी ने भगवा कपड़ा पहना हुआ है इसलिए उनके प्रति वह सम्मान और संवेदना भी नहीं दिखाई जाएगी, जो हम सामान्यतया किसी भी महिला के प्रति दिखाते हैं? दिक्कत यही है कि एक तो साध्वी ने भगवा ओढ़ा है। हिंदू धर्म की एक विराट और प्राचीन परंपरा का वे सम्मानजनक हिस्सा हैं, जिस पर उन्हें गर्व है। उस पर जिसे चिढ़ हो, वह किसी न किसी रूप में तो प्रकट होगी ही।
अगर जिद हो ही गई है तो उसे निभाना गले में पत्थर बांधने जैसा हो जाता है। जिद की कोई तुक नहीं होती। बेतुकेपन से वापस निकलने का रास्ता ढूंढ़ना मुश्किल होता है। संसद के कामकाज को ठप्प करने का अर्थ होता है, सैकड़ों क्षेत्रों की समस्याओं को सरकार के सामने रखने से वंचित होना। सरकार को कठघरे में खड़ा करने के मौके चूकना। जो सांसद तैयारी करके आते हैं, वे थके और ठगे से रह जाते हैं। बहुत मेहनत करके वे निजी विधेयक और विशेष उल्लेख की सामग्री लाते हैं। वह भी कहीं इस्तेमाल नहीं हो पाती। शून्यकाल में महत्त्वपूर्ण मामले देश भर का ध्यान आकृष्ट करते हैं। उनसे भी वंचित रहना पड़ता है। होता क्या है? सिर्फ शोर।
कांग्रेस ने जिन दो मुद्दों को अति गंभीर और महत्त्वपूर्ण मानते हुए छह महीने शोर और काली पट््िटयों के साथ बिताए, उनमें से एक मुद्दा था कि वैधानिक तौर पर वांछित संख्या बल न होते हुए भी उन्हें लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद क्यों नहीं दिया गया और दूसरा था कि हैदराबाद हवाई अड््डे का नाम एनटी रामाराव के नाम से हटा कर उन्होंने राजीव गांधी के नाम पर रखा, तो एनटी रामाराव का नाम वापस क्यों लाया जा रहा है? राजीव गांधी का नाम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड््डे से किसी ने नहीं हटाया। कांग्रेस ने पहले से रखे हुए एनटी रामाराव नाम को हटा दिया था। इतनी छोटी, संकीर्ण और अपने से भिन्न मत वालों के प्रति नफरत भरी राजनीति करते हुए वे किस विराट भारत की कल्पना करते हैं?
वे कहते हैं कि भाजपा ने भी ऐसे ही हल्ला किया था। वे यह भूल जाते हैं कि तब देश के इतिहास में सबसे बड़े घोटालों, अर्थव्यवस्था में गिरावट और सैन्य तैयारियों में कमी के मुद्दे कभी भी कांग्रेस ने सदन में उठाने की अनुमति नहीं दी। लोकपाल विधेयक पर आधी रात तक नाटक हुआ। विपक्ष के शोर मचाने के कारण ही घोटालों की जांच हुई और हजारों-करोड़ रुपए बचे। इस बार तो कांग्रेस के नेता किसी विषय पर चर्चा के लिए खड़े होते हैं तो मांग करते ही उस चर्चा को स्वीकार कर लिया जाता है। यहां तक कि हैदराबाद के राजीव गांधी हवाई अड्डे के नाम परिवर्तन पर कांग्रेस ने विशेष चर्चा मांगी तो उसे भी स्वीकार कर लिया गया। अगर चर्चा पर विरोध हो तब निराश और हताश होकर सदन के वेल में आना अलग बात है, लेकिन सारे नियम-कानून अलग और मेरी जिद सर्वोपरि, इस हिसाब से कैसे राजनीति चलेगी?
क्या कोई ऐसा समय नहीं आ सकता जब तय कर लिया जाए कि अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा और रक्षा जैसे मुद्दों पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाए और एक ऐसा भारतीय जन-मन का संकल्प सदन में व्यक्त हो कि देश से गरीबी और अशिक्षा दूर हो। इसमें सब राजनीतिक दलों का सामूहिक और साझा स्वार्थ होना चाहिए। एक साध्वी का माफीनामा ठुकरा कर उनको सजा देने के लिए बेताब बहादुरों को देख कर दुख होता है और तब इस बात में आश्चर्य नहीं होता कि बाद में आजाद होने के बाद भी चीन हमसे क्यों आगे बढ़ा और हम सिर्फ ध्वनि विस्तारक यंत्र की तरह भीड़ बने रहे। जब मौका आया है कि यह माहौल बदल कर कुछ बढ़ा जाए तो सजा दो, सजा दो, साध्वी को सजा दो, का शोर सुनाई देता है।
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