हरजेंद्र चौधरी

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने केंद्रीय विद्यालयों में तृतीय भाषा के रूप में जर्मन की जगह संस्कृत पढ़ाने का निर्णय किया तो प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो गया। जर्मनी की सरकार ने जर्मन भाषा की पढ़ाई जारी रखवाने के लिए तुरंत हर स्तर पर प्रयास शुरू कर दिया। जर्मन भाषा की पढ़ाई चलती रहे, यह आग्रह केवल राजनयिक स्तर पर जर्मन राजदूत माइकेल स्टेनर द्वारा नहीं, अंतरराष्ट्रीय और द्विपक्षीय संबंध-व्यवस्था के उच्चतम स्तर पर भी बिना किसी देर या प्रतीक्षा के दोहराया गया। आस्ट्रेलिया में आयोजित जी-20 सम्मेलन के दौरान जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने भारत के प्रधानमंत्री से मुलाकात के दौरान जिन मुद्दों पर बात की, उनमें एक मुद्दा यह भी था। उन्होंने इस मामले में चिंता जाहिर करते हुए प्रधानमंत्री मोदी से इस पर विचार करने का आग्रह किया।

इस घटनाक्रम से प्रश्न उठता है कि किसी विदेशी विश्वविद्यालय या संस्थान में किसी भारतीय भाषा की पढ़ाई बंद होने या पाठ्यक्रम का दर्जा घटाए जाने की स्थिति में क्या भारत की ओर से ऐसी ही त्वरित प्रतिक्रिया होती? क्या हम भी उनकी पढ़ाई जारी रखवाने के लिए इसी तरह राजनयिक और द्विपक्षीय प्रयास करते?

सब जानते हैं कि किसी देश-क्षेत्र-समाज की मूल आत्मा को समझने के लिए उसकी भाषा सर्वाधिक उपयुक्त और कारगर माध्यम है। किन्हीं दो देशों के बीच सांस्कृतिक ही नहीं, राजनयिक, राजनीतिक, आर्थिक-व्यापारिक संबंधों को निर्धारित-परिचालित करने में भाषाओं की भूमिका को जानने-मानने वाले देश ही इस तरह की रुचि रख सकते हैं। भारत के शिक्षा-संस्थानों में अनेक विदेशी भाषाओं की पढ़ाई होती है। अनेक देशों के साथ हमारे सांस्कृतिक विनिमय संबंधी समझौते हैं, जिनके अंतर्गत वहां के ‘नेटिव स्पीकर’ प्राध्यापक हमारे यहां उच्च शिक्षा-संस्थानों में पढ़ाने आते हैं और हमारी भाषाओं के शिक्षक वहां भेजे जाते हैं।

दूसरी ओर अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों और संस्थानों में संस्कृत, हिंदी और कुछ अन्य भारतीय भाषाएं पढ़ाई जाती हैं। भारत सरकार विभिन्न सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रमों के तहत भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (विदेश मंत्रालय) के माध्यम से अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में भारतीय प्राध्यापकों को प्रतिनियुक्ति पर भेजती है। अनेक अन्य ऐसे देश और विश्वविद्यालय भी हैं, जो अपने प्रयासों और खर्चों से भारतीय भाषाओं के ‘नेटिव’ प्राध्यापकों को नियुक्त करते हैं। जहां यह दूसरे प्रकार की व्यवस्था है, वहां जब हमारी भाषाओं के पाठ्यक्रम-कार्यक्रम में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या में अवांछित कमी आ जाती है, तो जाहिर है कि भारतीय भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था चरमरा जाती है। ऐसे में भारत की ओर से राजनयिक-राजनीतिक स्तर पर प्राय: कोई ऐसी त्वरित और सहज प्रतिक्रिया देखने-सुनने में नहीं आती, जैसी जर्मन भाषा शिक्षण के संबंध में जर्मन सरकार की ओर से आई है।

क्या अपनी भाषाओं के प्रति हमारे गहरे भावात्मक लगाव में कमी का कारण केवल वह दासता है, जिससे हम 1947 में मुक्त हो गए थे? हम प्राय: इस बात को क्यों नहीं अनुभव कर पाते कि क्षुद्र अहम को मिथ्या तुष्टि देने वाला हमारा अंगरेजी-प्रेम अनेक अंतरराष्ट्रीय स्थितियों में भारत के अपमान का कारण बनता है? भारतीय दूतावासों में हिंदी में बात करने का प्रयास करने वाले अनेक विदेशी विद्यार्थियों को भारतीय अधिकारियों-कर्मचारियों से हिंदी में पूछे गए प्रश्न का उत्तर अंगरेजी में मिलता है, तो उन्हें सांस्कृतिक झटका लगना स्वाभाविक है। पर हमें अपने अवांछित भाषाई व्यवहार से कोई झटका क्यों नहीं लगता?

इसी भाषाई व्यवहार का दूसरा पहलू यह है कि किसी विदेशी विश्वविद्यालय या संस्थान द्वारा भारतीय भाषाओं की पढ़ाई का दर्जा घटाने या उसे बंद कर देने के फलस्वरूप भारत की ओर से प्राय: न तो किसी तरह के प्रतिरोध का स्वर सुनाई पड़ता है, न किसी फौरी मदद या विकल्प का आश्वासन दिया जाता है। आश्चर्य और खेद की बात है कि अपने आप को ‘भारतीय संस्कृति के प्रेमी’ मानने वाले अधिकतर प्रवासी भारतीय ऐसी स्थितियों से अनजान बने रहते हैं। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो हम पाएंगे कि विदेशों में संपन्न जीवन बिताने वाला अंगरेजीदां ‘भारतीय डायस्पोरा’ ऐसे मामले में ढुलमुल रवैया अपनाता है। हाल के दशकों में विश्व के कुछ जाने-माने विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई बंद होने या उसके पाठ्यक्रम का दर्जा घटाने संबंधी घटनाक्रम पर गौर करें तो यही तस्वीर उभरती है।

भारत के केंद्रीय विद्यालयों में तृतीय भाषा के रूप में जर्मन की पढ़ाई के लिए 2011 में हुए एक समझौते के अंतर्गत अपनी विश्व प्रसिद्ध ‘गोएथ संस्था’ के माध्यम से सात सौ अध्यापकों की व्यवस्था करके जर्मन सरकार ने अपने भाषा प्रेम और रुचि का परिचय दिया। जर्मन भाषा-शिक्षण की उत्कृष्ट व्यवस्था की दावेदार, वैश्विक उपस्थिति वाली इस संस्था के कार्यालय नई दिल्ली समेत भारत के कुल सात शहरों में मौजूद हैं। संस्कृत के अध्यापकों ने इस समझौते के विरुद्ध दिल्ली उच्च न्यायालय में गुहार लगाई थी कि केंद्रीय विद्यालय बोर्ड द्वारा गोएथ संस्था के साथ किया गया समझौता राष्ट्रीय शिक्षा-नीति का उल्लंघन है। अब मानव संसाधन मंत्रालय की घोषणा के अनुसार यह समझौता राष्ट्रीय शिक्षा-नीति और राष्ट्रीय शिक्षा कार्ययोजना के अनुरूप नहीं है।

केंद्रीय विद्यालय बोर्ड से कहा गया है कि आगे इसका नवीनीकरण न किया जाए। इस निर्णय के फलस्वरूप भविष्य में केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन की पढ़ाई अन्य भाषा के रूप में तो जारी रहेगी, लेकिन तृतीय भाषा के रूप में नहीं। यानी इस निर्णय ने जर्मन-शिक्षण को प्राप्त विशेष दर्जे को समाप्त कर दिया है। जर्मनी भारत के स्कूलों में तृतीय भाषा के रूप में जर्मन की पढ़ाई जारी रखवाने के लिए वैधानिक तौर पर भारत पर दबाव नहीं बना सकता, पर उसकी ओर से किए जा रहे आग्रहपूर्ण प्रयास उसके भाषा-प्रेम के उज्ज्वल दृष्टांत हैं। विदेशों में भारतीय भाषाओं के शिक्षण में आने वाली रुकावटों के निराकरण के लिए वहां के भारतवंशियों और सरकार की ओर से भी ऐसे ही दृष्टांत पेश किए जाने की जरूरत है। इससे दुनिया में न केवल हमारी भाषाई-सांस्कृतिक पहचान को बल मिलेगा, बल्कि उभरती विश्व-शक्ति के रूप में भारत की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta